जातिवाद का अड्डा बनते जा रहे हैं बड़े शिक्षण संस्थान

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 लगता है भारत के बड़े शिक्षण संस्थानों को खास वर्ग के लोग अपनी बपौती मानते हैं। खासकर आईआईटी जैसे संस्थानों में दलित/आदिवासी और पिछड़े वर्ग के शिक्षकों और छात्रों के साथ जिस तरह लगातार भेदभाव की खबरें लगातार आ रही है, वह इस बड़े संस्थान के जातिवादी होने पर मुहर लगाता जा रहा है। ताजा मामले में एक जुलाई को सामने आई खबर के मुताबिक IIT मद्रास के मानविकी और सामाजिक विज्ञान विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर विपिन पी. वीटिल ने जातिवाद के कारण संस्थान से इस्तीफा दे दिया है। अपने इस्तीफे में प्रोफेसर ने ऊंचे पदों पर बैठे लोगों द्वारा भेदभाव करने का आरोप लगाया है। विपिन उत्तरी केरल के पय्यान्नूर के रहने वाले हैं और मार्च 2019 से आईआईटी मद्रास में पढ़ा रहे हैं।

विपिन ने अपने इस्तीफे में आरोप लगाया कि ओबीसी और एससी, एसटी शिक्षकों को प्रमुख संस्थान में भारी भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है। अपने इस्तीफे में मांग की है कि संस्थान एससी और ओबीसी फैकल्टी के अनुभव का अध्ययन करने के लिए एक समिति गठित करे। इस समिति में एससी, एसटी आयोग और ओबीसी आयोग के सदस्यों के साथ मनोवैज्ञानिक होने चाहिए।

ऐसा नहीं है कि विपिन कोई अयोग्य शिक्षक थे और उन्हें पढ़ाने नहीं आता था, जैसा की मनुवादी अक्सर आरक्षित वर्ग पर आरोप लगाते हैं। आईआईटी मद्रास की वेबसाइट के अनुसार, अर्थशास्त्र विभाग में पोस्ट-डॉक्टरेट फैकल्टी सदस्य रहे वीतिल ने चीन में अपनी स्कूली शिक्षा और दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज में अर्थशास्त्र में स्नातक की पढ़ाई पूरी की है। उन्होंने अमेरिका के जॉर्ज मेसन विश्वविद्यालय से पीएचडी की है और विभिन्न जर्नल में उनके कई रिसर्च पेपर प्रकाशित हुए हैं। साल 2020 में उन्होंने दुनिया भर में कोविड-19 लॉकडाउन से हुए आर्थिक नुकसान का विश्लेषण किया था।

दरअसल आईआईटी से लगातार दलित, आदिवासी, ओबीसी और अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव की खबरें आती है। साल 2018 में आईआईटी कानपुर के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. सुब्रह्मण्यम सडरेला ने चार सीनियर प्रोफेसरों पर जातीय उत्पीड़न का आरोप लगाया था। डॉ. सडरेला ने प्रोफेसरों पर खुद को जातिसूचक शब्दों से संबोधित करने और मानसिक रूप से प्रताड़ित करने का आरोप लगाया था। हाल ही में आईआईटी खड़गपुर की एसोसिएट प्रोफेसर सीमा सिंह ने ऑनलाइन क्लास के दौरान एससी-एसटी छात्रों को गालियां तक दी थी, जिस पर काफी बवाल मचा था।

तो बहुत लंबा वक्त नहीं बीता जब आईआईटी मद्रास में ही मानविकी की छात्रा फातिमा लतीफ ने अपने छात्रावास के कमरे में यह आरोप लगाते हुए आत्महत्या कर ली थी कि उसके धर्म के कारण कॉलेज द्वारा उसके साथ भेदभाव किया गया था। उसने अपने सुसाइड नोट में भेदभाव को लेकर आईआईटी मद्रास के एक प्रोफेसर का नाम लिया था। उसकी आत्महत्या पर फिलहाल जांच चल रही है।

रिपोर्ट के मुताबिक आईआईटी में भेदभाव के कारण सिर्फ शिक्षक ही नहीं, बल्कि छात्र भी मजबूरी में बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं। मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने 25 जुलाई, 2019 को राज्य सभा में बताया था कि पिछले दो वर्षों के दौरान आईआईटी में रिजर्व कैटेगरी के 1171 छात्रों ने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी। आरक्षित श्रेणी के छात्र अवसरों की कमी और मानसिक प्रताडना के कारण संस्थानों को छोड़ने के लिए मजबूर हो जाते हैं। एक और रिपोर्ट बताती है कि आईआईटी से स्नातक करने वाले 15 से 20 फीसदी छात्रों को कैंपस प्लेसमेंट नहीं मिलता। इनमें अधिकतर छात्र आरक्षित श्रेणी के होते हैं।

तो सवाल है कि क्या बड़े संस्थान को एक खास वर्ग के शक्तिशाली लोग अपनी जागीर बनाकर रखना चाहते हैं? क्या उन्हें वहां दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का पहुंचना खटक रहा है? …… लगता तो यही है।

2 COMMENTS

  1. बहुत दुःखद घटना हैं, दलितों के साथ बहुत गलत हो रहा है, हमें इसका विरोध करना चाहिए।

  2. एकविसवी सदीमें दलीत छात्र और अध्यापक के साथ भेदभाव के मामले आना देश के लीए शर्मनाक है। बहुत संघर्ष के बाद हमें शिक्षा का अधिकार मीला है। और ईसी क्षेत्र में ऐसे भेदभाव के मामले आना कानून और संविधान के खिलाफ है। ईसका पुरे जोरशोरसे विरोध होना चाहिए।

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