कभी-कभी एक तस्वीर, सौ भाषणों से ज्यादा कह जाती है। आंध्र प्रदेश की श्री वेंकटेश्वर वेटरनरी यूनिवर्सिटी में जमीन पर बैठे डॉ. रवि वर्मा की तस्वीर ऐसी ही है, जिसने भारतीय शिक्षा व्यवस्था में जातिवाद की कलई एक बार फिर खोल दी है। ज़मीन पर बैठा एक प्रोफेसर, कंप्यूटर और फाइलों के साथ… सिर झुका हुआ, लेकिन संकल्प झुका नहीं। वह दलित है, इसलिए कुर्सी छीनी गई, और आज हमें यह सवाल पूछना चाहिए कि क्या ज्ञान की दुनिया में जाति अब भी ‘आरक्षित’ है?
डॉ. रवि वर्मा एक नाम नहीं, एक प्रतीक हैं। उन लाखों दलित युवाओं के सपनों का प्रतीक, जो पीएचडी कर शिक्षाविद् बन अपने ज्ञान के जरिये इस समाज को बदलना चाहते हैं। लेकिन उनका सपना तब टूटता है, जब विश्वविद्यालय जैसा संस्थान भी उन्हें ‘कुर्सी के लायक’ नहीं समझता। रवि वर्मा पिछले 20 साल से पढ़ा रहे हैं, वो भी बिना नियमित नियुक्ति, बिना सम्मानजनक वेतन। उच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद न वेतन मिला, न मान्यता। और अब, सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया, कुर्सी हटाकर।
दरअसल यह उस मानसिकता की कुर्सी है, जिस पर आज भी ऊँची जातियों का कब्ज़ा है, चाहे वो कॉलेज की फैकल्टी हो या प्रशासन की निर्णयकारी कमेटी। और यह कब्ज़ा इतना कठोर है कि एक दलित प्रोफेसर को ज़मीन पर बैठा देने में भी शर्म महसूस नहीं करता।
इसी बीच उत्तर प्रदेश के इटावा से एक और शर्मनाक घटना सामने आती है, जहां एक यादव जाति के कथावाचक को सिर्फ इसलिए बाल मुंडवा कर घुमाया गया क्योंकि वह कथावाचन जैसे ‘ब्राह्मणीक’ माने जाने वाले क्षेत्र में सक्रिय था। यह घटना बता देती है कि केवल दलित ही नहीं, बल्कि पिछड़ा वर्ग भी इस हिन्दू जाति व्यवस्था की गारंटीशुदा ‘हीनता’ से बाहर नहीं निकल सकता। यह घटना यह भी उजागर करती है कि हिन्दू धर्म की जातीय दीवारें आज भी कितनी सख्त हैं, और ओबीसी समाज जिसे अपना ‘धार्मिक घर’ समझता है, वहीं उनके आत्मसम्मान की चिता रचाई जाती है।
यहां यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि क्या विश्वविद्यालय इसलिए बनाए गए थे कि वे जाति व्यवस्था को और अधिक मजबूत करें? क्या ‘शिक्षा’ इस देश में अब भी सवर्ण विशेषाधिकार का पर्याय है?
जिस देश में ‘गुरु’ का दर्जा सर्वोच्च कहा गया हो, वहां एक दलित गुरु के साथ ऐसा व्यवहार क्या केवल प्रशासनिक असावधानी है? नहीं। यह एक सुनियोजित सामाजिक अपमान है। यह ब्राह्मणवादी सत्ता-संरचना की वही पुरानी चाल है, जिसे आज भी किसी न किसी रूप में दोहराया जा रहा है। फर्क बस इतना है कि पहले दलित को मंदिर में घुसने नहीं दिया जाता था, अब विश्वविद्यालय में कुर्सी पर बैठने नहीं दिया जाता।
डॉ. वर्मा के पास न तो राजनैतिक संपर्क हैं, न मीडिया की कृपा। वे एक साधारण, मेहनती शिक्षक हैं, अपने काम में विश्वास रखने वाले। शायद यही उनकी सबसे बड़ी कमी है, जो इस जातिवादी व्यवस्था को चुभती है। सवाल यह है कि जब न्यायालय के आदेश, UGC की गाइडलाइन, सुप्रीम कोर्ट का ‘समान वेतन’ पर निर्णय भी एक दलित को न्याय नहीं दिला पाते, तब क्या सचमुच हमारा लोकतंत्र, हमारा संविधान, और हमारी शिक्षा-नीति सबकुछ बेअसर हो चुके हैं?
जो लोग कहते हैं कि दलितों को सबकुछ मिल गया है, उन्हें डॉ. रवि वर्मा और उस यादव कथावाचक की कहानी जरूर पढ़नी चाहिए। ये कहानियां आज़ादी के बाद भी आज़ाद न हो पाने की कहानियां हैं।
खास बात यह है कि डॉ. रवि वर्मा ने इसके खिलाफ नारेबाज़ी नहीं की, गुस्सा नहीं दिखाया, वे ज़मीन पर बैठ गए और एक सवाल छोड़ दिया कि कुर्सी से गिराया है, क्या इंसानियत से भी गिरा दोगे?
कुर्सी हटाने वालों से अब हमें कहना होगा — कुर्सी नहीं, जाति हटाओ।

अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-आदिवासी समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले देश के चर्चित पत्रकार हैं। वह ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ के संस्थापक और संपादक हैं। उनकी पत्रकारिता को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई जैसे देशों में सराहा जा चुका है। वह इन देशों की यात्रा भी कर चुके हैं। अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने, जिनमें DW (जर्मनी), The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspaper (जापान), द वीक मैगजीन (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं। अशोक, दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में फरवरी, 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता के दुनिया के सबसे बड़े संगठन Global Investigation Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग मे आयोजिक कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है।