अण्णाभाऊ साठेः महाराष्ट्र की धरती का तड़पता सूरज

Anna Bhau Sathe

काले सावले वर्ण का, दुबला-पतला, लगभग 5 फीट ऊंचे अण्णाभाऊ साठे के शब्दों और आवाज में वो करश्मिाई जादू था, जिसे सुनने के बाद आम लोगों के रगों में लहर दौड़ पड़ती थी. अण्णा भाऊ महाराष्ट्र की सर जमी पर 1 अगस्त 1920 में सांगली जिले के वाटेगांव में अनुसूचित जाति में पैदा हुए थे. अण्णा बचपन में काफी शरराती हुआ करते थे.

उनके पिता जी भाऊ साठे मुंबई में अंग्रजों के घर पर माली का काम करते थे. गांव मे अण्णा के साथ उनके भाई-बहन और माँ रहती थी. दुसरे बच्चों की तुलना में अण्णा काफी होशियार और नटखट थे. अण्णा के पिताजी जब छुट्टी के दौरान एक बार उनके गांव आयें, तब उनकी माँ ने अण्णा का स्कूल में दाखिला कराने की सलाह दी. अण्णा स्कूल तो गए, लेकिन अनुसूचित जाति के होने के कारण उनके गुरूजी ने उन्हें पहले ही दिन जमकर डांट लगाई थी. जैसे-तैसे वे दूसरे दिन स्कूल गए लेकिन दूसरे दिन भी डांट मिलने पर वापस स्कूल से भाग आएं और उसके बाद उन्होंने स्कुल का कभी मुंह नहीं देखा.

इधर देशभर में अंग्रजों के खिलाफ आंदोलन तीव्र होता जा रहा था. दूसरी ओर अंग्रजों ने भी अपने घर पर काम कर रहे भारतीय नौकरों को कम कर दिया था. इसी के चलते अण्णा के पिताजी भाऊ की नौकरी छुट गई. भाऊ वापस वाटेगांव लौटे तो उस साल गांव में सूखा पड़ा था. परिवार पहले ही सूखे के कारण दुख की मार झेल रहा था, उसमे भाऊ की नौकरी छिन गई थी. अण्णा के पिताजी ने परिवार के सभी सदस्यों को लेकर मुंबई जाने की ठान ली.

जेब मे पैसे नही थे. गांव-दर-गांव में रूक-रूक कर जो भी काम मिलता था. उसे कर परिवार आगे की राह पकड़ता था. ऐसे भटकते हुए पूरा परिवार पुना तक आ पहुंचा. पुणे के बाहरी इलाकों में इस समय पत्थर तोड़ने के काम में काफी मजदूर लगते थे. किसी ठेकेदार ने उन्हें बहला फुसला कर कि पत्थर तोड़ने के काम में बड़ा पैसा मिलता है, यह कहकर लेकर गया. दिन भर पत्थर तोड़ने के बाद रात को भर पेट खाना भी नसीब नहीं होता था. ऐसे हालात में अण्णा की तबीयत दिन-प्रतिदिन कमजोर होती जा रही थी. मां-पिता देखते लेकिन, कुछ कर नहीं सकते थे. एक रात पूरा परिवार इस जगह से भाग निकला. जैसे तैसे मुबंई में पहुंचा, यहां पर भी उन्हें एक जल्लाद ठेकेदार ने पत्थर तोड़ने के काम पर लगा दिया. इस जगह तो सुरक्षा के लिए तगड़े-तगड़े पहलवान भी रखे थे. यहां एक दिलदार पठान था.

कुछ दिन काम करने के बाद इस पठान से अण्णा की दोस्ती हो गई. यहां से भागने के लिए पठान ने साठे परिवार की मदद की थी. वाटेगांव से लेकर मुंबई की इस भयानक यातनामय यात्रा ने अण्णा के मन पर गहरी चोट की. उसके बाद मुंबई में चेंबुर, मांटुगा, कुर्ला, दादर, की झुग्गियों में स्थानांतरित हुए, काम की तलाश में घुमते रहे, उसके बाद रिश्तेदार के साथ कपड़े बेचने के काम की शुरूआत की.

अण्णा के गांव से ही ताल्लुक रखने वाले अनुसूचित जाति के व्यक्ति से परिचय बढ़ा. उसे पढ़ना लिखना आता था, यह जानकर अण्णा को बहुत आश्चर्य हुआ. इसके बाद अण्णा ने भी ठान लिया कि मुझे भी पढ़ना है. वे रोज काम के बाद दोस्त के घर कॉपी-कलम लेकर जाया करते थे. एक ही महीने में उन्होंने काफी कुछ सीख लिया. बाद में जो हाथ में मिलता था उसे ही पढ़ते रहते थे. यह समय लगभग 1942 के आस-पास का था. मुंबई में कहीं, स्वातंत्र्य आंदोलन की लड़ाई चल रही थी, तो कहीं जाति-भेद की लड़ाई चल रही थी. इस सभी माहौल में हमेशा से ही कामगार, मजदूर, गरीब, पीड़ित लोग पीसे जाते थे. इन सारी घटनाओं का असर भी अण्णा पर हो रहा था. इस समय वह कपड़ा मील में काम किया करते थे. कपड़ा मील में मजदूर युनियन से भी उन्हें काफी नई-नई विचारधारा की जानकारी मिल रही थी. जिसमें समता, बंधुत्व की भी बात कही जाती थी. मिल यूनियन में काफी एकजुटता दिखाई पड़ती थी. इस सब बात का चिंतन-मनन दिमाग चलता रहता था.

अण्णा के मौसरे भाई की नाटक मंडली थी. अण्णा कभी-कभी इस मंडली में काम किया करते थे. मुंबई में अण्णा साठे तथा दो और लोक गायकों ने मिलकर ‘लालबटवा’ नामक कलापथक शुरू किया था. इस पथक के तहत उन्होंने कई कार्यक्रम पेश किये. 1945 में मुंबई के शिवाजी पार्क पर लोगों को जागृति करने का बड़ा जलसे का कार्यक्रम आयोजित किया गया था. इस वक्त स्फूर्ति शाली गीतों से उन्होंने लोगों के दिलों में घर बना लिया. और यहां से वो लोक नाटक के जनक बन गये. हाशिए के लोगों की बात वह कहने लगे थे.

भारत-पाकिस्तान विभाजन के वक्त ‘पंजाब-दिल्ली दंगा’ पर एक प्रदीर्घ लोक-गीत की रचना की. इस गाने से बिंदु से सिंधू का स्वाद पता चलता है. इस पर से अण्णा की सोच का पता चलता है. देश भर के तत्कालीन महत्वपूर्ण मुददों पर उन्होंने लोक-गीत लिखे थे, जो आज भी बड़े चाव से गाये और सुने जाते हैं. अण्णा भाऊ साठे ने अपने लेखन की अमिट छाप समाज पर छोड़ी. साथ ही उन्होंने कथा लेखन, नाटक, प्रवासवर्णन, सिनेमा की कथा, उपन्यास लिखा. केवल दो दिन स्कूल जानेवाले अण्णा भाऊ साठे ने अपनी अद्वितिय बुद्धि कौशल, निरक्षण तथा स्वानुभव से नया इतिहास गढ़ा. उनके इस काम की कद्र महाराष्ट्र शासन ने भी उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित कर के दिया. इसके अलावा उनके लिखे गये लोक गीत रशियन भाषा मे भी प्रसिद्ध हुए. उनका रशिया में खास सत्कार किया गया.

लोकशाहारी अण्णाभाऊ साठे व्दारा लिखा गया साहित्य

उपन्यास: फकीरा, वारण का शेर (वारणेचा वाघ), अलगुज, आवडी, केवडे का भुट्टा (केवडयाचे कणीस), कुरूप, चंदन, जिंदा काडतुस (जिवंत काडतुसं), धुंद, मंगला, बंदरिया की माला (माकडीचा माळ), मूर्ति, रानगंगा, रूपा, वैजयंता, तारा, संघर्ष, आग, आघात, अहंकार, अग्निदिव्य, गुलाम, कीचड़ के कमल (चिखलातले कमल), भरी हुई बंदुके (ठासलेल्या बंदुका), आँखे मटकाती राधा चले (डोळे मोडित्‍ राधाचाले), तितली (फुलपाखरू), मधुरा, शिक्षक (मास्तर), रत्ना, रानबोका, चित्रा, वारणानदी के किनारे (वारणेच्या खो-यात), वैर, सरनौबत, पाझर.

कथा संग्रह: चिराग नगर के भूत (चिरागनगरची भुतं), कृष्णा किनारे की कथा (कृष्णाकाठाच्या कथा), जेल में (गजाआड), नई-नवेली (नवती), पागल मानुष्य (पिसाळलेला माणूस), फरारी, भानामती, लाडी, खुळंवाडी, निखारा, बरबाघ्या कंजारी, गु-हाळ, आबी

नाटक लेखन: इनामदार, पेग्यां की शादी (पेग्यांचे लगीन), सूलतान,

लोकनाटक: तमाशा (नौटंकी), दिमाग की काहणी (अकलेची गोष्ट), खाप-या चोर, देशभक्त घोटाले (देशभक्त घोटाळे), नेता मिल गया (पुढारी मिळाला), बिलंदर पैसे खाने वाले (बिलंदर बुडवे), मौन मोर्चा (मूक मिरवणूक), मेरी मुंबई (माझी मुंबई), शेटजी का इलेक्शन (शेटजीचे इलेक्शन), सुखे में तेरवा महिलना (दुष्काळात तेरावा), कायदे के बिना (बेकायदेशीर), लोकमंत्री, महाराष्ट्र की लोक कला लावणी (लावणी), गीत, महाराष्ट्र में लोक गायन का प्रकार पोवाडा (पोवाडे),

प्रवासवर्णन: मेरा रशिया की यात्रा (माझा रशियाचा प्रवास)

मराठी फिल्मी (चित्रपट)-कथा: फकीरा, ऐसी यें सातारा की करामत (अशी ही साता-याची त-हा), तिलक लागती हू रक्त से (टिळा लाविते मी रक्ताचा), पहाडों की मैना (डोंगराची मैना), मुरळी मल्हारी रायाची, वारणे का बाघ (वारणेचा वाघ), बारा गाव का पाणी (बारागावे पाणी)

अंजु निमसरकर-कांबले
सुचना अधिकारी
महाराष्ट्र सूचना कार्यालय (महाराष्ट्र शासन)
9899114130

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