त्रिपुरा में जीत के बाद भारतीय जनता पार्टी खासी उत्साहित है. उसे जहां वाम का गढ़ ढहा देने की खुशी है तो वहीं पूर्वोतर राज्यों में जीत से भाजपा फूले नहीं समा रही है. त्रिपुरा में अगर किसी एक समाज के संख्याबल के प्रभुत्व की बात करें तो वह आदिवासी समाज है. प्रदेश में उनके लिए बीस सीटें सुरक्षित हैं, जबकि उनकी आबादी 31.8 फ़ीसदी है. लेकिन 20 सीटों और तकरीबन 32 फीसदी आबादी के बावजूद त्रिपुरा की सत्ता पर एक गैर आदिवासी नेता का कब्जा हो गया है.
सवाल सिर्फ त्रिपुरा का नहीं है, बल्कि त्रिपुरा जैसे ही अन्य आदिवासी बहुल राज्यों का हाल भी यही है. त्रिपुरा के अलावा झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ को आदिवासी बहुल राज्य के रूप में जाना जाता है. हालांकि ये राज्य पूर्वोतर के उन छह राज्यों अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, मिजोरम, मेघालय, दादर एवं नागर हवेली और लक्षद्वीप से अलग हैं, जहां आदिवासियों की आबादी पचास फ़ीसदी से भी ज्यादा है. सवाल उठता है कि आखिर आदिवासियों की इतनी बड़ी आबादी होने के बावजूद सत्ता की कमान इनके हाथों में क्यों नहीं सौंपी जाती है?
थोड़ा पीछे चलते हैं. 26.2 प्रतिशत आदिवासी आबादी वाले झारखंड को जब बिहार से अलग राज्य के रूप में गठित किया जा रहा था तो दावा यह किया जा रहा था कि आदिवासी आबादी के लिए यह ज़रुरी हैं और झारखंड के अलग राज्य बनने के बाद यहां के आदिवासियों का विकास बहुत तेजी से होगा. लेकिन आदिवासी हित के दावे अब तक झूठे ही साबित हुए हैं. पिछले चुनाव में पहली बार अकेले दम पर बहुमत से सत्ता में आने के बाद भाजपा ने यहां रघुवर दास के रूप में गैर आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला लिया.
इसी तरह मध्यप्रदेश से अलग कर के जब 30.6 प्रतिशत आदिवासी आबादी के साथ छत्तीसगढ़ राज्य बनाया गया तो इसको आदिवासियों के पिछड़ेपन को दूर करने लिए जरूरी कदम के रूप में प्रचारित किया गया था. छत्तीसगढ़ में भी भाजपा की सरकार है, लेकिन किसी आदिवासी को सत्ता की कमान देने की बजाय पिछले पंद्रह सालों से सत्ता के शीर्ष पर सवर्ण समाज के रमन सिंह बैठे हैं. ये तब है जब झारखंड में आदिवासियों के लिए सुरक्षित सीटों की संख्या 28 और छत्तीसगढ़ में 29 है और इनकी आबादी राज्य के किसी एक हिस्से में न होकर पूरे राज्य में फैली है.ओडिशा में भी सुरक्षित क्षेत्रों की संख्या 33 हैं और 22.8 प्रतिशत आबादी के साथ आदिवासी समुदाय पूरे चुनाव को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. लेकिन ओडीशा में भी गैर आदिवासी मुख्यमंत्री ही रहे हैं.
आंकड़े बता रहे हैं कि राजनैतिक दल आदिवासियों को बहला कर उनका वोट और विश्वास तो हासिल कर लेते हैं लेकिन उन्हें सत्ता में भागेदारी देने से बचते हैं. दलितों और आदिवासियों को ज्यादा सबल नहीं बनाने के भी यही कारण हैं, न वो सबल होंगे और न ही सत्ता में हक मांगेगे. और उनके वोट के बूते समाज का सवर्ण तबका लगातार सत्ता का सुख भोगता रहेगा.
अशोक दास
'दलित दस्तक' मासिक पत्रिका के संस्थापक एवं संपादक। मई 2012 से लगातार पत्रिका का प्रकाशन। जून 2017 से दलित दस्तक के वेब चैनल (www.youtube.com/c/dalitdastak) की शुरुआत।
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