दलित आदिवासी आंदोलन के लिए जिम्मेदार कौन?

सियासी गलियारों में बड़े ज़ोरशोर से आवाज उठ रही है कि दलित आदिवासी आंदोलन के लिए जिम्मेदार कौन है? और इस प्रकार दलितों आदिवासीयों के स्वयं प्रेरित शोषण के खिलाफ शांतिपूर्ण आंदोलन की आड़ में राजनीतिक पार्टियाँ अपने-अपने ढंग से रोटियाँ सेकने में लगी हैं. वे पार्टी जिसका परंपरागत दलित वोट बैंक रहा है वे दलित हिमायती बनकर तथा वह पार्टी जिसनें सबका साथ सबका विकास करने का प्रोपेगैंडा खड़ा किया था. जमीनी स्तर पर कार्य न कर पाने की स्थिति में एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप की राजनीति, सियासी गलियारों में चल पड़ी है. जिस पार्टी ने सबके विकास के नाम पर वोट मांगे थे, आज उसके पास गिनाने के लिए कुछ भी 2019 का चुनाव लड़ने के लिए नहीं हैं. उल्टे दलितों के प्रति अत्याचारों में इजाफा ही हुआ है. जिन पार्टियों का दलित परंपरागत वोट बैंक रहा हैं उन पार्टियों के द्वारा सामाजिक रूप से दलितों का उत्थान न कर पाने की स्थित में ही दलितों ने विकास के नाम पर वोट दिया वहाँ पर भी दलितों को निराशा ही हाथ लगी है.

शिक्षा के प्रति आकर्षण और सोशल मीडिया के सहयोग से दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, को समझ में आने लगा है. पार्टियों के अदला-बदली से कुछ नहीं होने वाला दोनों तरफ ज्यादातर जातिवादी मानसिकता से पोषित लोग ही बैठे हैं. इसी कारण 2 अप्रैल 2018 को देश व्यापी स्वयं प्रेरित जन आंदोलन हुआ. इस आंदोलन में कुछ दुःखद घटनाएँ भी हुईं. शांति से चल रहे आंदोलन को वर्चस्ववादीयों ने घटते वर्चस्व से देखा और उपद्रवी तांडव मचाया एवं निहत्ते लोगों पर गोलियाँ चलाई ज्यादातर मारे गए लोगों में दलित ही थे. आज भी दलितों आदिवासियों को चिन्हित कर उनके साथ ज्यादती जारी है. इससे ये जाहिर है जातिवादी मानसिकता आज भी अपने चरम पर है.

विशेष पार्टी के समर्थित लोग कहते है. ये एक दम कैसे हो गया इसमें इस पार्टी की चाल हैं? ज़्यादातर पार्टियाँ आंदोलन को आपने-अपने तरीके से व्याख्यायित कर वोटों की खेती करने में जुटीं हैं. वहीँ दलित आदिवासी मुद्दे सियासी गलियारे में नदारद हैं. वह एक-दूसरे पर आक्षेप लगाकर बच निकलते हैं जबकि दलितों आदिवासियों को सामाजिक रूप से न्याय, सम्मान, अधिकार की जरूरत है. जिसे कोई भी सत्ताधारी पार्टी प्रभावी रूप से क्रियान्वयन कर, कर सकती है लेकिन जातिवादी मानसिकता उनके आड़े आती है. सिर्फ बाबासाहब डॉ. भीमराव आंबेडकर के नारे लगाना और सार्वजनिक जगहों पर सम्मान करने का काम करते हैं. जिससे जमीनी हकीकत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता.

अब सवाल ये भी कुछ लोग उठाते हैं. 70 साल देश को आजाद हो गए दलित आदिवासी पिछड़े मुख्यधारा में क्यों नहीं शामिल होना चाहते. तब मुझे आरक्षण फिल्म का वो डायलॉग याद आता है “आपके अंदर प्रतिभा नहीं है आप डरते हैं प्रतियोगिता से, तब शेफली खाँन बोलते हैं, सबकी स्टाटिंग लाइन एक होना चाहिए. आओं सुख-सुविधाओं और संपत्ति का बटवारा कारों और हमारी तरह जी के देखों तब प्रतियोगिता कारों कौन हराम की खाता है? आपने अपनी जैवे भर ली है और कहते हो प्रतियोगिता करों.”

क्या सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर व्यक्ति जहाँ सब कुछ पैसे से बिकता हो अपने आप को सारी सुविधाओं से संपन्न व्यक्तियों के सामने खड़ा कर पायेगा? कुछेक हो भी जाएंगे वह भी मजबूरी में सिस्टम के हिस्सा हो जाएंगे जबतक कोई बड़े स्तर पर प्रयास न किया जाए.

अब सवाल ये खड़ा होता है. क्या किसी जति, समुदाय के सामाजिक राजनीतिक आर्थिक विकास से सशक्त राष्ट्र का निर्माण हो सकता है? क्या सभी जति समुदाय के लोगों की सहभागिता ज़रूरी नहीं? अगर इन सब को देखते हुए दलितों आदिवासियों पिछड़ों के उत्थान के लिए कोई क़ानून बनता है. क्या ये शसक्त राष्ट्र निर्माण के लिए उचित नहीं?

अशोक कुमार सखवार
पी-एच.डी. शोधार्थी,
हिंदी विभाग, साँची बौद्ध-भारतीय ज्ञान अध्ययन विश्वविद्यालय,

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