Tuesday, November 18, 2025
HomeTop Newsबिहार चुनावः जमीन पर बहुजन एकता जरूरी, तभी चुनावी जीत संभव

बिहार चुनावः जमीन पर बहुजन एकता जरूरी, तभी चुनावी जीत संभव

तमाम बहुजन नायक और विचारक सामाजिक आंदोलन और सामाजिक एकता को राजनीतिक आंदोलन से अहम मानते रहे हैं। यह इसलिए कि जब दलितों-पिछड़ों के बीच सामाजिक एकता बढेगी, तभी वह राजनीतिक सफलता में बदल सकती है। अब यह नहीं हो रहा है।

बिहार के कुछ इलाकों में दस दिनों तक घूमने के बाद यह पता चल गया था कि एनडीए की स्थिति मजबूत है। दस लोगों में से 7 लोग यही कह रहे थे। मैं ज्यादातर दलित और कुछ पिछड़ी बस्तियों में गया था। वो खबरें चलानी शुरू कि तो कमेंट आने लगे कि- “आप भाजपाई हो गए हैं।” क्योंकि दलित-बहुजन समाज का बुद्धिजीवी वर्ग बस यह चाहता है कि लोग जमीन पर कुछ भी कहें, आप एक खास दल कि बुराई करते रहो। सिर्फ वही बाईट दिखाओ, जिसमें लोग उसे कोसे, गालियां दे।
दरअसल दलित बस्तियों में दलित समाज का बड़ा वर्ग मोदी जी का नाम ले रहा था। नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव से ज्यादा। भाजपा ने यह जैसे भी कर दिखाया हो, यह जमीनी हकीकत दिखी।
समस्या यह है कि बुद्धिजीवी वर्ग और राजनीतिक दल अब भी पुराने सामाजिक गणित पर चलते हैं। वो मान लेते हैं कि
दलित है तो भाजपा के खिलाफ वोट देगा, यादव है तो राजद के साथ जाएगा और मुसलमानों की तो मजबूरी ही है। लेकिन जमीन पर ऐसा नहीं है। पिछड़े वर्ग में मुझे सिर्फ यादव ही राजद के साथ मजबूती से खड़े दिखे। हालांकि कुछ अन्य पत्रकार मित्रों ने सोशल मीडिया पर यह लिखा था कि यादव समाज के तमाम लोग भी भाजपा के समर्थन में हैं। दलित तो काफी बंटे थे। भाजपा ने अपने गठबंधन का गुलदस्ता भी शानदार सजाया था। इसमें समाज के हर वर्ग में समर्थन रखने वाले दल और नेता थे।
तो क्या यह माना जाए कि अब दलितों का झुकाव पिछड़ी जातियों की पार्टियों, खासकर यादव नेतृत्व वाली पार्टियों से घट रहा है? आप कह सकते हैं कि यूपी में बसपा के समर्थकों का वोट सपा को गया, लेकिन इसमें सपा की कोई अपनी सफलता नहीं है। बल्कि यह इसलिए हुआ क्योंकि यूपी में बसपा के आंदोलन के कारण वहां का वोटर ज्यादा जागरूक है। वह संविधान पर खतरे और भाजपा सरकार की चालबाजियों को बेहतर समझ रहा है।
दूसरी बात, तमाम बहुजन नायक और विचारक सामाजिक आंदोलन और सामाजिक एकता को राजनीतिक आंदोलन से अहम मानते रहे हैं। यह इसलिए कि जब दलितों-पिछड़ों के बीच सामाजिक एकता बढेगी, तभी वह राजनीतिक सफलता में बदल सकती है। अब यह नहीं हो रहा है। लालू यादव जी के साथ दलित समाज इसलिए खड़ा हुआ क्योंकि तब बिहार में सामंतवाद ज्यादा था। दलित समाज पीड़ित था। लेकिन लालू यादव के सत्ता में आने के बाद यह सामंतवाद कमजोर हुआ तो उसके बदले ओबीसी समाज का एक विशेष वर्ग मजबूत हो गया और कमोबेश उसने नव सामंतवादी रूप धर लिया।
देश के तमाम हिस्सों से आने वाली खबरें बताती है कि दलितों पर अत्याचार करने के मामले में पिछड़ा वर्ग भी कम नहीं है। खासकर मजबूत ओबीसी जातियां। ऐसे में गांव का वह पीड़ित दलित समाज चुनाव के वक्त आखिर उनके नेतृत्व वाले दलों को समर्थन क्यों देगा, यह बड़ा सवाल है? तब भी जबकि भाजपा लगातार देश के तमाम राज्यों में दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों को मुख्यमंत्री बना रही है। आप उसे भले रबर स्टॉम्प कहें, लेकिन इतनी राजनीतिक समझ गांव के दलितों और आदिवासियों में कितनी है।
इसलिए अगर बिहार में राजद या फिर यूपी में सपा (बसपा की बात बाद में) को जीतना है तो गांंव-गांव में सबसे पहले तो उन्हें दलितों को अपना भाई मानकर उन्हें सम्मान देना होगा और उनपर अत्याचार बंद करना होगा। दूसरी बात, अगर सामंतवादी समाज दलितों पर अत्याचार करे तो दलितों के साथ न्याय के लिए खड़ा होना होगा। जब तब यह सामाजिक एकता नहीं बनेगी, राजनीतिक एकता और जीत संभव नहीं है।

लोकप्रिय

अन्य खबरें

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Skip to content