अयोध्या में बौद्ध पक्ष को अदालत की फटकार कितनी जायज

देश की अदालत सबके लिए है। शायद यही वजह है कि अदालतों को भी तीन स्तरों पर बांटा गया है, ताकि एक जगह न्याय मिलने से रह जाए और अदालत से ही कोई गलती हो जाए तो दूसरी या तीसरी जगह न्याय हासिल किया जा सके। लेकिन न्याय पाने के लिए अपील दो लोगों को भारी पर गई। जब शीर्ष अदालत ने उनकी जनहित याचिका को न सिर्फ खारिज कर दिया, बल्कि उसे बेकार और बकवास तक कह दिया और तो और याचिकाकर्ताओं पर एक लाख रुपये का जुर्माना भी लगा दिया।

मामला अयोध्या के रामजन्मभूमि स्थल से जुड़ा है। आप सबको याद होगा पिछले दिनों रामजन्म भूमि के समतलीकरण के दौरान तमाम अवशेष सामने आए थे। खुदाई में जो अवशेष मिले थे, वो तमाम बौद्ध धर्म से मिलते-जुलते थे। बौद्ध धर्म में विशेष महत्व रखने वाले अशोक धम्म चक्र और कमल का फूल जैसे अवशेष की तस्वीरें सामने आई थी। इसके बाद तमाम बौद्ध विद्वान इसे बौद्ध धर्म का अवशेष बताते हुए एक बार फिर से अयोध्या को बौद्ध नगरी साकेत बताने लगे।

पिछले कई वर्षों से अयोध्या के बौद्ध स्थल होने का दावा बौद्ध धम्म को मानने वाले करते रहे हैं। इस खुदाई में मिले अवशेष के बाद मामले ने फिर से जोर पकड़ा। इसके बाद बिहार के दो बौद्ध भिक्खुओं ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की और रामजन्मभूमि को खोदने और खुदाई के दौरान सामने आने वाली कलाकृतियों की सुरक्षा करने की मांग की। अवशेषों की सुरक्षा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की देखरेख में किए जाने की मांग थी।

इसी मामले पर सुप्रीम कोर्ट में आज यानि कि 20 जुलाई को सुनवाई हुई। जिस पर जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली बेंच ने लगभग भड़कते हुए न सिर्फ इस याचिका को बेकार, तुच्छ तक कहा, बल्कि बिल्कुल कठोर रुख अपनाते हुए दोनों याचिकाकर्ताओं पर एक-एक लाख रुपये का जुर्माना लगा दिया। और इस रकम को एक महीने के भीतर जमा करने का फरमान सुना दिया। दोनों को यह कह कर भी डांट लगाई गई कि अदालत याचिकाकर्ता संगठनों की सीबीआई जांच के आदेश देगी। सुप्रीम कोर्ट की इस पीठ ने कहा कि आप जनहित के नाम पर ऐसी बेकार याचिकाएं कैसे दायर कर सकते हैं। आप दंड के भागी हैं। आप पर इसलिए जुर्माना लगाया जा रहा है ताकि ऐसी गलती आप दोबारा न करें। दरअसल कोर्ट इस मामले में पहले से ही याचिका होने के बावजूद नई याचिका लाए जाने से नाराज थी। तीन जजों की इस खंडपीठ में जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस बी.आर. गवई और जस्टिस कृष्णा मुरारी थे।

दरअसल हुआ यह कि रामजन्मभूमि स्थल के समतलीकरण के दौरान कई अवशेष मिले थे। इसके बाद बिहार से आये दो बौद्ध मतावलंबियों ने राम जन्मभूमि पर अपना दावा बताया था। इसमें से एक भंते बुद्धशरण केसरिया भी थे।

बुद्धशरण केसरिया का कहना है कि “अयोध्या में बन रहे राममंदिर निर्माण के लिए हुए समतलीकरण के दौरान बौद्ध संस्कृति से जुड़ी बहुत सारी मूर्तियां, अशोक धम्म चक्र, कमल का फूल एवं अन्य अवशेष मिलने से स्पष्ट हो गया है कि वर्तमान अयोध्या बोधि‍सत्व लोमश ऋषि की बुद्ध नगरी साकेत है। अयोध्या मसले पर हिंदु मुस्लिम और बौद्ध तीनों पक्षों ने सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की थी लेकिन सारे सबूतों को दरकिनार कर एकतरफा फैसला हिंदुओं के पक्ष में राम जन्मभूमि के लिए दे दिया गया। इसके लिए हमारे संगठन ने राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट समेत कई संस्थाओं को पत्र लिखकर वास्तविक स्थि‍ति से अवगत कराया।’

अब फिर मूल सवाल पर आते हैं। सवाल है कि क्या यह मामला इतना छोटा था कि इस मुद्दे पर एक बार फिर से अदालत का ध्यान आकर्षित करना अपराध हो गया। क्या भारत और दुनिया भर में मौजूद बौद्ध धम्म में आस्था रखने वाले करोड़ों लोगों की भावनाएं कोई मायने नहीं रखती। क्या अवशेष की तस्वीरें सामने आने के बाद और उसके बौद्ध धम्म से संबंधित होने के बाद भी बौद्ध धम्म में आस्था रखने वालों को अपने ही देश की अदालत से न्याय की मांग नहीं करनी चाहिए थी। सवाल कई हैं। आप भी इस बारे में जरूर सोचिएगा।

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  1. सन 1919 में इसी लिए तो रोक लगाई थी अग्रेजों ने कि ब्राह्मणों के अंदर न्याय चरित्र नहीं होता है इनको जज नहीं बनाया जाएगा

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