ये कैसी गरीबी, ये कैसा आरक्षण?

2007

मोदी सरकार द्वारा जिस तरह आनन-फानन में गरीबों को दस फीसदी आरक्षण देने की बात कही गई है, वो कई सवाल उठाने वाला है। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि आरक्षण के लिए मोदी सरकार ने आय और जमीन की जो सीमा तय की है, वह चौंकाने वाला है। कैबिनेट की बैठक में फैसला लिया गया कि सामान्य वर्ग में जिनकी सालाना आमदनी 8 लाख और जिनके पास खेती की 5 एकड़ से कम ज़मीन हो, ऐसे लोगों को नौकरी और शिक्षा में 10 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा.

सरकार का यह फैसला कई सवाल उठाता है। 8 लाख रुपये सलाना आमदनी के लिहाज से देखें तो सरकार ने उनको भी गरीब माना है, जो हर महीने 65 हजार से कुछ ज्यादा कमाता है। आप खुद सोचिए कि जो इंसान प्रतिदन दो हजार से अधिक की कमाई करता है, क्या वह गरीब है? आम तौर पर इस आय वर्ग के लोगों के पास घर, गाड़ी और ठीक ठाक बैलेंस रहता है। ये अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में पढ़ा पाते हैं, जहां की फीस तकरीबन 4-5 हजार रुपये तक होती है। ये महीने में आराम से मल्टीप्लेक्श में एक-दो फिल्म देखते हैं, शॉपिंग भी कर लेते हैं। अब इस तरह की जिंदगी जीने वाले लोगों को क्या गरीब माना जाना चाहिए?

राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण संस्थान के आंकड़ों के मुताबिक देश में 95 प्रतिशत परिवारों की सालाना आय आठ लाख रुपये से कम है। एक हजार वर्गफुट से कम भूमि पर मकान वालों की संख्या 90 प्रतिशत है। इसी तरह कृषि जनगणना के अनुसार 87 प्रतिशत किसान के पास कृषि योग्य भूमि का रक़बा पांच एकड़ से कम है। यानी देश की आबादी में 40 फीसदी सवर्ण ग़रीब हैं।

मान लिया जाए कि एक बार 10 फीसदी आरक्षण का अगर समर्थन भी करने की सोची जाए तो भी यह तब संभव है जब  सवर्ण समाज के भीतर से यह मांग उठे कि कमाई की सीमा 8 लाख रुपये सलाना से घटाकर 3-4 लाख तक किया जाए। सरकारी नौकरी में रहने वाले परिवार वालों को भी इसका लाभ नहीं मिलना चाहिए। सरकार के हालिया आऱक्षण के फैसले पर सवर्ण समाज के उन गरीब वर्ग के लोगों को आंदोलन करना चाहिए जो शहरों में 10 और पंद्रह हजार की नौकरी करते हैं, जो छोटे-मोटे धंधे कर के महीने के 10-20 हजार की कमा पाते हैं, जिनके बच्चे सरकारी स्कूल या औसत प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं। आरक्षण को लेकर सरकार की नीयत साफ नहीं है।

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