दिल्ली/रांची। झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का 81 साल की उम्र में निधन हो गया। उन्होंने गंगाराम अस्पताल में आखिरी सांस ली। बेटे व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने उनके निधन की जानकारी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर दी। हेमंत सोरेन ने लिखा- आदरणीय दिशोम गुरुजी हम सब को छोड़ कर चले गए हैं। आज मैं शून्य हो गया हूं।
उनकी मृत्यु पर झारखंड सरकार ने तीन दिन का राजकीय शोक घोषित किया है। राजधानी रांची से लेकर दुमका तक हज़ारों लोग उन्हें अंतिम विदाई देने के लिए उमड़ पड़े हैं। संसद भवन में भी उन्हें श्रद्धांजलि दी गई, जहां उपसभापति हरिवंश ने कहा, “वे संसद में आदिवासी समाज की आत्मा की आवाज़ थे।”
झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के संस्थापक और तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री रहे सोरेन पिछले कुछ समय से किडनी संक्रमण, ब्रोंकाइटिस और श्वसन संबंधी समस्याओं से जूझ रहे थे। उनके निधन की खबर से न केवल झारखंड, बल्कि पूरे देश में शोक की लहर है। शिबू सोरेन की मृत्यु की खबर सुनते ही राजनीतिक दलों और देश के दिग्गज नेताओं ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने भी दिशोम गुरुजी को श्रद्धांजलि दी। शिबू सोरेन वर्तमान में राज्यसभा के सदस्य थे। इसकी वजह से राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश ने उनको श्रद्धांजलि देने के बाद राज्यसभा की कार्यवाही स्थगित कर दी।
दिशोम गुरु का जन्म और शुरुआती संघर्ष
शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को झारखंड के दुमका जिले के नेमरा गांव में हुआ था। उनका जीवन बचपन से ही संघर्षों से भरा रहा। जब वे महज आठ साल के थे, तब उनके पिता को ज़मींदारों ने मार डाला था। इस घटना ने शिबू सोरेन के जीवन की दिशा बदल कर रख दी, या यूं कहें कि उनके जीवन को नई दिशा दे दी।
हुआ यूं कि शिबू सोरेन के पिता सोबरन सोरेन पेशे से शिक्षक और व्यवहार से गांधीवादी थे। तब महाजन आदिवासियों को कर्ज के जाल में फंसाकर या तो उनसे कई गुणा पैसा वापस लेते थे, या फिर उनकी जमीन हथिया लेते थे। शिबू सोरेन के पिता सोबरन सोरेन इसका विरोध करते थे, जिसकी वजह से वह रामगढ़ और आस-पास के इलाकों के महाजनों की आंखों में खटकने लगे थे। इसी बीच 27 नवंबर 1957 को शिबू सोरेन के पिता की हत्या हो गई। इस घटना के बाद शिबू सोरेन ने महाजनों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। उन्होंने आदिवासियों के हक, जमीन, जल और जंगल के लिए संघर्ष का रास्ता चुना और जमींदारों के खिलाफ विद्रोह छेड़ दिया।
धान कटनी आंदोलन
युवा होने पर उन्होंने आदिवासी समाज के युवाओं को एकजुट करना शुरू कर दिया। इस बीच महाजनों की क्रूरता का बदला लेने के लिए उन्होंने आदिवासी युवाओं के साथ मिलकर 1970 में ‘धान कटनी आंदोलन’ शुरू कर दिया। इसके तहत शिबू सोरेन और उनके साथी महाजनों की तैयार खरी फसल को काट लेते थे। इस दौरान अन्य आदिवासी युवक तीर-कमान लेकर रखवाली करते। इससे महाजन शिबू सोरेन के जान के पीछे पर गए। लेकिन धन कटनी कर शिबू सोरेन और उनके साथी जंगलों में गायब हो जाते थे।
हालांकि शिबू सोरेन ने इस आंदोलन की एक मर्यादा तय कर दी थी। उन्होंने तय किया था कि खेत की इस लड़ाई में कभी भी महाजन और अन्य विरोधियों की महिलाओं के साथ कभी बदसलूकी नहीं की जाएगी। साथ ही खेत के अलावा जमींदारों की किसी अन्य संपत्ति को नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा। इस लकीर को सभी आंदोलनकारियों ने निभाया भी।
नशामुक्ति आंदोलन
आदिवासियों में नशा आम है। लेकिन शिबू सोरेन जीवन भर इसके खिलाफ रहे। उन्होंने नशा के खिलाफ आंदोलन भी चलाया। इस दौरान तो एक बार वह अपने सगे चाचा से भिड़ गए थे। उनके नशामुक्ति आंदोलन का आदिवासी समाज में व्यापक प्रभाव पड़ा।
दिशोम गुरुजी का उपाधि
एक बार महाजनों के गुंडों ने उनको घेर लिया। उनसे बचने के लिए वह उफनती बराकर नदी में कूद गए। सबको लगा कि शिबू सोरेन नहीं बच पाएंगे। लेकिन वह तैरकर दूसरे छोर पर पहुंच गए। उनको जिंदा देख सभी को घोर आश्चर्य हुआ। लोगों ने इसे दैवीय चमत्कार माना और उनका नाम दिशोम गुरुजी रख दिया। जिसका अर्थ होता है- देश का गुरु।
झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन
साल 1970 आते-आते उन्होंने आंदोलन की कमान अपने हाथों में ले ली। 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश बना। इस काम में बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी का अहम रोल था। फरवरी, 1972 को जब शिबू सोरेन और कॉमरेड एक के रॉय, बिनोद बिहारी महतो के घर एक बैठक में शामिल हुए, जिसमें तय हुआ कि झारखंड में बदलाव और राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया गया। इस तरह 1972 में झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की स्थापना की गई, जिसने झारखंड अलग राज्य आंदोलन को संगठित रूप दिया। उनके नेतृत्व में हजारों आदिवासी मजदूरों ने अपने हक के लिए आवाज उठाई। वे संतोषजनक रूप से सादगीपूर्ण जीवन जीते थे और उन्हें “दिशोम गुरु” यानी जनजातीय समाज का मार्गदर्शक कहा जाता था।
राजनीतिक उपलब्धियाँ
- वे तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री रहे (2005, 2008-09, 2009-10)
- केंद्र सरकार में कोयला मंत्री के रूप में भी कार्य किया।
- उन्होंने संसद में जनजातीय मुद्दों को पहली बार इतनी प्रमुखता से उठाया।
- उन्होंने लंबे संघर्ष के बाद 2000 में झारखंड को बिहार से अलग राज्य का दर्जा दिलवाया। यह उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक उपलब्धियों में से एक थी।
विवाद और कानूनी लड़ाइयाँ
उनकी राजनीतिक यात्रा विवादों से भी अछूती नहीं रही। 1994 के शिबू सोरेन अपहरण और हत्या के एक मामले में उन्हें 2006 में दोषी करार दिया गया और उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी, लेकिन बाद में दिल्ली हाईकोर्ट ने उन्हें सबूतों के अभाव में बरी कर दिया। इस प्रकरण ने उनके राजनीतिक जीवन पर गहरा असर डाला लेकिन आदिवासी समाज ने उन्हें कभी अस्वीकार नहीं किया।
शिबू सोरेन का सपना था कि झारखंड में आदिवासियों को उनकी जमीन और संसाधनों पर अधिकार मिले, उन्हें शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएं मिलें, और उनकी पहचान को सम्मान मिले। वे आदिवासियों को विकास की मुख्यधारा में लाना चाहते थे, लेकिन अफसोस है कि झारखंड आज भी कुपोषण, खनन माफियाओं और शिक्षा की बदहाली से जूझ रहा है। यह उन सपनों की अधूरी कहानी है जिन्हें सोरेन ने बुना था।
प्रमुख लोगों की श्रद्धांजलियाँ
शिबू सोरेन के निधन पर राजनीतिक हस्तियों ने उन्हें अपनी श्रद्धांजलि दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, “शिबू सोरेन जी ने समाज के वंचित तबकों के सशक्तिकरण में अहम भूमिका निभाई।” प्रधानमंत्री मोदी ने हेमंत सोरेन से दिल्ली में मिलकर दिशोम गुरूजी को श्रद्धांजलि अर्पित की। तो वहीं कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने उन्हें “संघर्षशील आदिवासी चेतना के प्रतीक” के रूप में याद किया।
साफ है कि शिबू सोरेन का निधन केवल एक नेता की मृत्यु नहीं है, बल्कि एक विचार, एक आंदोलन और एक संघर्ष की आवाज़ का चुप हो जाना है। उन्होंने आदिवासी राजनीति को नई पहचान दी और झारखंड के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाई। अब यह आने वाली पीढ़ियों की जिम्मेदारी है कि वे दिशोम गुरु के अधूरे सपनों को पूरा करें।

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