
पत्रिका का पांचवा वर्ष

बाबासाहेब से मेरा संवाद साकारात्मक संवाद है- श्योराज सिंह ‘बेचैन’

दलित साहित्य संघर्ष करने की प्रेरणा देता हैः जयप्रकाश कर्दम

राजनीति फेल्योर लोगों का जमावड़ा है – संजय पासवान


रिजर्वेशन नहीं, दलितों को चाहिए एजुकेशन- कांचा इल्लैया

दलित राजनीति भले ही लंगड़ी हो, उसे बढ़ाना जरूरी- प्रकाश अंबेडकर


प्रकाश अंबेडकर से संपर्क करने के लिए आप उन्हें उनके ई-मेल prakashambedkar@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.
हम सबके डॉ. अम्बेडकर

- अंतरजातीय विवाह को कानूनी मान्यता दिलाने में योगदान
- दत्तक बच्चों को अधिकार दिलाने में भूमिका
देवभूमि के दलितों का दर्द
उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है. यहां कण-कण में भगवान के होने का दावा किया जाता है, लेकिन इसी देवभूमि की एक हकीकत ऐसी भी है, जिसे उत्तराखंड के चेहरे पर दाग और लोकतंत्र के साथ मजाक कहना ही ठीक होगा. राजधानी देहरादून से सिर्फ 84 किलोमीटर दूर जौनसार बावर का क्षेत्र है. यह क्षेत्र चकराता तहसील में आता है. दिलचस्प बात यह है कि इस पूरे इलाके को ट्राइबल क्षेत्र घोषित कर दिया गया है. इस इलाके में जौनसारी परंपरा का पालन किया जाता है और सरकारी कागज में इस परंपरा को मानने वाले सभी लोगों को ट्राइबल यानि आदिवासी कहा जाता है. यानि यहां का ब्राह्मण भी ‘आदिवासी’ है और ठाकुर भी ‘आदिवासी’ है.
भारत के लोकतंत्र में यह देश का इकलौता इलाका है जहां सरकार ऊंची जाति के लोगों को ‘आदिवासी’ मानती है और उन्हें आरक्षण का हर लाभ देती है. लेकिन आदिवासी घोषित ऊंची जाति के लोगों ने दलित समाज के लोगों के हक को भी मार लिया है. ट्राइबल के सर्टिफिकेट के साथ वो रिजर्वेशन का पूरा फायदा उठाते हैं. उनका नौकरियों पर कब्जा है लेकिन दलित समाज; जिसकी आबादी 42 फीसदी है, उसे ट्राइबल का सर्टिफिकेट तक नहीं मिलता है. ट्राइबल क्षेत्र होने की वजह से उन्हें बिना इस सर्टिफिकेट के कोई लाभ नहीं मिलता है. यही नहीं इस इलाके में दलितों से बंधुवा मजदूरी तक कराई जाती है. दलितों के मंदिर में प्रवेश पर भी रोक है. दलित जब इसकी शिकायत करते हैं तो अव्वल तो उनकी शिकायत नहीं सुनी जाती है, और अगर कोई अधिकारी दलितों के दर्द से पिघल भी जाता है तो ट्राइबल होने की वजह से ऊंची जाति के लोगों के खिलाफ उन पर जातीय उत्पीड़न का कोई कानून लागू नहीं होता है.
24 जून 1967 को जौनसार क्षेत्र को एक विशेष विधेयक पारित कर जनजातीय क्षेत्र घोषित कर दिया गया. इसके लिए तर्क यह दिया गया कि इस क्षेत्र की संस्कृति समान है. लेकिन जनजातीय क्षेत्र घोषित करने से ज्यादा जरूरी यहां के दलितों के हालात को सुधारना था, जिस पर सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया. कथित देव भूमि के दलितों की बदहाली का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि 1976 में इस क्षेत्र में 18 हजार दलित बंधुआ मजदूर थे. वर्तमान में संख्या घटी है लेकिन हालात पूरी तरह सुधरे नहीं हैं. तुर्रा यह कि तमाम शिकायतों के बाद भी अब तक इस क्षेत्र में बंधुआ मजदूरी के लिए किसी को भी सजा नहीं हुई है. दलितों का आरोप है कि ऊंची जाति के ट्राइबल लोग दलितों को ट्राइबल का सर्टिफिकेट जारी नहीं होने देते हैं. इस भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाने वाले समाजसेवी दौलत कुंवर कहते हैं, “देश भर में ऐसा नियम कहीं नहीं है कि पटवारी स्थानीय व्यक्ति हो, लेकिन जौनसार क्षेत्र का पटवारी स्थानीय व्यक्ति होता है, जो आमतौर पर ट्राइबल घोषित अपर कॉस्ट होता है. यह स्थानीय पटवारी दलितों के लिए मुश्किल खड़ी करता है. उन्हें सरकारी नियमों तक नहीं पहुंचने देता और ना ही उनका जाति प्रमाण पत्र बनने देता है. दलितों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए वह हर तरह से अड़ंगा लगाता है.” कुंवर दलितों को एसटी का प्रमाण पत्र देने में प्रशासनिक भेदभाव का आरोप लगाते हैं. अपना उदाहरण देते हुए कहते हैं कि खुद मुझे एसटी का सर्टिफिकेट पाने के लिए अदालत की शरण लेनी पड़ी. एक लंबी लड़ाई और अदालत के आदेश के बाद मुझे एसटी का सर्टिफिकेट जारी किया गया. कुछ जातियों को लेकर भी यहां मामला उलझा हुआ है. कोल्टा ऐसी ही जाति है, जिसे केंद्र सरकार तो एसटी मानती है जबकि स्थानीय प्रशासन एससी.
कुंवर कहते हैं कि इस क्षेत्र में कोल्टा जाति की आबादी 32 प्रतिशत है. सन् 2004 में बसपा के तत्कालिन राज्यसभा सांसद इसम सिंह ने सदन में पूछा था कि कोल्टा जाति किस वर्ग में आता है. इस पर तत्कालिन सामाजिक न्याय मंत्री सत्यनारायण जटिया ने इसे एसटी वर्ग का बताया था, जबकि स्थानीय प्रशासन इस जाति को एससी मानता है और उसे अनुसूचित जाति का सर्टिफिकेट जारी करता है. कुंवर कहते हैं कि इस तरह के घालमेल से दलितों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है. कोल्टा जो एसटी का दर्जा पाने की सही हकदार जाति थी, उसे एसटी में शामिल नहीं किया गया. कुंवर का आरोप है कि क्षेत्र के ठाकुर और ब्राह्मण समाज के लोग मिलकर दलितों को उनके हक से दूर रखने की साजिश रचते हैं. जाति प्रमाण पत्र का आवेदन स्वीकार करने और जारी करने वाले लोग भी इसी समाज के हैं, जो दलितों द्वारा एसटी के प्रमाण पत्र के लिए आवेदन करने पर कई तरह की मुश्किलें खड़ी करते हैं. उनको इस बात का डर है कि एसटी का जाति प्रमाण पत्र मिलने के बाद दलित समाज के लोग आरक्षण के लाभ में उनके हिस्सेदार हो जाएंगे. एसटी का प्रमाण पत्र नहीं होने की वजह से यहां के दलित चाहकर भी किसी स्थानीय चुनाव या फिर एमपी एमएल के चुनाव में हिस्सा नहीं ले सकते. उन्हें सरकार की किसी भी सुविधा का लाभ तभी मिल सकेगा जब उनके पास एसटी का सर्टिफिकेट होगा.
हम सबके डॉ. अम्बेडकर
देव भूमि के रूप में इसकी पहचान होने के कारण देवता भी यहां राजनीति के केंद्र में है. देवताओं को आगे कर के यहां ऊंची जाति के लोगों द्वारा दलितों के लिए कई तरह के नियम कानून बना दिए गए हैं, जो निम्न जातियों के लिए गुलामी की जंजीर साबित हो रही है. उत्तराखण्ड और हिमाचल में मंदिरों की संख्या 6 हजार से ज्यादा है. उत्तराखंड के तो कई इलाकों में घोषित तौर पर दलितों का मंदिरों में प्रवेश वर्जित है. अगर कोई गलती से मंदिर में चला गया तो पूरे गांव के सामने उस पर जुर्माना लगाया जाता है. जौनसार-बावर में लगभग 1500 छोटे-बड़े मन्दिर हैं, जिनमें दलितों को नहीं जाने दिया जाता है. दसऊ गांव के प्रधान के पिता 75 वर्षीय केसरू ‘दलित दस्तक’ से अपने दर्द को साझा करते हुए कहते हैं कि गांव के ठाकुर उन्हें मंदिर में नहीं जाने देते. कहते हैं कि तुम छोटे लोग हो, नीच हो, इसलिए मंदिर में नहीं जा सकते. एक बार मेरा लड़का मंदिर में चला गया तो पूरे पंद्रह गांव की पंचायत में मुझसे पांच सौ रुपये का दंड लिया गया. केसरू की घटना इकलौती घटना नहीं है. एक बार गांव की ही एक बेटी ने शादी के बाद मंदिर में जाने की कोशिश की थी, उसे पूरे गांव के सामने जलील किया गया. उसके पति और पिता के साथ धक्का मुक्की की गई. पिता को चेतावनी दी गई कि आखिरकार उसने गांव की परंपरा जानने के बाद अपनी बेटी को मंदिर में जाने से क्यों नहीं रोका.
हाल ही में समाजसेवी दलित कुंवर ने अपनी पत्नी सरस्वती रावत कुंवर और अन्य लोगों के साथ मिलकर इस परंपरा को चुनौती दी. उन्होंने जौनसार के प्रतिष्ठित गबेला मंदिर में जाने के लिए परिवर्तन यात्रा निकाली. अपने 200 समर्थकों के साथ कुंवर मंदिर की ओर बढ़े. इससे सतर्क गांव के ब्राह्मण और ठाकुरों ने पूरे मंदिर की नाकेबंदी कर दी. दलितों को मंदिर प्रवेश से रोकने के लिए ब्राह्मण और ठाकुर समाज के ‘आदिवासी’ लोगों की महिलाएं और बच्चे तक निकल पड़े. मंदिर प्रवेश करने की कोशिश में लगे लोगों को पत्थर फेंक कर मारा गया और उन्हें मंदिर तक नहीं पहुंचने दिया. इसके बाद कुंवर और उनके साथी भूख हड़ताल पर बैठ गए. पूर्व आइएएस अधिकारी चंदर सिंह ने मामले में हस्तक्षेप किया जिससे प्रशासन हड़कत में आया और गांव में धारा 144 लगा दी गई. पहले तो इस मामले को दबाने की कोशिश की गई फिर मीडिया में मामला उछलने पर प्रशासन ने पुलिस की मदद से कुंवर दंपत्ति और उनके साथियों को मंदिर में प्रवेश करवाया. दौलत कुंवर कहते हैं, “हमें पता है कि मंदिर में जाने से हमारा कोई भला नहीं होने वाला लेकिन हम इस पाबंदी को तोड़ना चाहते थे. हम लोकतांत्रिक देश में रह रहे हैं और कहीं भी आना जाना हमारा अधिकार है.”
देवताओं की नगरी में छूआछूत की कहानी यहीं खत्म नहीं होती है. बल्कि यह परत दर परत कई स्तर पर मौजूद है. यहां के दलित, ट्राइबल ऊंची जाति के लोगों के घर नहीं जा सकते. और अगर ऊंची जाति के लोग किसी काम से उनके घर आते हैं तो उनका छुआ कुछ भी नहीं खाते पीते. यहां तक की ऊंची जाति के ट्राइबल द्वारा दलितों को काम के लिए बुलाने पर उन्हें उनके घर जाना पड़ता है. काम के बदले उऩ्हें दिहारी तक नहीं मिलती. बंधुआ मजदूरी की बात पर दौलत कुंवर कहते हैं कि यहां बंधुआ मजदूरी जैसा घिनौना काम करवाया जाता है. वह दावे के साथ इस क्षेत्र में तकरीबन 3000 बंधुआ मजदूर के होने की बात कहते हैं. कहते हैं कि मैंने खुद 195 बंधुआ मजदूरों को इससे मुक्ति दिलवाई है. दलित दस्तक की टीम जिस दिन इस स्टोरी को कवर करने के लिए जौनसार पहुंची थी, उस दिन भी बंधुआ मजदूरी की चपेट में फंसा एक परिवार जिलाधिकारी के पास अपनी फरियाद लेकर पहुंचा था.
अब जरा यहां के दलित समाज के बच्चों के दर्द को महसूस करिए. आमतौर पर स्कूल के लिए उन्हें हर रोज 12 से 14 किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता है. 6वीं कक्षा में पढ़ने वाली अंजू गौना गांव की है, जबकि उसका स्कूल हाजा में है जो उसके गांव से छह किलोमीटर दूर है. यानि अंजू को अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए रोज 12-14 किलोमीटर तक चलना पड़ता है, जबकि वहीं दूसरी ओर ऊंची जाति के लोगों के गांव में ही स्कूल और अस्पताल जैसी सुविधाएं मौजूद हैं. इस इलाके की एक सच्चाई यह भी है कि जहां ऊंची जाति के लोग बिल्कुल सड़क पर बसे हैं और उनके घरों तक गाड़ियों के पहुंचने की सुविधा मौजूद हैं तो वहीं दलित समाज के लोग पहाड़ों में मुख्य सड़क से पांच से पंद्रह किलोमीटर तक नीचे बसे हुए हैं, जहां उन्हें मुख्य सड़क से उतर पर पैदल नीचे जाना पड़ता है. आप कल्पना कर सकते हैं कि जब आज गांव-गांव में स्कूल खुल चुके हैं और लोगों के घरों तक गाड़ियों के पहुंचने की सुविधा मौजूद है, ऐसे में पहाड़ों में दलित समाज के लोगों को अपने बच्चों को पढ़ाना और रोज की जिंदगी में कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.
इस क्षेत्र में आप लोकतंत्र का मजाक उड़ते भी देख सकते हैं. यहां चुनाव चाहे जो जीते फैसला ‘सयाना’ का लागू होता है. सयाना वह पद है, जो पीढ़ियों से एक ही परिवार के पास है. भले ही वह अनपढ़ हो, भले ही उसकी उम्र छोटी हो और समझ शून्य हो लेकिन गांव में वही होगा, जो सयाना कहेगा. यहां तक कि चुनावों के दौरान गांवों के लोग उसी उम्मीदवार को वोट देते हैं, जिसके नाम पर सयाना मुहर लगाता है. इस परंपरा के जरिए कहीं न कहीं एक केंद्रीय सत्ता कायम करने की कोशिश की गई है क्योंकि लोगों का कहना है कि सयाना के ज्यादातर पदों पर ठाकुरों का कब्जा है जो सीधे इस क्षेत्र से सांसद प्रतीम सिंह से जुड़े हुए लोग हैं. इस पूरे इलाके में सन् 1952 से ही प्रीतम सिंह और उनके परिवार के लोगों का राजनीतिक वर्चस्व है. प्रीतम सिंह के परिवार के चमन सिंह चौहान यहां जिला पंचायत प्रमुख हैं, जबकि राजपाल सिंह चौहान चकराता के ब्लॉक प्रमुख हैं. प्रीतम सिंह के कद का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि वह हरीश रावत सरकार में गृहमंत्री रहे हैं.
हालांकि इन तमाम बातों से यहां का प्रशासन आंख मूंदे बैठा है. इस बारे में जब एडीएम कालसी प्रेम लाल से बात की गई तो उन्होंने इस क्षेत्र में बंधुआ मजदूरी की घटना से साफ इंकार कर दिया. वह इस बात को मानने के लिए भी तैयार नहीं थे कि दलितों को ट्राइबल का सर्टिफिकेट नहीं दिया जाता. उप जिलाधिकारी (एडीएम) ने सरकारी नियमों का हवाला देते हुए कहा कि हमारे पास GOV है जिसमें साफ कहा गया है कि इस क्षेत्र के एससी के लोग चाहे तो एसटी का सर्टिफिकेट ले सकते हैं. लेकिन इसी कार्यालय में कुछ स्टॉफ ऐसे भी मिले जिन्होंने ऊंची जाति के ट्राइबल लोगों की आपसी मिली भगत की बात को माना. उनका कहना था कि इस क्षेत्र में सत्ता से लेकर नौकरी तक में ऊंची जातियों का वर्चस्व है. वह अपने इस वर्चस्व को छोड़ना नहीं चाहते. उन्हें पता है कि दलितों के पास एसटी का सर्टिफिकेट हो जाने के बाद वह सत्ता और नौकरियों में भागीदार हो जाएंगे. इसलिए उनकी सारी कोशिश शुरुआती स्तर पर ही दलितों को रोक देने की होती है. एसटी का प्रमाण पत्र जारी नहीं किया जाना इसी मिली-भगत का नतीजा है.
सामाजिक कार्यकर्ता आर.पी विशाल का कहना है कि सिस्टम में बैठे हुए सारे लोग ऊंची जाति के ट्राइबल लोग हैं. चूकि यह क्षेत्र ट्राइबल है तो सारा फायदा ट्राइबल उठा लेते हैं और एससी के लोग मुंह ताकते रह जाते हैं. जौनसार का यह सच दिल्ली को मुंह चिढ़ाने वाला है. यह देश के लोकतंत्र पर एक कालिख के समान है. देखना यह है कि दिल्ली और उत्तराखंड की सरकार इस कालिख को पोंछने की कोशिश करती है या नहीं.
छद्म राष्ट्रवाद की उग्रता

गणतंत्र के 65वें वर्ष में बहुजन कहां?

लड़ाई ही हमारा अंतिम हथियार है – अशोक भारती

इस इंटरव्यूह पर अशोक भारती तक अपनी प्रतिक्रिया पहुंचाने के लिए आप उन्हें 09810418008 पर फोन कर सकते हैं। दलितमत तक अपनी प्रतिक्रिया पहुंचाने के लिए आप संपादक अशोक दास को 09711666056 पर फोन कर सकते हैं।
बढ़ते समाज के प्रतीक हैं कुलपति डा. कुरील

इस इंटरव्यूह पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए आप नीचे कमेंट बॉक्स में कमेंट दे सकते हैं. कुलपति डा. कुरील तक अपनी बात सीधे पहुंचाने के लिए आप उन्हें drkureel@yahoo.co.in पर मेल कर सकते हैं.
एस.आर लाखाः ईट भठ्ठे से कुलपति पद का सफर

इस इंटरव्यूह पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए आप दलित मत.कॉम से 09711666056 पर संपर्क कर सकते हैं. अगर आप कुलपति एस.आर लाखा तक कोई संदेश देना चाहते हैं तो हमें ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं.
जेएनयू जैसी जगहों पर भी दबाए जाते हैं दलित- प्रो. काले

प्रो. आर.के काले ‘सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ गुजरात’ के कुलपति हैं. इस इंटरव्यूह पर प्रतिक्रिया देने के लिए आप उन्हें raosahebkale@gmail.com पर मेल कर सकते हैं. ‘दलित मत’ के जरिए भी आप उन्हें कोई संदेश भेज सकते हैं. ‘दलित मत’ से संपर्क के लिए आप ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं या फिर 09711666056 पर फोन कर सकते हैं.
अभी ‘जय’ से ज्यादा ‘जागने’ की जरूरत- अनिल चमडिया

भाग-एक आपका जन्म कहां हुआ, किस परिवार में, शिक्षा-दीक्षा कहां हुई? – बिहार में सासाराम एक शहर है, मेरा जन्म वहां हुआ. जन्म का साल 1962 है और तिथि शायद 27 अक्तूबर है. ‘शायद’ इसलिए क्योंकि मेरे जन्म का कोई ऐसा लिखित प्रमाण नहीं है. मेरा परिवार एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार था. हालांकि अब स्थिति अच्छी हो गई है. मेरी पढ़ाई-लिखाई थोड़ी डिस्टर्ब रही. गुरुद्वारा का एक स्कूल था, हम वहीं पर जाते थे. भारती मंदिर स्कूल का नाम था. सातवी तक हम यहीं पढ़े. मेरे पिताजी चाहते थे कि मैं शहर से बाहर जाकर पढ़ूं लेकिन उसी समय उनको दिल का दौरा पड़ गया. उस जमाने में यह बहुत बड़ी बीमारी थी. घर में सबसे बड़े हम ही थे, तो शहर जाना नहीं हो पाया. मेरी हाई स्कूलींग जो है, वो नहीं हो पाई. आठवीं की परीक्षा प्राइवेट दी. नौवीं में जरूर एक साल के लिए पब्लिक स्कूल में पढ़ाई की. फिर मैनें बोर्ड की परीक्षा (तब ग्यारवीं में होती थी) दी. हालांकि हम अपने शहर में बहुत अधिक दिनों तक नहीं रहे. शुरू से ही विषय कार्मस था. 82 में ग्रेजुएशन पास करने के तुरंत बाद मेरा लिखना शुरू हो गया था. आपको पता होगा, तब बिहार में आरक्षण को लेकर काफी लड़ाई चल रही थी. तब हम कॉलेज में थे. हमने उसमें भागीदारी की. उसे लीड किया. हालांकि 74 के आंदोलन में भी हिस्सा लिया था. उम्र छोटी थी लेकिन मुझे याद है हमलोग स्टेशन पर चले आए थे, गाड़ियां रोकी थी. उसी समय एक राजनीतिक रुझान बनना शुरू हो गया था. लेकिन 82 के बाद हम शहर में नहीं रह पाएं. फिर पटना चले आएं. यहां कुछ दिनों तक सामाजिक न्याय की राजनीति से जुड़े रहे, फिर समाज में बुनियादी परिवर्तन की राजनीति से जुड़े रहे. तो ये सब काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा. लेकिन लेखन और एक्टिविज्म ये शुरू से साथ-साथ चलता रहा. अपने नाम के साथ ‘चमडिया’ कब जोड़ा, इसकी क्या वजह थी? – जोड़ा नहीं, चमडिया तो हमारे परिवार में लोग लगाते हैं. इसकी क्या वजह थी हमें नहीं मालूम. यहां हम एक बात कोट कर सकते हैं, ‘प्रभाष जोशी एक संपादक थे जनसत्ता के, काफी मशहूर. उन्होंने एक बार हमारे एक दोस्त हैं शेखर जो कि अभी पटना में हैं और काफी अच्छे कहानीकार माने जाते हैं. तो राजेंद्र भवन में एक कार्यक्रम चल रहा था. शायद किसी किताब का विमोचन था. प्रभाष जोशी भी आए थे. उन्होंने हमारे दोस्त से पूछा कि आप जानते हैं कि आपके मित्र अनिल चमडिया,‘चमडिया’क्यों लगाते हैं? हमारे दोस्त ने कहा कि मुझे कभी पूछने की जरूरत महसूस नहीं हुई. तब प्रभाष जोशी ने हमारे दोस्त को बताया कि इनके जो पूर्वज थे वो चमड़े का कारोबार करते थे. इसकी वजह से ये लोग अपनी टाइटिल चमड़िया लगाते हैं. ’वो खुद को राजस्थान का मानते थे और हालांकि मैं जानता नहीं लेकिन मेरा परिवार भी शायद वहां से आया होगा. क्योंकि एक बार मैं इंटरनेट पर सर्च कर रहा था कि चमड़िया टाइटिल कहां-कहां कौन लिखता है. तो कुछ क्रिश्चियन नाम जैसा देखा, पाकिस्तान के कुछ मुस्लिम नाम जैसा देखा, गुजरात में देखा. तो कई तरह के और जगह के लोग इस टाइटिल का इस्तेमाल करते थे. यानि यह टाइटिल आपके साथ शुरू से रहा? – हां, शुरू से रहा. इसके चलते हमें परेशानियां भी होती थी. क्योंकि जिस शहर में हमलोग थे वो बहुत छोटा शहर था. हमारे कॉलेज में भी लोग हमको बड़ी अजीब तरीके से पुकारते थे. चमड़ी-चमड़ी ही कहते थे, चमड़िया कोई नहीं कहता था. बहरहाल हमने कभी इसके जड़ में जाने की जरूरत इसलिए महसूस नहीं की क्योंकि टाइटिल स्थाई नहीं होते हैं. टाइटिल बदलते रहते हैं. जैसे हमारे ही परिवार में अब एक फर्क आ गया. मेरे भाई ड़ लिखते हैं, हम ड लिखते हैं. तो इसमे मैं कभी डीप में नहीं गया कि क्या कारण हैं. मैं केवल इतना जानता हूं कि इस परिवार में पैदा हुआ हूं, यह टाइटिल मिला है और इसे लेकर चलना है. आपके दलितवादी होने की वजह क्या थी. आप खुद को कब से दलितवादी मानने लगे? – समाज में दलित क्या हैं? वह उत्पीड़न के शिकार हैं, गैरबराबरी के शिकार हैं और इसका कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है. कोई तर्क नहीं है कि ऐसा क्यों? तो एक तरह से यह एक अन्याय का स्वरूप है. मैं यह मानता हूं कि बुनियादी तौर पर मनुष्य अन्याय विरोधी होता है. जब भी वो असमानता और गैरबराबरी देखता है तो उसकी मनोवस्था विचलित होती है. वह परेशान होता है. व्यवस्था विरोधी उसकी चेतना होती है. होता यह है कि आपके भीतर वो जो चेतना होती है, उसे विस्फोट करने का मौका मिल जाता है. अब पता नहीं यह संयोग रहा या फिर क्या था कि बचपन से ही हमारे भीतर भी यह चेतना थी. स्कूलों में भी मेरी लड़ाई कई स्तरों पर होती थी. तो आपका जो यह प्रश्न है कि दलितवादी मैं कब से हुआ तो मैं इसकी कोई तिथि नहीं बता सकता. कोई फेज नहीं बता सकता. और मैं यह समझता हूं कि कोई भी व्यक्ति जो चेतना संपन्न है और वह यह क्लेम करता है कि मैं दलितवादी हूं तो वह शुरुआती दिनों से ही जबसे वह होश संभालता है, उसके अंदर वह चेतना होती है. अगर वह चेतना नहीं होगी तो अचानक कोई दलितवादी नहीं हो जाएगा. हां, अगर कोई अपने को इंपोज करना चाहे कि आज अवसर है और हमें इसका फायदा उठाना है. इसके लिए हमें खुद को दलितवादी बनाना है तो हो सकता है. लेकिन वास्तव में जो छटपटाहट होती है, वह अचानक नहीं होती. यानि ऐसे लोग भी हैं, जो मौका देखकर दलितवादी बन गए. – अब देखिए, हमारे समाज में अवसरवादिता तो हैं ही. हम आपको बता सकते हैं कि जो ये अपने को कम्यूनिस्ट और वामपंथी कहते हैं इसका बड़ा हिस्सा (जोड़ देकर) अवसरवादी है. क्योंकि मैने देखा है अपने कई मित्रों को की उन्हें लेक्चररशिप चाहिए होती है तो वह‘लाल सलाम’कहने लगते हैं और उस आयडोलॉजी में नौकरी है. हमने कई ऐसे वकीलों को देखा कि जब उन्हें प्रैक्टिस शुरू करनी है और केस चाहिए तो उन्होंने‘लाल सलाम’कहना और कामरेड कहना शुरु कर दिया. लेकिन वास्तव में उनका जो चरित्र था वो अवसरवादिता का था. तो मैं यह मानता हूं कि दलित के संदर्भ में यह जो उभार आया है, खासतौर से 90 के बाद से आपको बहुत सारे लोग यह कहने वाले मिल जाएंगे कि मैं दलितवादी हूं, समाजिक न्याय का पक्षधर हूं. लेकिन मैं सवाल ये करता हूं कि जो लोग आज अपने आप को ऐसा कहते हैं, उनका इतिहास उठाकर देखा जाए कि वो 78 में क्या थे? और 78 से पहले उनकी क्या भूमिका थी? इसको देखने की जरूरत है. तब जाकर सही आकलन हो पाएगा कि बुनियादी रूप से यह आदमी क्या है. (कुछ नाम बताएंगे आप, मैं बीच में टोकता हूं) नहीं, नाम नहीं बताऊंगा मैं क्योंकि यह उनको सर्टिफिकेट देने जैसा मामला है. इसको एक ट्रेंड के रूप में देखना चाहिए. इसलिए आप देखिए कि आज बहुत सारे लोग जो वामपंथी हैं.खुद को वामपंथी कहने से बचते हैं. वामपंथ को गाली देते हुए मिलते हैं. क्योंकि उनका एक अवसर था. उसमें उन्होंने लाभ उठा लिया. जहां तक खुद को दलितवादी होने का दावा है तो ऐसे इलाकों में जाकर कहिए जहां अब भी काफी चुनौतियां हैं. वहां जाकर कहिए कि मैं दलितवदी हूं. अगर दलितवादी होने की कसौटी हम यह बनाएं कि इसके चलते आप क्या खोते हैं, तो इसका दावा करने वाले लोगों ने खोया नहीं है बल्कि पाया ही है. जैसे कई सारे लोग कहते हैं कि हम धर्मनिरपेक्ष हैं. तो अगर खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने से हमें लाभ मिल रहा है. तो आपको उस लाभ को उठाने में क्या है. जैसा आपने अवसरवादी दलितवादी और वामपंथ के बारे में कहा. तो आप पर भी यही आरोप लगता है. समाज का एक तबका है जो यह कहता है कि अनिल चमडिया दलित नहीं हैं. और स्वार्थवश दलितवादी बनते हैं. इन आरोपों के बारे में क्या कहेंगे? – जो सवाल खड़ा करता है, उसे करने दीजिए. देखिए मेरा कोई लाभ नहीं है. कोई हित नहीं है. पहली बात कि अगर कोई आरोप लगाता है तो मुझे इसकी कोई चिंता नहीं है. मान लिजिए मेरा पूरा जीवन है और आप ही बताइए कि मैने कभी यह कह कर लाभ उठाया है कि मैं दलितवादी हूं, मुझे लाभ दो. कहीं कोई पद हासिल किया है. कोई पैसा लिया है. कोई एक उदाहरण बताए हमको. मैं तो कह रहा हूं कि मेरा अपना कोई इंट्रेस्ट नहीं है. जो स्वार्थी किस्म के लोग होंगे, अवसरवादी किस्म के लोग होंगे जो दलित-दलित कर के अपना हित पूरा करना चाहते होंगे. वो भइया मुझे कठघरे में खड़ा करें. बात साफ है. क्योंकि उनके पास वही कार्ड है. उसी के साथ वो खेलेंगे. जैसे आपने पूछा कि मैं दलितवादी हूं तो मैने कहा कि हूं. मैं दलितों के हितों की बात करता हूं. उनके हितों की लड़ाई लड़ता हूं. लेकिन हम इसका कोई प्रोजेक्ट नहीं बनातें. यह मेरे प्रोजेक्ट का हिस्सा नहीं है कि मैं दलितवादी हूं और मुझे कोई प्रोजेक्ट मिल जाए. कहीं विज्ञापन मिल जाए. ये मेरा काम नहीं है. हमारे भीतर ये बात है. हमारे भीतर एक छटपटाहट है, एक बेचैनी है तो हम इसे व्यक्त करते हैं. अब किसी दूसरे को परेशानी होती है तो हो, उसकी मुझे चिंता नहीं है. और ऐसे बहुत सारे लोग हैं. गैरदलितों में भी बहुत सारे लोग परेशान होते हैं. चिंता करते हैं. यह एक लड़ाई है. लड़ाई है कि हम सवाल खड़े करेंगे तो आप मुझे कठघरे में खड़ा करेंगे. क्योंकि आपके पास सवालों का जवाब नहीं है. न आपके पास सवाल हैं. तो आप मुझे दूसरे तरह से कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करेंगे. मैं किसी के बारे में नहीं कहता. मैं कहता हूं कि सबकी अपनी-अपनी भूमिका है. सभी अपना-अपना काम कर रहे हैं. लेकिन बहुत सारे लोग जिन पर जब सवाल खड़े होने लगेंगे तो आप पर व्यक्तिगत आक्षेप लगाने लगेंगे. क्योंकि वह वैचारिक रूप से खोखले इंसान हैं. उनके पास विचार नहीं है. उनके पास एक लंबी योजना नहीं है समाज को बदलने की. आप मान लिजिए की अनिल चमड़िया दलितवादी नहीं है, दलित नहीं है. कुछ नहीं है. आप कीजिए ना काम, आपको कौन कुछ कह रहा है. अनिल चमड़िया कहां आपको डिस्टर्ब करने आ रहे हैं. अनिल चमड़िया ने आपको कभी डिस्टर्ब किया हो, सीधे कोई सवाल उठाया हो कि आपको इतने लाख की परियोजना मिल गई. आपने इतना कमा लिया. ये तो हम कभी कहने नहीं जाते थे. तो लोगों के कहने की मैं चिंता नहीं करता. तमाम पार्टियां दलित हित का दम भरती हैं. आजादी के बाद तमाम पार्टियां सत्ता में आई, लेकिन दलितों की स्थिति सुधारने के लिए किसी ने मिशन की तरह काम नहीं किया. चाहे वो कांग्रेस हो, भाजपा या फिर वामपंथ. – देखिए दो तरह के ट्रेंड रहे हैं. अगर आप शुरुआती दिनों में देखें तो एक बाबा साहब रहे तो दूसरे बाबूजी (जगजीवन राम). दो धारा रहे. एक धारा जो है वो कहता है कि आप अपने मंदिर खोलो, अपने यहां ब्राह्मण पैदा करो. एक धारा जो है वह कहता है कि ब्रह्मणवाद खत्म करो. तो दो तरह की धाराएं हमें दलित राजनीति में देखने को मिलती हैं. अब सवाल यह उठता है कि जो राजनीतिक पार्टियां हैं, वो क्या कहती हैं? उनके शब्द और भाव क्या हैं? उनका शब्द और भाव यह होता है कि आप दलितों का कल्याण करिए. दलितों को थोड़ा ऊपर उठाने का भाव होता है. दलित नेतृत्व करे, यह भाव किसी का नहीं होता है. वह भाव जब भी पैदा हुआ, वह कांशीराम में ही पैदा हुआ. वह मायावती ने ही पैदा किया. तो इन दोनों भावों को समझने की जरूरत है. दलितों की स्थिति क्यों ज्यों की त्यों बनी हुई है, अगर उन कारणों को समझें तो इन भावों को समझ सकते हैं. तो यह तो हर राजनीतिक पार्टियां कहती हैं कि दलितों का कल्याण हो. लेकिन जो राजनीतिक नेतृत्व है, समाज में बैठे हुए जो लोग हैं. उनकी मानसिकता अगर दलित विरोधी और पिछड़ा विरोधी है तो यह कैसे हो पाएगा. यह कभी संभव नहीं होगा. आप खुद को वामपंथी विचारधारा का मानते हैं? – मैने कहा न कि कई उतार-चढ़ाव रहे जीवन में. और मैं यह समझता हूं कि भारतीय समाज में जिस तरह के अन्याय की स्थिति है उसमें यदि आप किसी को वामपंथी कह देते हैं तो आप उसकी लड़ाई की एक दिशा की ओर इंगित कर देते हैं. वामपंथी मतलब आप आर्थिक गैरबराबरी को खत्म करने पर जोड़ देते हैं. आप समाजिक गैरबराबरी को इग्नोर करते हैं. मेरा यह कहना है कि भारतीय समाज में वो वामपंथ नहीं हो सकता, जो दुनिया के अन्य देशों में है. यह अलग है भी. आप जब क्यूबा में जाएंगे यह आपको अलग मिलेगा, नेपाल में अलग मिलेगा, सोवियत संघ में अलग था, चाइना में अलग मिलेगा. मार्क्सवाद कहीं से यह नहीं कहता है कि समाजिक स्तर पर गैरबराबरी की जो स्थितियां हैं, उसे सेकेंड्री मानें. तो जहां तक मेरी बात है, वामपंथ को जिस तरीके से परिभाषित किया जाता है, उस रूप में मैं वामपंथी नहीं हूं. हां, लेकिन मैं यह मानता हूं कि समाज में गैरबराबरी की लड़ाई का जो आधुनिकतम राजनीतिक दर्शन सामने आया है वह वामपंथ में है. आपने अभी जो कहा उसमें एक द्वंद सा नहीं है कि आप खुद को वामपंथी तो मानते हैं लेकिन एक खास रूप में नहीं मानते. इसका मतलब क्या है? – मैने तो आपसे कहा कि दुनिया के तमाम देशों में जो वामपंथी हैं, वह देश की सामाजिक-आर्थिक स्थित के अनुरुप मार्क्सवाद को ढ़ालने का काम करते हैं. तो मैने कहा कि अगर हमारे यहां वामपंथ की ये परिभाषा है कि वामपंथी होने का मतलब केवल आर्थिक गैरबराबरी की लड़ाई लड़ने वाला राजनीतिक कार्यकर्ता है, तो उस अर्थ में हम वामपंथी नहीं है. उसके साथ ही मैं यह भी कह रहा हूं कि गैरबराबरी की लड़ाई लड़ने का जो आधुनिकतम राजनीतिक दर्शन है वह मार्क्सवाद में है. आप मार्क्सवाद की अवहेलना नहीं कर सकते. आप देखेंगे कि हमारे देश में दलित और पिछड़े समाज के जो नेता निकले, जो लड़ाई लड़ी. उनके जो शब्दकोष हैं वह मार्क्सवाद से निकले हैं. लालू यादव कहते हैं कि लांग मार्च करेंगे. और आप अगर उस समय के आंदोलन के भीतर जाकर देखिएगा तो आपको मार्क्सवाद की छाप मिलेगी. क्योंकि जो बुनियादी दर्शन है गैरबराबरी के खिलाफ, इसके खिलाफ जहां भी लड़ाई होगी इसमें उसकी छाप मिलेगी. वामपंथ के मुताबिक दलित समस्या का समाधान क्या है. वामपंथी दलों ने दलितों के हित के लिए अब तक क्या किया है? – महाराष्ट्र के इलाके को छोड़कर देश के दूसरे हिस्सों में दलितों के हितों की राजनीतिक चेतना का विकास जितना वामपंथी दलों ने किया है, उतना दूसरे लोगों ने नहीं किया है. हमको ये फर्क करना पड़ेगा कि लड़ाई का जो आपका उद्देश्य है वो क्या है? वामपंथी जो यहां लड़ाई लड़ते रहे हैं वो बुनियादी परिवर्तन की लड़ाई लड़ते रहे हैं. उनमें जो उनके साथ सबसेज्यादा लड़ने वाले लोग रहे हैं वो दलित रहे हैं. क्योंकि उनमें मुक्ति की आकांक्षा थी. केवल सरकार बनाने की लड़ाई नहीं लड़ते रहे हैं इसलिए उस तरह की लड़ाई में आपको फर्क यह दिखाई देगा कि वहां राजनीतिक कार्यकर्ता तो निकले लेकिन सत्ता में नहीं पहुंचे. उन्होंने जमीनी स्तर पर भेदभाव की लड़ाई लड़ी. मेरे कई मित्र बताते हैं जैसे भोजपुर के इलाके में दलित खाट पर नहीं बैठ सकते थे. उनके लिए कम्यूनिस्ट पार्टी के लोग लड़े. लेकिन उन्होंने उन्हें सत्ता में जगह नहीं दी. तो लड़ाई को इतने सपाट तरीके से नहीं देख सकते. क्योंकि वो हर स्तर पर उत्पीड़न का शिकार है. तो जाहिर सी बात है कि आप एक स्तर पर आगे बढ़ाने की बात करते हैं तो दूसरे स्तर पर रह जाता है. जैसे आज उत्तर प्रदेश में मायावती सत्ता में हैं लेकिन क्या वहां दलितों के साथ भेदभाव की स्थिति नहीं है. लेकिन हम फिर भी इसे भी प्रोत्साहित करते हैं. हम मानते हैं कि दलित नेतृत्व होना चाहिए. लेकिन फिर भी मानते हैं कि भेदभाव की स्थिति बनी हुई है. यही बात कम्यूनिस्ट पार्टियों में भी है. यहां भी दो तरह की धारा देखने को मिल रही है. एक राजनीतिक रूप से चेतना संपन्न है. दूसरी तरफ आप उनकी शिकायत कर सकते हैं कि उन्होंने आपको नेतृत्व में आने का मौका नहीं दिया. बाबा साहब के आंदोलन से लेकर वामपंथ और कांशी राम जी के आंदोलन तक सारे आंदोलनों की अपनी एक बड़ी भूमिका रही है. और आप हर आंदोलन पर सवाल उठा सकते हैं. तो आपको अगर राजनीतिक लाभ उठाना है तब तो यह अलग बात है. लेकिन समाज का एक बौद्धिक सदस्य होने के नाते जो लोग उन्हें इस स्थिति से निकालने के बारे में सोचते हैं वो ऐसा नहीं सोचते कि उन्होंने ऐसा किया, ऐसा नहीं किया. दलितों के समाज में आगे आने के बाद जातीय उत्पीड़न का रूप भी बदला है. अब यह प्रत्यक्ष न होकर इसने दूसरा रूप ले लिया है? इसकी वजह क्या है? – वो आएगी ही. देखिए एक बात जान लिजिए. जब ढ़ांचागत परिवर्तन होगा तो उत्पीड़न का रूप भी बदलेगा. जैसे ढ़ांचागत परिवर्तन यह हुआ है कि अब आपको स्कूल में पढ़ने को मिल रहा है. तो अब उत्पीड़न का तरीका बदलेगा. पहले उत्पीड़न का तरीका यह था कि आपको स्कूल में नहीं आना है. अब जब उन्होंने आपको अंदर आने दे दिया तो उनके मन में जो यह बात फिट है कि आप छोटे हैं तो वह स्कूल के भीतर किसी न किसी रूप में तो काम करेगा ही. वह खत्म नहीं होगा. बस उसका रूप सूक्ष्म हो जाएगा. आपसे बात करते हुए मैं एक महत्वपूर्ण बात करने जा रहा हूं. मैं इधर दलित समाज द्वारा आयोजित कई कार्यक्रमों में गया. मैं वहां यह बात बार-बार कह रहा हूं कि आप‘जय भीम’बोलना बंद करिए. जय भीम क्यों बोलते हैं? आप इसका अर्थ बताइए. यह कहां से निकला?‘जय’का पूरा एक ढ़ांचा है. आप कहते हो कि हम‘भीम’को जय कर रहे हैं. यानि भीम की जय कर के आप उन्हें एक ढ़ांचे में जगह दिलाने की कोशिश कर रहे हैं. मैं कहता हूं कि आप जय भीम नहीं कहें. आपके समाज की जो अवस्था है, उसमें अभी जय की जरूरत नहीं है. उसमें अभी जागो कि जरूरत है. हम‘जय भीम-जागो भीम’क्यों नहीं बोल सकते. क्योंकि यह हमारा माइंडसेट बना हुआ है. एक बोलता है जय श्रीराम, हम बोलते है जय भीम. तो आप पूरे स्ट्रक्चर को सुरक्षित रखते हैं. आप केवल नाम को ले जाकर के वहां फिट कर देते हैं. ढ़ांचा वही रहता है. तो जय के ढ़ांचे को तोड़ने की जरूरत है. अभी इस समाज को जय की जरूरत नहीं है. जय, विजय, पराजय गैर-बराबरी के समाज का संबोधन है. हम तो अन्याय से पीड़ित है. हमारे समाज में बड़ा हिस्सा अभी भी उसी अवस्था में है. उसे जगाने की जरूरत है. दलित का हर बच्चा भीम है, उसमें यह भाव कैसे पैदा करें. तो उसे हम बोलें कि जागो भीम दूसरा बोले की बोले कि बोलो भीम. ये समाज के पूरे ढ़ांचे को चेंज करेगा. अभी हमारी जो लड़ाई की दिशा है वो ठीक दिशा नहीं है. वो ढ़ांचे को तोड़ने की दिशा नहीं है. वह इसमें अकोमडेट (accommodate) करने की दिशा है. ‘जय भीम’ दलितों के लिए एक मंत्र बन गया है. आप जो यह कह रहे हैं कि दलित जय भीम बोलना बंद करें तो क्या वो इस स्थिति को स्वीकार करेंगे? – देखिए मैं तो कह रहा हूं कि इस पर विचार करें. जय भीम क्यों बोलते हैं, यहां से सोचना शुरू करें. हमारा हाल यह है कि हम इतने ज्यादा उत्पीड़न की स्थिति में रहे हैं कि जरा सा भी सुख देने वाला कोई भी विकल्प हम अपना लेते हैं. तो जय भीम क्यों बोला जाता है. आप इसके विस्तार का काल देखिए. तो मैं आपके उस सवाल का जवाब दे रहा था कि आप कह रहे हैं कि स्ट्रक्चर चेंज नहीं करेंगे तो आपकी स्थिति में ज्यादा परिवर्तन होने नहीं जा रहा है. साफ सी बात है. हां, क्षणिक सुख मिलेगा. लेकिन ये जो लड़ाई है वो क्षणिक लड़ाई नहीं है. आप पर जो गैरबराबरी थोपी गई है वो क्षणिक नहीं है. वह एक योजना का हिस्सा है. और वो वर्षों पुरानी, बहुत दूरदर्शी किसी शासक द्वारा रची है. तो मैं मानता हूं कि अगर आपको गैरबराबरी को खत्म करना है तो आपको तात्कालिक सुख, संतोष की लड़ाई से निकलना होगा. क्रमश…… दूसरा भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
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‘मिर्चपुर कांड के बाद क्यों नहीं हुआ आंदोलन’

आप मीडिया से लगातार जुड़े रहे हैं. मीडिया में दलितों को लेकर जो एक भेदभाव है. उसे आप कैसे देखते हैं? – मैं आपसे पहले भी कह चुका हूं कि यह पूरा मामला स्ट्रक्चर का है. बहुत सारे लोग कहते हैं कि दलित मीडिया खड़ा हो. लेकिन ये हो नहीं पाया है. (मैं बीच में टोकता हूं) तो क्या दलित मीडिया खड़ा होना चाहिए. आप इसके पक्ष में हैं?या फिर इसी सिस्टम में दलितों को जगह मिलनी चाहिए? मैं इतने सपाट तरीके से चीजों को देखता नहीं हूं. मान लिजिए की अगर दलित मीडिया है तो वो फिर दलित मीडिया हो गया. हम कह रहे हैं कि एक मीडिया ऐसा हो जो समाज की गैरबराबरी को दिखाए. दलित मीडिया का क्या मतलब हुआ, केवल दलितों की बात करने वाला. तो मान लिजिए की ऐसा कोई मीडिया खड़ा हो भी गया तो मुझे नहीं लगता कि वो ज्यादा कामयाब होगा. हां, दलित समाज के भीतर एक-दूसरे तक पहुंचने के लिए आप इसका इस्तेमाल कर सकते हैं. लेकिन पूरे समाज को एडजस्ट करने के लिए वो काम नहीं करेगा. तो मैं ये मानता हूं कि केवल दलित मीडिया से काम नहीं चलेगा. क्योंकि पूरे समाज को संबोधित करने के लिए, उसकी वस्तुस्थिति जाहिर करने के लिए उसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. जैसे यूपी में इन दिनों एक भाषा इस्तेमाल की जा रही है. दलित मुख्यमंत्री के राज में दलितों के खिलाफ उत्पीड़न. आप इसकी बारीकी को समझिए कि कैसे वो दलित के उत्पीड़न के लिए दलित को ही कठघरे में खड़ा कर रहा है. आप इसको सोचिए. मायावती दलित नहीं भी हैं और हैं भी. वह सरकार की मुख्यमंत्री हैं. प्रदेश चला रही हैं तो वो पूरे समाज की हैं. लेकिन आप उनको संबोधित कर रहे हैं केवल दलित. और खासतौर पर वहां कर रहे हैं जहां दलित उत्पीड़न की शिकायत है. तो आप क्या कर रहे हैं कि आप वहां सरकार को बचा रहे हैं. सरकार के ढ़ांचे को बचा रहे हैं और दलित को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं. यानि की उनका दलित होना इस विफलता का परिचायक है. बहुत सूक्ष्म तरीके से ऐसी सांस्कृतिक लड़ाई होती है. बड़ी बारीक लड़ाई है. और अगर हम इस बारीकी को समझने की समझ विकसित नहीं कर पाते हैं तो हम क्या करते हैं कि जो भी चीजें (नारा) आती हैं, हम उसमें बह जाते हैं. तो मुझे लगता है कि हमें उस बहने वाली स्थिति से निकलना होगा. मीडिया में तमाम बड़े नाम हुए हैं. जैसे प्रभाष जोशी, उदयन शर्मा, एसपी सिंह. उन्हें काफी अच्छा माना जाता है. उनके जमाने में क्या दलित मुद्दों को जगह मिल पाती थी. उन्होंने इस ओर ध्यान दिया था. – नहीं, कोई ध्यान नहीं दिया था. इन लोगों का कभी भी इससे कंसर्न विषय नहीं रहा. मैं मानता हूं कि भारतीय मीडिया में अभी तक कोई भी ऐसा मीडिया लीडर नहीं निकला है जो इस सवाल को बहुत गंभीरता से लेता हो. मीडिया मे दलितों के खिलाफ खबरों के आने का जो ट्रेंड है, वो जो शुरू में था वही अब है. दलितों के बारे में जो खबर आती है वो तब आती है जब दलित उत्पीड़न की बड़ी घटना हो जाती है. वह इसलिए आती है क्योंकि आप उसे इग्नोर नहीं कर सकते हैं. मैं नहीं समझता हूं कि किसी ने बहुत सचेत होकर कोई कोशिश की है कि मीडिया में जो दलितों के खिलाफ या तमाम तरह की गैरबराबरी के खिलाफ खबरों को ज्यादा से ज्यादा जगह मिल पाए. और इस गैरबराबरी से निकलने की अवस्था बने. ऐसा भी नहीं है कि दलित समाज के जिन बच्चों की पत्रकारिता में रुचि है और जो इसमें आना चाहते हों, इनलोगों ने उनकी मदद की हो. संविधान में हमें आरक्षण का लाभ मिला है लेकिन कई जगहों पर यह नहीं दिया जाता. जैसे आपने ही एक आरटीआई डाली थी, जिसमें निकल कर आया था कि लोकसभा चैनल में दलित नहीं हैं. जबकि वो भी सरकारी चैनल है. क्या यह संविधान का उल्लंघन नहीं है? – बिल्कुल है. जब से यह चैनल शुरू हुआ उसके पहले ही यह नियम बन गया कि हम कन्सलटेंट के रूप मे किसी को भी भर्ती कर सकते हैं. उसमें आरक्षण का कोई लेना-देना नहीं है. अब उन्होंने एक रास्ता निकाला कि आरक्षण के सिद्धांत को कैसे दरकिनार कर दें. तो इसके लिए एक अलग रास्ता निकाला गया. लोकसभा में देश का सारा कानून बनता है. यहीं यह नियम बना कि दलितों के लिए नौकरियों में शिक्षा में आरक्षण होगा और उसी के संस्थान में आरक्षण लागू नहीं है. संपादकीय के 107 लोगों के ढ़ांचे में मेरी जानकारी में एक भी लोग नहीं हैं. और अगर वो यह सोचते हैं कि बिना आरक्षण लागू किए इस व्यवस्था में कोई आदिवासी आ जाएगा, कोई दलित आ जाएगा तो यह ऐसे ही हैं, जैसे कोई यह कहता है कि बिना आरक्षण के कोई लोकसभा में पहुंच जाएगा. इतने सालों बाद भी इसके बारे में नहीं सोचा जा सकता. आप सोचिए कि इस पर किसी ने सवाल नहीं उठाया. ठीक इसी तरह मैने प्रधानमंत्री कार्यालय पर सवाल उठाया था. वहां पूरी वर्ण व्यवस्था को प्रदर्शित करने वाली तस्वीरें लगी हैं. कि किसको ब्राह्मण कहते हैं, किसको क्षत्रिय कहते हैं, किसको वैश्व और किसको शूद्र कहते हैं. हमने इस बारे में आरटीआई डाला, संसद में सवाल करवाया लेकिन यह जवाब नहीं आया कि वो क्यो? यह 1932 से लगी है. जब से अंग्रेज थे तब से. उस आफिस में हर दल के लोग जाते हैं. कई दलों की सरकार रह चुकी है. उसमें तमाम दलित लोग रह चुके हैं. मुझे हैरानी होती है कि किसी ने उस पर सवाल नहीं उठाया. आपने खुद को एकोमोडेट करने की जो मानसिकता बना रखी है इसमें यही होगा. ऐसे में आप रिलेक्स हो जाते हैं. जो अकोमोडेट हो जाते हैं उनको फिर समाज में परिवर्तन की लड़ाई से कोई मतलब नहीं रहता. आज जो लोकसभा की स्पीकर हैं वो दलित परिवार से आती हैं. बाबू जगजीवन राम की बेटी हैं लेकिन उनके राज में भी यह व्यवस्था चलती जा रही है. मेरा यह मानना है कि अगर स्ट्रक्चर में आप केवल अपनी जगह बनाएंगे और स्ट्रक्चर गैरबराबरी का है. तो आप मान कर चलिए कि गैरबराबरी किसी ना किसी रूप में बनी रहेगी. उसका रूप बदल जाएगा. यही चीजें शिक्षण संस्थाओं में भी देखने को आ रही हैं. पिछले दिनों मे तमाम आरटीआई में यह निकल कर आया है कि दलितों और पिछड़ों के लिए निर्धारित सीटों को भरने में तमाम तरह की धांधली हो रही है? – मैं तो कह रहा हूं कि आपके हाथ से आरक्षण जा रहा है. अब जो राजनीतिक नेतृत्व तैयार किया गया है वो आरक्षण के मुद्दे को उठाकर जोखिम लेने की स्थिति मे नहीं है. आप सोचिए ना कि आरक्षण को लागू हुए देश में कितने साल हो गए. मैने तो आरटीआई के माध्यम से कई जानकारियां निकाली थीं. इसमें सामने आया था कि भारत सरकार में एक भी सेक्रेट्री दलित नहीं था. ग्रुप‘ए’के अधिकारी भी रेयर ही थे. शिक्षण संस्थाओं मे भी यही हाल है. एम्स में भी लड़ाई लड़ी गई है. इसमें महत्वपूर्ण यह है कि आरक्षण की स्थिति को खत्म करने के जो प्रयास हो रहे हैं वो दलित और पिछड़े के नेतृत्व में किया जा रहा है. यह ज्यादा खतरनाक बात है. आप पत्रकारिता संस्थानों में पढ़ाते रहे हैं, वहां के अनुभवों को बताइए? – आईआईएमसी के हिंदी विभाग में 3 साल तक पढ़ाया. 2-3 साल दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़ा रहा. वर्धा में कई वर्षों से जाता रहा हूं. फिर वहां प्रोफेसर के रूप मे नियुक्त भी हुआ था. अब भी कई संस्थानों से जुड़ा हूं. लेकिन पढ़ाने के बीच में दुविधा की स्थिति भी होती है कि हम छात्रों को किसके लिए तैयार कर रहे हैं? क्या हम मीडिया आर्गनाइजेशन के लिए कर्मचारी तैयार कर रह हैं, या फिर समाज के लिए पत्रकार तैयार कर रहे हैं. आखिर हम मीडिया आर्गेनाइजेशन के लिए कर्मचारी तैयार क्यों करें? यह दुविधा है. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में रहने के दौरान वहां के कुलपति वीएन राय से आपका विवाद काफी सुर्खियों मे रहा था. विवाद की वजह क्या थी. क्या अब वो सारा विवाद खत्म हो गया? – व्यक्तिगत विवाद नहीं था. हर संस्थान का लीडर चाहता है कि संस्थान उसके मुताबिक चले. कोई आजादी देता है, कोई नहीं देता. झगड़ा यहीं होता है. वर्धा में जो कुलपति हैं, वो पुलिस बैकग्राउंड के हैं. उनका जीवन आदेश देने-लेने में गुजरा है. मेरा जीवन स्वतंत्र रहा है. तो मूलतः यही अंतरविरोध था. फिर धीरे-धीरे विवाद का विषय बनता चला गया. उन्होंने ही आमंत्रित किया था. अप्वाइंट किया था. इंटरव्यूह के वक्त ही मैने साफ कहा था कि मैं दिल्ली छोड़कर आ रहा हूं तो मेरी एक योजना है. मैने उसे सामने रखा था. लेकिन जब उसे लागू करने लगा तो दिक्कत आने लगी. फिर ईसी (एक्जीक्यूटिव काउंसिल) ने फैसला किया कि मुझे हटाना है. एकतरफा फैसला था. फिलहाल नागपुर हाई कोर्ट में केस चल रहा है. लोकसभा में दलित-आदिवासी समुदाय से 120 सांसद हैं. लेकिन मिर्चपुर जैसा बड़ा कांड होने के बावजूद संसद में वह प्रमुखता से नहीं उठ पाया. इसकी क्या वजह है? – संसद ही क्यों, जितना शोर-शराबा संसद के बाहर होना चाहिए था, वहां भी नहीं हो पाया. इस पर अध्ययन होना चाहिए कि मिर्चपुर जैसे बड़े कांड के बावजूद भी आंदोलन की शक्लक्यों नहीं बन पाई. इस घटना के बाद पूरा सरकारी तंत्र जागरूक हो गया था. भावी प्रधानमंत्री कहा जाने वाला शख्स भी वहां पहुंच गया था. मुआवजे की घोषणा हुई. अधिकारी गिरफ्तार किए गए. मेरा सवाल है कि क्या आंदोलन इसी तरह की मांगों के लिए होते हैं? आंदोलन का उद्देश्य क्या बस ऐसी मांगों को पूरा करवाना होता है? या फिर आंदोलन का उद्देश्य इस तरह की घटनाओं को रोकना होता है. तो आंदोलन का उद्देश्य उस उद्देश्य तक नहीं पहुंचा है, जहां इसे पहुंचना चाहिए था. दलित समाज का बड़ा हिस्सा सत्ता में है. लाखों लोग अच्छी नौकरी में है. सबकुछ है लेकिन आप एक बड़ा आंदोलन की स्थिति खड़ी नहीं कर पा रहे हैं. खैरलांजी, मोहाना, दुलीना जैसे आंदोलन की स्थिति खड़ी नहीं कर सके. दलित उत्पीड़न विरोधी जो राजनीतिक धारा है, उस पूरी धारा का पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए. क्या आप दलित आंदोलन के वर्तमान रुख और तेजी से संतुष्ट हैं? – बिल्कुल नहीं हूं. संतुष्ट तब होते, जब सब ठीक होता, दुरुस्त होता. आंदोलन का विस्तार होता रहता है. अभी जड़ता की स्थिति है. अगर इसे तोड़ा नहीं गया तो लंबे समय तक यही स्थिति बनी रहेगी. वर्तमान में दलित आंदोलन में किन नई बातों को शामिल किए जाने की और पुरानी बातों को छोड़ने की जरूरत है? – आंदोलन में जो एक बात दिखाई दे रही है कि यह शहरी हिस्से, मध्यवर्ग और शिक्षित लोगों तक ही सिमटती जा रही है. यह बड़ा खतरा है. हम कभी यह नहीं सुनते कि जो आरक्षण नहीं मिलने की शिकायत करते हैं वो देश के खेत मजदूरों की भी बात करते हैं. खेत मजदूरों की सर्वाधिक आबादी दलितों की ही है. आंकड़ें उपलब्ध है कि 20 रुपये रोज पर 76 फीसदी लोग गुजारा करते हैं, आप उनमें दलितों की संख्या का अंदाजा लगा लिजिए. इसके मुकाबले इनकी चिंता कितनी होती है, उसे साफ तौर पर देख सकते हैं. आंदोलन की भाषा को सबसे पहले चेक करने की जरूरत है. आरक्षण समाज को मिलता है, व्यक्ति को नहीं. आरक्षण के जरिए व्यक्ति सरकारी संस्थाओं में समाज का प्रतिनिधित्व करता है. जब तक वह इस स्थिति को महसूस नहीं करेगा कि वह अकेला व्यक्ति नहीं बल्कि अपने समाज का प्रतिनिधि है, वह अपने आप को जिम्मेदार नहीं बना सकता है. उत्तर प्रदेश के अलावा और कहीं सशक्त नेतृत्व उभर कर क्यों नहीं आ पाया? – उत्तर प्रदेश में जो आंदोलन की स्थिति बनी है, उसमें कांशी राम जी का आंदोलन लंबे समय तक चला. उसी की वजह से दलित चेतना जागी. कांशी राम जी का आंदोलन पूरे प्रदेश में दलित चेतना का प्रतिनिधित्व करता था. यूपी ब्राह्मणवाद का केंद्र रहा है. लोगों की चेतना में यह लंबे समय से था. इसमें इतनी आक्रमकता थी कि‘इनको मारो जूते चार’की बात कही गई. कांशीराम जी ने इस बात को समझा की जब तक इस आवाज में अभिव्यक्त नहीं करेंगे, गुस्से को उभार नहीं पाएंगे. कांशी राम ने लोगों की सोच के साथ तालमेल बैठा लिया. इसलिए यूपी में सफलता मिली. यह बिहार में नहीं मिलती. पंजाब में नहीं मिल सकती थी, जहां के कांशीराम खुद थे. मायावती, रामविलास पासवान, प्रकाश आंबेडकर, उदित राज और रामदास अठावले जैसे प्रमुख दलित नेताओं की राजनीति को आप कैसे देखते हैं? इनका भविष्य क्या है? – ये सारे लोग सत्ता से जुड़े लोग हैं. अब अगर आप मायावती से आंदोलन करने की उम्मीद करेंगे तो यह मुश्किल है. कांशी राम ने कभी भी मुख्यमंत्री बनने की नहीं सोची. आप (मेरी ओर इशारा करते हुए) जिन तमाम लोगों के नाम ले रहे हैं, उन्हें सत्ता सुख मिल गया है. ये आंदोलन नहीं कर सकते. हां, यह सत्ता के अंतरविरोधों को उभार कर जातीय गठबंधन के अनुरूप सत्ता में जगह बना लेंगे. ये कोई बदलाव, कोई आंदोलन नहीं कर सकते. दलित-आदिवासी हित के लिए तमाम एनजीओ काम कर रहे हैं. क्या आप उनकी कार्यप्रणाली को ठीक मानते हैं, क्या वो ईमानदार हैं? – हमेशा विकल्प का चुनाव बहुत सोच-समझ कर किया जाना चाहिए. तात्कालिक हित और दूरगामी हित के बीच के फर्क को समझना चाहिए. जो एनजीओ हैं, वो राजनीतिक तौर पर बुनियादी परिवर्तन का हथियार नहीं हो सकता है. इसलिए किसी भी क्षेत्र में काम करने वाले एनजीओ के काम से यह दिखता तो है कि वह आपके हित की बात कर रहा है, लेकिनउससे कोई बुनियादी फर्क नहीं आ पाता है. जैसे वह शिक्षा की बात तो करेगा लेकिन जिस सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति के कारण से शिक्षा नहीं मिल पा रही है, उसकी बात नहीं करेगा. तो जो एनजीओ काम कर रहे हैं, मुझे नहीं लगता कि उन्होंने बहुत उल्लेखनीय काम कर दिया है. या फिर जो दलितों के ऐसे आंदोलन को मजबूत कर रहा हो जो बुनियादी ढ़ांचे को तोड़ने की बात करता है. अगर आपको दलितों की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दशा सुधारने की छूट दी जाए तो आप क्या करेंगे? – मुझे काम करने की छूट मिली हुई है. जो कारण मेरी समझ में आता है उसे लोगों के सामने रखता हूं. और भी बहुत सारी चीजें जो उनपर थोपी गई है, उसे सामने लाता हूं. चंद्रभान प्रसाद, प्रो. तुलसी राम, डा. विवेक कुमार और श्योराज सिंह बेचैन जैसे तमाम दलित चिंतक, लेखक और विचारक दलितों की आवाज को हर मोर्चे पर उठाते रहते हैं. इनके विचारों से आप कितने सहमत हैं? – सबके अपने-अपने विचार हैं, अपना-अपना नजरिया है. सब महत्वपूर्ण लोग हैं और सबका योगदान हैं. बराबरी के चिंतन और गैरबराबरी के खिलाफ लड़ाई को इन तमाम लोगों के विचारों ने नया आयाम दिया है. आप दलित हित की बात करते हैं, आप बाबा साहेब को कैसे देखते हैं? – उनके विचारो से मेरी बिल्कुल सहमति हैं. दरअसल बाबा साहेब की जो पूरी चिंतन प्रणाली है, उसकी तमाम लोग अपने तरीके से व्याख्या करते हैं. जैसे बाबा साहब कहते हैं किशिक्षित बनों, संगठित बनों, संघर्ष करो. हर कोई यह नारा लगाता है. मैं इसमें बाबा साहब की एक बात जोड़ता हूं कि बाबा साहेब जैसे ही यह कहते हैं कि मुझे पढ़े-लिखे लोगों ने धोखा दिया, तो उनका यह कथन, पहले वाले कथन के मायने बदल देता है. उनके लिए शिक्षित होने का मतलब खुद के लिए और अपने बच्चों के लिए शिक्षित होना नहीं है. या फिर बस स्कूली शिक्षा भर नहीं है. शिक्षा का मतलब यहां बदल जाता है. जैसे मेरे एक मित्र हैं- अनंत तिलतुमरे. बाबा साहेब के परिवार के हैं. जिस तरह से वो बाबा साहेब के विचारों को प्रस्तुत करते हैं, आप बाबा साहेब के विचारों के अलावा किसी और के विचारों से सहमत नहीं हो सकते. तो महत्वपूर्ण यह है कि आप उन्हें कैसे प्रस्तुत करते हैं. मैं बाबा साहब का दिया संदेश पसंद करता हूं. उनका प्रभाव महसूस करता हूं और उनका सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन का जो कारण है, वो हमें सोचने की गति देता है. आपके जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव किसका रहा? – आपके जीवन पर किसी एक व्यक्ति का प्रभाव नहीं होता. मैं इसका पक्षधर भी नहीं हूं. परिवर्तन की हर धारा को, बराबरी का समाज बनाने की सभी धाराओं को करीब से देखने की कोशिश करता हूं. जिसका साकारात्मक पक्ष महसूस करता हूं, उसे लेकर आगे बढ़ता हूं. तो किसी व्यक्ति से प्रभावित हूं, ऐसा नहीं कह सकता. खुद को आधुनिकतम राजनीतिक विचारधारा से जोड़ पाता हूं. लोकतंत्र और बराबरी से जोड़ पाता हूं. अपने दोस्तों और दुश्मनों के बारे में बताइए? – कोई दुश्मन नहीं है. व्यक्ति के रूप में किसी को दुश्मन नहीं मानता हूं. जिन्होंने मेरे ऊपर गोली चलाई, अपहरण करने की कोशिश की, उन्हें भी नहीं. हां, विचारधारा को दुश्मन मानता हूं. जो प्रतिक्रियावादी धारा है वह मेरे दुश्मन की तरह है. गोली चलाई, अपहरण की कोशिश? कब की घटना है यह? जरा विस्तार से बताइए. – सब कॉलेज के दिनों की बात है. उन दिनों आरक्षण समर्थक थे तो क्लास रूम की बजाए बाहर होते थे. उस दौरान कुछ लड़कों के साथ झगड़ा हुआ था. मेरे ऊपर गोली चलाई गई, मेरे अपहरण की कोशिश हुई. क्या कोई ऐसी घटना है जिसने आपके जीवन को प्रभावित किया? – दो लोगों की बातों ने काफी प्रभावित किया. एक केशव शास्त्री थे. लीडर थे. लोहियावादी थे. उनका एक किस्सा बड़ी प्रभावित करता था. एक दिन उन्होंने पूछा कि कभी किसी नदी के किनारे गए हो? मैने कहा- हां, गया हूं. उन्होंने कहा कि क्या कभी गौर किया है कि पहाड़ से नदी की ओर जो धारा निकलती है, वह कई बड़े पेड़ों को उस धारा में बहाकर ले आती है. लेकिन उस नदीं में जो छोटी मछली होती है वह धारा के विपरीत चलती है. इसका मतलब यह हुआ कि वह जीवित है. उसमें चेतना है. तो वह प्रदर्शित करती है कि धारा बहाकर नहीं ले जा सकती. उनके इस किस्से ने काफी प्रभावित किया. एक दूसरी घटना जिसने मेरे विश्वास को बढ़ाया, वो घटना नौवीं कक्षा में घटी. मेरे सामने संकट था कि क्या करें. तब एक टीचर मिले. कुशवाहा जाति के थे. हम उन्हें मुंशी मास्टरकहते थे. (आज की बदलती बोली की ओर ध्यान दिलाकर कहते हैं, सर नहीं मास्टर कहते थे) उन्होंने नौंवी पास करने के बाद मुझसे कहा कि तुम 11वीं (तब बोर्ड) की परीक्षा दो. मैने कहा- मास्टर साहब यह कैसे होगा. उन्होंने भरोसा दिलाते हुए कहा कि अगर मैं आने वाले 4-6 महीने तक पढ़ाई करूंगा तो टॉप-10 में आ जाऊंगा. हालांकि ऐसा तो नहीं हुआ लेकिन उन्होंने मुझपर जो भरोसा दिखाया उसने मेरे भीतर आत्मविश्वास का एक ढ़ांचा खड़ा कर दिया. आपके आत्मविश्वास को तोड़ना और बनाए रखना, यही पूरी लड़ाई है. खासकर एक दलित के भीतर यह मायने रखता है. अगर एक दलित को बार-बार यह कहा जाता है कि वह कुछ नहीं कर सकता तो उसके आत्मविश्वास का ढ़ांचा टूट जाता है. शासक यही काम करते हैं. तो सारी लड़ाई आत्मविश्वास को बनाए रखनी की है. तो ऐसे कई पात्र मेरे जीवन में आए हैं. वो सभी सामान्य थे. मेरे भीतर उन सभी का कंट्रीब्यूशन है. मुझे गढ़ने में उनकी बड़ी भूमिका है. सर आपने इतना वक्त दिया, हमसे बात की धन्यवाद धन्यवाद अशोक जी।
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दलितों के हक का हिसाब लेने में जुटे हैं जाधव

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