पायल अपने परिवार की पहली डाक्टर थी. वो जिंदा रहती तो अपने खानदार और रिश्तेदारों में न जाने कितनों को डाक्टर बनने के लिए प्रेरित करती. और अपनी पायल दीदी, पायल बुआ और पायल मौसी को डाक्टर बने देख तमाम बच्चे उसके जैसा बनना चाहते. पायल की मौत अकेले उसकी नहीं है. पायल की मौत दलित-आदिवासी परिवार के सैकड़ों बच्चों के सपनों की मौत है.
पायल की मौत का कारण बनी शैतान लड़कियों, तुमने अकेले हमारी पायल को रस्सी पर लटकने को मजबूर नहीं किया, बल्कि हमारे समाज के सैकड़ों बच्चों के सपनों को लटका डाला है. पायल, तुम्हें भी गले में रस्सी डालकर लटकने से पहले सोचना चाहिए था. तुम अकेले नहीं मरी हो. तुम्हें लड़ना चाहिए था. एक के बदले तीन कहना चाहिए था.
पायल की मौत दलित-आदिवासी समाज को एक बड़ा संदेश भी दे गई है. ठीक है कि आप अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलवा रहे हैं. उन्हें डाक्टर, इंजीनियर और बड़े-बड़े पदों पर पहुंचने के लिए प्रेरित कर रहे हैं. लेकिन आप इन तमाम बातों के बीच अपने बच्चों को जातिवाद से लड़ना भी जरूर सिखाएं. जब आपका बच्चा 9वीं में पहुंच जाए, उसको बैठा कर एक बार कास्ट सिस्टम के बारे में जरूर बताएं. आने वाले दिनों में उसके सामने जाति से जुड़े कैसे सवाल आएंगे, इसके बारे में भी जरूर बताएं. उन्हें यह भी बताएं कि वो इन सवालों से कैसे लड़ें. उन्हें यह भी भरोसा दीजिए कि वह इस सवाल के सामने आने पर तुरंत आपसे बात करें. यह बहुत जरूरी है. क्योंकि अगर आप ऐसा नहीं करते हैं तो हो सकता है कि आपका बच्चा भी पायल और रोहित वेमुला बन जाए.
अब बहुत हो चुका. हमें और रोहित वेमुला और पायल नहीं चाहिए. अपने बच्चों को मजबूत बनाइए. तभी वो आपके सपनों को पूरा करेंगे. जातिवाद को नकारा नहीं जा सकता. वह कब आपके बच्चों के सामने आ जाए और उन्हें लील जाए, कहा नहीं जा सकता. इसलिए अपने बच्चों को मजबूत बनाइए, उन्हें लड़ना सिखाइए. जाति को छुपाने से काम नहीं चलेगा, उससे लड़ना होगा. इसीलिए मैं बहुजनों के अलग शैक्षिक संस्थानों की वकालत करता हूं. ताकि हमारे बच्चे जातीय दुराग्रहों को लेकर इतने मजबूत बन जाएं कि ब्राह्मणवाद और मनुवाद के हर सवाल से टकरा सके.
पायल और रोहित वेमुला जैसे अन्य बिटिया रानी, बहनों और बच्चों, हम तुम्हे पहली तस्वीर जैसा देखना चाहते हैं. ठसक के साथ गले में आला लगाए बड़ी कुर्सी पर बैठे हुए, या फिर विज्ञान पर लिखने वाला कार्ल सगान जैसा बनते हुए. हम तुम्हें तस्वीरों में नहीं देखना चाहते, खासतौर पर ऐसी तस्वीरों में जिस पर माला चढ़ी हो, और सामने मोमबत्तियां जल रही हो.

अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-आदिवासी समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले देश के चर्चित पत्रकार हैं। वह ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ के संस्थापक और संपादक हैं। उनकी पत्रकारिता को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई जैसे देशों में सराहा जा चुका है। वह इन देशों की यात्रा भी कर चुके हैं। अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने, जिनमें DW (जर्मनी), The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspaper (जापान), द वीक मैगजीन (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं। अशोक, दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में फरवरी, 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता के दुनिया के सबसे बड़े संगठन Global Investigation Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग मे आयोजिक कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है।
बहुत ही सही सुझाव, लड़ेंगे तो जीतेंगे
Aapne sahi bat kahi hai aapne bachcho ka jindagi ka khud dayrectar baniye
ये सुझाव बढिया है कि हम लोगों के अलग शिक्षण और प्रशिक्षण संस्थान होने चाहिए । जिनमें शिक्षण देने वाले भी हमारे समाज के ही शिक्षक और प्रशिक्षक हाें ।