जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, उन राज्यों में अचानक कई दलित, आदिवासी, बहुजन, मूलनिवासी संज्ञाओं वाली राजनीतिक पार्टियों का प्रवेश, उद्भव हो गया है और उनके नवनियुक्त नेतागण सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारने की घोषणा इस तरह कर रहे हैं, जैसे कि वे हेलिकॉप्टर में भर कर आसमान से जमीन पर उम्मीदवारों का छिड़काव कर देंगे.
दलित बहुजन मूलनिवासी नेताओं के तूफानी हवाई दौरे शुरू हो चुके हैं. नामचीन और बेनाम, दोनों ही वैरायटी के नेताओं का भारी मात्रा में राजस्थान सहित सभी चुनावी राज्यों में पदार्पण हो रहा है. इनमें से कुछ तो निजी विमानों व चॉप्टर का आनंद भी उठा रहे हैं. हाल यह है कि जिनको कोई बस में न बुलाएं, उनके लिए हेलीकॉप्टर भेजे जा रहे हैं. जमीन से आसमान तक आनंद ही आनंद है, मौजां ही मौजां.
आचार संहिता लागू हो गई है, राज्य सरकारों द्वारा 2 अप्रैल के केस वापस लेने का वादा धरा का धरा रह गया है. इससे दलित आदिवासी वर्ग में नाराजगी का बढ़ना स्वाभाविक मानते हुए भी भाजपा की सत्तारूढ़ सरकारों ने यह खतरा उठा लिया है. वे इस मुद्दे पर एकदम मौन हैं. उनकी खामोशी अजा/जजा वर्ग के फंसे हुए आंदोलनकारियों को आक्रोशित कर रही है, वहीं बड़ी संख्या में अन्य वर्गों को तुष्ट भी कर रही है.
बहुचर्चित और बहुप्रतीक्षित बसपा कांग्रेस का महागठबंधन बनने से पूर्व ही टूट गया है, वो भी एक ऐसे व्यक्ति को दोष देते हुए, जिसे उनकी पार्टी भी सीरियस नहीं लेती. पर बहन मायावती ने कांग्रेस अध्यक्ष व सप्रंग अध्यक्षा के प्रति नरम रुख रखते हुए सारा ठीकरा दिग्विजय सिंह पर फोड़ दिया है और राजस्थान व मध्यप्रदेश में अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है. रणनीति अब यह है कि बहुजन समाज के तमाम संघर्षशील लड़ाकू लोगों को टिकट दे कर सारी सीटें लड़ी जाए.
एक और घटना पर गौर करना भी लाज़मी होगा कि महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के एक अनाम से गांव की दो अधेड़ महिलाएं जयपुर पहुंची और उन्होंने हाईकोर्ट में लगी मनु की मूर्ति पर काला रंग स्प्रे कर दिया और पकड़ी भी गई. वो अभी पुलिस हिरासत में हैं. उनके पक्ष में माहौल खड़ा किया जा रहा है, मूर्तियों के मान अपमान की राजनीति फिर से लौटने की संभावना प्रबल हो रही है. इसके साथ-साथ सुनियोजित तरीके से हर विधानसभा क्षेत्र से एक दलित या आदिवासी उम्मीदवार किसी न किसी वैकल्पिक दल या समूह से उतारने की कोशिश हो रही है, ताकि वह 5 से 15 हजार वोटों का कबाड़ा करके भाजपा की जीत को पक्का कर दे.
उपरोक्त बातों को अलग अलग देखा जाए तो यह स्वाभाविक सी प्रक्रिया लगती है, मगर इनको जोड़कर देखा जाये तो कुछ और ही तस्वीर बनती दिखलाई पड़ती है. ऐसा लगता है कि कोई शातिर जमात सुव्यवस्थित रूप से इस पटकथा को रच रहा है, जिसके ध्वजवाहक बने लोग दरअसल लीडर नहीं बल्कि डीलर हैं और इस नाटक को मासूम लोग बिना समझे मंचित करने को उतावले हो रहे हैं. सवाल है कि आखिर वो कौन लोग, समूह या ताकतें है जो राजस्थान की अनुसूचित जाति के 17 प्रतिशत आबादी वाले मतदाताओं और 13 फीसद वाले जनजाति वोटरों की ताकत को बिखेरने का उच्चस्तरीय षड्यंत्र रच रहे हैं? इनकी पहचान व पर्दाफाश होना बहुत जरूरी है.
अजीब प्रहसन चल रहा है. मंच पर भाजपा को रोकने की बातें, कसमें और वादे किए जा रहे हैं और धरातल पर जो काम हो रहा है, उससे चुनावी राज्यों में सीधे सीधे भाजपा की सत्ता में वापसी सुनिश्चित हो रही है. इसलिए अब शायद वक़्त आ गया है जब हमें खुलकर यह जरूर पूछना चाहिए कि पार्टनर लोगों आपका एक्चुअल प्लान क्या है? करना क्या चाहते हो? ये मिशन, विचारधारा, जन गोलबंदी आदि इत्यादि के बड़े बड़े शब्दों की आड़ में क्या करने जा रहे हो? कहीं कोई और लोग तो एजेंडा फिक्स नहीं कर रहे हैं? यह देखना बेहद जरूरी है.
कोई क्यों मुंबई, नागपुर, दिल्ली या लखनऊ में बैठ कर तय कर रहा है कि राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ का दलित आदिवासी अपने मताधिकार का कैसे उपयोग करेगा? चुनावी राज्य के बजाय किन्ही अन्य राज्यों में बैठे लोग किस मकसद से एजेंडा तय कर रहे है और क्यों? दलित आदिवासी बहुजन मूलनिवासी वोटों के इन सौदागरों से पूछिए कि आप होते कौन हैं हमारे बारे में निर्णय करने वाले? हमें मूर्ख या गुलाम समझ रखा है जो हमारे नाम पर कोई और, कहीं और फैसला करोगे?
नहीं, अब यह नहीं चलने वाला. राजस्थान वाले साथी राजस्थान में तय करेंगे, एमपी वाले एमपी में और छतीसगढ़ वाले छत्तीसगढ़ में सब कुछ तय करेंगे.
‘वोट हमारा – निर्णय तुम्हारा’ नहीं चलेगा।
हम सामूहिक रूप से निर्णय करेंगे, हम यह तय करेंगे कि कौन हमारे राज्यों में संविधान विरोधी, दलित आदिवासी विरोधी भाजपा को रोक सकता है? हम ऐसे जिताऊ, टिकाऊ और गैर बिकाऊ तथा 2 अप्रैल के आंदोलन में हमारे साथ खड़े रहे उम्मीदवारों को चुनेंगे, यही हमारा मापदंड है और यही हमारा गठबंधन है. बाकी तो ठगबंधन है, डीलें हैं और डीलरशिप के मामले हैं, जिन्हें समझना अब इतना मुश्किल भी नहीं हैं.
– भंवर मेघवंशी
(संपादक – शून्यकाल)
