नई दिल्ली। बहुजन समाज पार्टी के शासनकाल में बनाए गए स्मारक और पार्कों में बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष सुश्री मायावती और हाथियों की बनी प्रतिमाओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद मनुवादी मीडिया को जैसे बसपा और इसकी प्रमुख मायावती को बदनाम करने का मौका मिल गया. सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद मीडिया ने कोर्ट की टिप्पणी से इतर अपनी तरह से इस खबर को लेकर बसपा को कठघरे में खड़ा करना शुरू कर दिया. एक बार फिर इसी बहाने पार्क के निर्माण में घोटालों की बात कही जाने लगी. मीडिया की इस मनुवादी सोच पर बसपा प्रमुख मायावती ने तमाम मीडिया संस्थाओं को आड़े-हाथों लिया है. एक बयान जारी कर बसपा प्रमुख ने कहा है कि-
सदियों से तिरस्कृत दलित व पिछड़े वर्ग में जन्मे महान संतों, गुरुओं व महापुरुषों के आदर-सम्मान में निर्मित भव्य स्थल/स्मारक/पार्क आदि उत्तर प्रदेश की नई शान, पहचान व व्यस्त पर्यटन स्थल है, जिसके आकर्षण से सरकार को नियमित आय भी होती है. मीडिया कृप्या करके माननीय सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को तोड़-मरोड़ कर पेश ना करे.
माननीय न्यायालय में अपना पक्ष जरूर पूरी मजबूती के साथ आगे भी रखा जाएगा. हमें पूरा भरोसा है कि इस मामले में भी माननीय न्यायालय से पूरा इंसाफ मिलेगा. मीडिया व बीजेपी के लोग कटी पतंग ना बनें तो बेहतर है.
दरअसल सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद एक बार फिर से इस मुद्दे को लेकर सोशल मीडिया पर बहस छिड़ गई. इस मुद्दे पर विमल वरुण ने लिखा है-
बीएसपी का चुनाव चिन्ह खड़ा हाथी हैं, जिसकी सूँड़ नीचे जमींन की तरफ है, जबकि इन स्थलों में लगे हाथियों की सूँड़ ऊपर की तरफ है, जो की स्वागत का प्रतीक है.
क्या जज साहब को यह भी नहीं दिखता?

तो वहीं इन पार्कों और स्मारकों में बसपा प्रमुख सुश्री मायावती की प्रतिमा लगने के मुद्दे पर समाजशास्त्री और राजनीतिक विश्लेषक डॉ. विवेक कुमार का कहना है-
बहनजी की मूर्ति लगाने का फ़ैसला पहले कैबिनेट में पारित हुआ होगा. फिर यह फ़ैसला विधानसभा के पटल पर पारित हुआ होगा. इसके पश्चात शहरी विकास मंत्रालय के बजट में इसके लिए धनराशि का प्रावधान किया गया होगा जो की उ.प्र. विधान सभा के दोनो सदनों एवम् राज्यपाल ने पारित किया होगा. अत: यह फ़ैसला संवैधानिक प्रक्रिया एवं संवैधानिक संस्था का फ़ैसला है, ना की किसी एक व्यक्ति का. इसलिए बहनजी की प्रतिमा के लिए बहनजी को व्यक्तिगत रूप से कैसे उत्तरदायी ठहराया जा सकता है? अगर भारत के दूसरे राजनैतिक दल अपने नेता की मूर्ति सरकारी पैसे से लगा सकते हैं, सरकारी पैसे से बने हुए भवनों के नाम अपने-अपने नेताओं के नाम पर रख सकते हैं तो फिर बहुजन समाज पार्टी अपने नेता की मूर्ति क्यों नहीं लगा सकती. क्या इस देश में दो क़ानून है – एक सवर्णो के लिए और दूसरा बहुजनो के लिए?
फिलहाल इस मुददे को लेकर बहस जारी है. साथ ही इस घटना ने मीडिया का जातिवादी चेहरा और देश के बहुजनों के लेकर दुर्भावना को एक बार फिर साबित कर दिया है.

अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-आदिवासी समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले देश के चर्चित पत्रकार हैं। वह ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ के संस्थापक और संपादक हैं। उनकी पत्रकारिता को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई जैसे देशों में सराहा जा चुका है। वह इन देशों की यात्रा भी कर चुके हैं। अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने, जिनमें DW (जर्मनी), The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspaper (जापान), द वीक मैगजीन (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं। अशोक, दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में फरवरी, 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता के दुनिया के सबसे बड़े संगठन Global Investigation Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग मे आयोजिक कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है।