जिस राज्य में भाजपा की सरकार बन रही है, वहां निशाने पर दलित और मुस्लिम आ रहे हैं. उत्तर प्रदेश की सहारनपुर की घटना हो या फिर गुजरात के ऊना की घटना निशाने पर लगातार दलित रहे हैं. खास बात यह कि इन घटनाओं में शामिल उपद्रवियों की सरकार अनदेखी कर देती है. ताजा मामला हिमाचल प्रदेश का है, जहां दलितों पर हमले की खबर तो नहीं है लेकिन उन्हें दूसरे तरीके से निशाना बनाया गया है.
हिमाचल प्रदेश में बीजेपी की सरकार आने के बाद वहां निशाने पर दलित बुद्धिजीवि आ गए हैं. नवनिर्वाचित भाजपा सरकार ने दलित साहित्यकार के रुप में विख्यात ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ को शिक्षण संस्थानों से हटाने का फैसला कर लिया है. ‘जूठन’ के खिलाफ यह आरोप लगाया जा रहा है कि इससे जातिवाद को बढ़ावा मिलता है.
हालांकि हिमाचल सरकार के इस फैसले के खिलाफ दलित बुद्धिजीवियों ने कड़ा विरोध दर्ज कराया है. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. विवेक कुमार ने इस पर आपत्ति जाहिर करते हुए कहा–
मै पूछना चाहूँगा की जातिवाद की पीड़ा, दंश एवं अनादर से ‘जूठन‘ जैसी कालजयी आत्मकथा की उत्पत्ति हुई है की ‘जूठन‘ की वजह से जातिवाद पैदा होगा ? ‘जूठन‘ जैसी क्रातियों को पाठयक्रम में शामिल करने से शिक्षा व्यवस्था में प्रजातांत्रिक मूल्यों का समावेश होगा. इसके अध्ययन से विद्यार्थियों में समाज में जाति पर आधारित अमानवीय प्रथाओं को लड़ने की चेतना जाग्रत होगी जिससे सामाज ज़्यादा प्रगतिशील होगा. शायद कुछ सवर्ण समाज के शासकों को जूठन के माध्यम से अपने समाज के इस वीभत्स एवम् विकृत चेहरे को देख कर लज्जा आ गयी. अब वो इस लज्जा को सब के सामने स्वीकार तो कर नही सकते. इस लिए उन्होने इस ‘ज़ातिवाद‘ जैसे लचर आधार का सहारा लिया है. यह तो वही कहावत हो गयी की उल्टा चोर कोतवाल को डाटे . लेकिन कुछ भी हो इस प्रतिबंध से यह तो अवश्य प्रमाणित हो गया की ओम प्रकाश जी की ‘ जूठन‘ इतनी प्रभावशाली है की वह राजसत्ता को भी भयभीत कर सकती है…ओमप्रकाश वाल्मीकि जी आपकी कलम, कल्पनाशीलता एवं अदंभ साहस को शत शत नमन.
तो वहीं दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. कौशल पंवार ने इस पूरे मामले पर सवाल उठाया है. डॉ. कौशल कहती हैं- ये बैन पूरी तरह से गलत है. मेरा मानना है कि किसी भी साहित्य पर बैन नहीं लगाना चाहिए. सवर्ण छात्रों का कहना है कि वो जूठन पढ़ते हुए अपनमानित महसूस करते हैं. तो उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि जब दलित-पिछड़े समाज के बच्चे और तमाम महिलाएं मनुस्मृति और अन्य हिन्दू धार्मिक ग्रंथ पढ़ते हैं तो उन्हें भी तो अपमान से गुजरना पड़ता है. दूसरी बात की जूठन पर रोक के लिए गलत तथ्य पेश किए जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि यह उपन्यास है और आजादी के पहले का लिखा है. यह कोरा झूठ है. जूठन उपन्यास नहीं आत्मकथा है, और ये आजादी के पहले का नहीं है. यह झूठा भ्रम फैलाया जा रहा है.
गौरतलब है कि ‘जूठन’ ओमप्रकाश वाल्मीकि के निधन से वर्षों पहले लिखा गया था और वह दलित साहित्य के रुप में पूरे देश भर में लोकप्रिय है. हाल ही में बीते विश्व पुस्तक मेले में दलित साहित्य सबसे ज्यादा बिकने वाला साहित्य था और जूठन उसमें आगे रहा था. जूठन ने लगातार दलित समाज के नए युवाओं को उनके हलिया इतिहास के बारे में बताता है. लगता है भाजपा को यही बात खटक गई है. जाहिर सी बात है कि यह दलित विरोधी फैसला है. जिस तरह से भाजपा सरकार ने जूठन पर बैन का फैसला सत्ता में आने के तुरंत बाद लिया उससे साफ है कि उसकी नजर पहले से ही इस मुद्दे पर बनी हुई थी.

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