महिलाओं को हर कदम पर देेनी पड़ती है अग्निपरीक्षा!

इस महान देश में विवाह के माध्यम से पितृसत्ता का वर्चस्व तमाम रीति रिवाज, कायदा कानून से लेकर साहित्य और संस्कृति, धर्म कर्म में संस्थागत है. तो अब लगता है कि बलात्कार भी बहुत तेजी से विवाह की तरह संस्थागत है. अभी हाल में प्रदर्शित फिल्म पिंक में सामाजिक अनुशासन और मान्यताओं की धज्जियां उधेड़कर देहमुक्ति के जो कानूनी तर्क गढ़े गये हैं, वे सिरे से इस महादेश की औरतों की रोजमर्रे की जिंदगी में अप्रासंगिक हैं. ना कहने का अधिकार स्त्री को नहीं है. विवाह और बलात्कार दोनों स्थितियों में स्त्री की अग्निपरीक्षा होती है. मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम अंध-राष्ट्रवाद के आवाहन के मध्य अब हर औरत सीता है.

फिल्म में जितनी आसानी से मीनल ने अदालत में अपने मुक्त यौन संबंधों को स्वीकार किया है हकीकत की जमीन पर न समाज, न कानून व्यवस्था और न न्यापालिका के नजरिये में स्त्री की देह पर उसका कोई अधिकार स्वीकृत है. जिस महानायक ने मीनल के ना कहने के हक के बचाव में चीख चीखकर दलीलें दी हैं, उनके ही परिवार की बहू को भी बतौर अभिनेत्री फिल्मी चुंबन को लेकर उठे विवाद में मीनल की तरह दुनियाभर में सफाई देनी पड़ रही है. उसका परिवार उसके साथ नहीं है. महानायक इस मामले में मौन है, यही समाजिक यथार्थ है और रिअल और रील लाइफ का फर्क है, जहां स्त्री की छवि डर्टी पिक्चर है.

स्त्री के यौन संबंधों से लेकर ऑनरकीलिंग तक पंचायती और मजहबी सजा अदालत के दायरे से बाहर का किस्सा है. जहां मीनल की कोई सुनवाई असंभव है. परिवार, समाज और राष्ट्र का अनुशासन विशुद्ध मनुस्मृति राज है. उसका देह नीलामी पर है और विनिमय प्रचलित मुद्रा में हो, जरुरी नहीं है. विनियम अस्मिता और पहचान है तो कर्मकांड भी है. जो हमारी लोकसंस्कृति के राधा-कृष्ण प्रेम का जैसा तो कतई नहीं है और न कोई वैष्णव जीवनशैली है. हैसियत चाहे कुछ हो, जाति धर्म से कोई फर्क नहीं पड़ता. स्त्री को पल-पल अपना सतीत्व साबित करना पड़ता है. पीड़ित हो या शिकार, हर हाल में कटघरे में वही है. सारे गवाह उसके खिलाफ हैं. बलात्कार का रसायन शास्त्र यही है.

बलात्कार के मामलों में मर्द के चरित्र पर सवाल नहीं उठता है. बलात्कार के अभियोग के मामले में स्त्री का चरित्र सती सावित्री जैसा है या नहीं, अपराध साबित करने से पहले यह साबित करना जरुरी है. कोलकाता के पार्क स्ट्रीट बलात्कार कांड में पीड़ित स्त्री सुजेट मर गयी है, जिसे कानून और व्यवस्था ने लगातार चरित्रहीन ठहराने की कोशिश की. इसी दलील की आड़ में बलात्कारियों का बचाव होता रहा. मरने के बावजूद उसे न्याय नहीं मिला और बलात्कारी को लेकर मुंबई के होटल में रहकर उसके बचाव का रास्ता बताने वाली एक दूसरी स्त्री इस वक्त बांग्ला फिल्मों की टाप हिरोइन है, जिससे पूछताछ भी नहीं हुई है.

पूरा देश अब पिंक का सूरजकुंड थाना है. इंचार्ज महिला हो या मुख्यमंत्री महिला हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है. महिला सांसदों की हालत पति के लिए पंचायत प्रधानी से बेहतर नहीं है क्योंकि ज्यादातर स्त्रियां पति, पिता के राजनीतिक संबंधों और उनकी हैसियत के आधार पर संसद और विधानसभा में पहुंचती है. जिन्हें हम बखूब जानते हैं. संसद से सड़क तक स्त्री की नियति वहीं है जो जनमदुखिनी सीता की नियति रही है. हर हालात में वह गांधारी माता है. आंखें सही सलामत पर आंखों पर पितृसत्ता की अनिवार्य पट्टी काली पूजा की अमावस्या है. रक्तबीज की तरह तेजी से फल-फूल रहे बलात्कारियों को वह मां काली बनकर मार तो नहीं सकती लेकिन महिषासुर वध संभव है लेकिन इस पितृसत्ता के खिलाफ दसप्रहारधारिणी भी निशस्त्र बलिप्रदत्त है.

स्त्रीविरोधी इस पितृसत्ता को शरतचंद्र ने अपने उपन्यासों में खासकर चरित्रहीन और गृहदाह में बेनकाब किया है तो हाल में उत्पीड़न की शिकार स्त्री के चरित्र को लेकर दहन जैसी फिल्म भी बनी है. जिसमें उसका पति उसके खिलाफ है. यह एसिड हमलों का असल रसायन है. उदारता भी धार्मिक पाखंड है. सत्यजीत राय की फिल्म प्रतिद्वंद्वी में धंधा करती एक नर्स को दिखाने पर तमाम नर्सें शक के घेरे में आ गयी थीं तो मृणाल सेन की फिल्म एकदिन प्रतिदिन के बाद बंगाल में हर कामकाजी स्त्री का चरित्र पर सवाल उठने लगा था.

बांग्ला के प्रमुख दैनिक समाचारपत्र एई समय की महिला क्राइम रिपोर्टर ने कालीपूजा के नाम जो तांडव चलाया है, उसमें से खुद के किसी तरह बच निकलने की आपबीती लिखी है. पत्रकार होने की वजह से टॉप के पुलिस प्रशासन के अफसरान के संपर्क के जरिये उन्हें फोन करके जिस तरह वह रात को अपने घर वापस लौटी, उसका ब्यौरा दिया है. फिर लिखा है कि किसी आम स्त्री या लड़की के लिए ऐसे नंबरों से संपर्क साधकर बचाव की कोई सूरत नहीं है तो उनकी हालत क्या होगी जबकि बलात्कार कार्निवाल धर्म और संस्कृति के नाम अखंड है. जिस पर कानून व्यवस्था का अंकिश नहीं है. यह विशिष्ट श्रेणी की कामकाजी महिलाओं की सार्वभौम आपबीती है.

बाकी स्त्री उत्पीड़न की वारदातों की जो बाढ़ है, वह अखबारों में सुर्खियां हैं. कोई संदेह नहीं है कि मीनल की जिरह के आधार पर पितृसत्ता स्त्री के ना कहने के अधिकार को मंजूर करें या नहीं, लेकिन इससे कामकाजी, परिवार से अलग रहने वाली औरतों की जीवनशैली को लेकर बलात्कारी पितृसत्ता के नजरिये के मुताबिक ऐसी हर स्त्री को मीनल की तरह जिरह का सामना देर सवेर करना ही होगा. यह मुक्तबाजार में पितृसत्ता का नया बलात्कारी तेवर है. जिसे हम अपनी सामंती सोच से देख ही नहीं पाते. राम ने रावण वध के बाद जिस सीता को जीता, वह अग्निपरीक्षा उत्तीर्ण करने के बावजूद अपने को सती साबित नहीं कर पायी और मर्यादा पुरुषोत्तम ने उसे वनवास भेज दिया.

बलात्कार न थमने का कारण यही है कि बलात्कारी के बच निकलने के हजार रास्ते हैं. बलात्कार साबित हो तभी न सजा होगी. यहां तो मुकदमा तक दर्ज नहीं होता है. बलात्कार की शिकार दलित आदिवासी, अल्पसंख्यक और पिछड़ी स्त्रियों की आपबीती किसी भी तरह सामने नहीं आती, सुनवाई नहीं होती चीखों की और मामला तक दर्ज नहीं होता, तफतीश का सवाल ही नहीं होता. गायपट्टी और दक्षिणपंथी पितृसत्ता के शिकंजे में फंसे भूगोल का सच हम जानते हैं. जहां न्याय के रास्ते जाति, धर्म भी बहुत बड़ा अवरोध है. जाति और धर्म देखकर न्याय का रास्ता बनता बिगड़ता है. ऐसा किस्सा फेसबुक पर पल दर पल देस के कोने-कोने से दर्ज होता रहता है. किस किसको फर्क पड़ता है यह बताना मुश्किल है. स्त्री चेहरे और उसकी नर्म गोरी त्वचा का यह सबसे बड़ा खुला बाजार है.

इसके विपरीत तीन राज्यों में लंबे समय तक वामपंथी शासन रहा है. केरल में 1952 में कामरेड नंबूदरीपाद की पहली निर्वाचित कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी थी, जिसे जवाहर लाल नेहरु ने बर्खास्त करवा दिया था. तबसे लेकर अब तक केरल में कम्युलिस्टों की सरकार बीच-बीच के अंतराल के बावजूद बनतकी रही है. बंगाल में 35 साल तक वाम शासन रहा है और त्रिपुरा में वाम दुर्ग अभी अटूट है. पितृसत्ता का वर्चस्व इन राज्यों में भी नहीं टूटा है. हमारी विचारधारा का यह सारा पाखंड भी स्त्रीविरोधी है.

स्त्री के हकूक के मामलों में जाति धर्म हैसियत के आर-पार राजनीतिक गोलबंदी के पीछे भी यह मर्दबादी सोच है. विचारधारा के नाम पर फिर कठमुल्लातंत्र को अखंड समर्थन है. यह सारी की सारी राजनीति मनुस्मृति का विस्तार है. बहरहाल, इस साल बंगाल में दुर्गापूजा से पहले से जो स्त्री आखेट जारी है. उसका सिलसिला दिवाली के बाद भी जारी है. धार्मिक कर्मकांड और उत्सव बलात्कार कार्निवाल में तब्दील है. 2011 को वामपंथी शासन खत्म होने के बाद बंगाल में स्त्री-उत्पीड़न बढ़ा है लेकिन नारीदेह की सीमा के आर-पार कुटीर उद्योग बने रहने का सिलसिला तो भारत विभाजन से लगातार जारी है. पार्टीबद्ध बलात्कार उत्सव का कैडरतंत्र सर्वदलीय है. जिसे सर्वदलीय राजनीतिक संरक्षण है. तो दूसरी ओर वामशासित केरल में कड़े कानूनों एवं जागरुकता अभियानों के बावजूद इस साल पिछले छह महीनों में बलात्कार के 910 मामले सामने आए हैं जो राज्य में महिलाओं के विरुद्ध बढ़ते अपराधों का संकेत हैं.

केरल पुलिस के अपराध आंकड़ों के अनुसार जुलाई तक राज्य में महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल 7909 मामले सामने आए. कुल मामलों में बलात्कार के 910 मामलों के अलावा छेड़खानी के 2332 मामले और बाकी महिलाओं के विरुद्ध अपराध के अन्य मामले थे. पिछले साल बलात्कार के 1263 मामले सामने आए थे. विडंबना यह कि वाम शासन में भी सामाजिक बदलाव कुछ नहीं हो रहा है. वैदिकी साहित्य में स्त्री को ना कहने पर देवताओं और ऋषियों को श्राप लगता था. उर्वशी को ना कहने के अपराध में अर्जुन को कुछ समय के लिए किन्नर भी बनना पड़ा. उसी वैदिकी संस्कृति के नाम पर स्त्री की इच्छा अनिच्छा का अब सर्वथा निषेध है.

मुक्त बाजार और पश्चिम की तरह लिव इन और फ्रीसेक्स की वातानुकूलित जीवनशैली में स्त्री उपभोक्ता सामग्री जरुर बनी है, गोरेपन का सौंदर्यबाजार आयुर्वेदिक विस्तार भी हुआ है. लेकिन स्त्री को इस सत्तावर्गीय विशेषाधिकार और जीवन के हर क्षेत्र में उनके प्रतिनिधित्व के बावजूद विवाह और बलात्कार दोनों स्थितियों में न कहने का कोई अधिकार नहीं है. दहेज उत्पीड़न भी इसी पितृसत्ता की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति है.

हमारी प्रगतिशील विचारधारा भी उतनी ही सामंती है जितनी कि दक्षिणपंथी खाप पंचायतों की निरंतरता हर क्षेत्र में है. मनुस्मृति कि सिद्धांतो के तहत वाम दक्षिण किसी भी खेमे में स्त्री के हक हकूक के लिए कोई जगह नहीं है. सत्ता, राजनीति और कानून व्यवस्था बलात्कारी पितृसत्ता के पक्ष में है. केरल, बंगाल और त्रिपुरा में लंबे समय तक वाम शासन के दौरान यह पितृसत्ता ही मजबूत होती रही है, केरल और बंगाल में जारी बलात्कार कार्निवाल यही साबित करते हैं.

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