सांप्रदायिक राजनीति के भगवा रंग के खिलाफ ताल ठोकता आदिवासी धर्म

झारखंड के गुमला जिले के घाघरा प्रखंड की एक खबर के मुताबिक अपने आदिवासी सरना धर्म और आस्‍था के केंद्र मड़ई (देवी मंडप) पर होने वाले हिंदुत्‍ववादी हमलों और इन हमलावरों को प्राप्त राज्‍य की भाजपा सरकार के मौन समर्थन से आदिवासी समाज आहत है. आहत समाज ने समीर भगत के नेतृत्‍व में 100 से अधिक सरना धर्मालंबी आदिवासी परिवारों ने इस्‍लाम धर्म अपनाने की चेतावनी दी है. अभी तक ब्राह्मणवादी ताकतों की ज्‍यादतियों के खिलाफ दलित जातियों के लोग ही इसप्रकार से इस्‍लाम अपना लेने की धमकियाँ देते रहे हैं और इस्‍लाम अपनाते भी रहे हैं. किंतु आदिवासियों के द्वारा इस्‍लाम अपना लेने की यह धमकी साबित करती है कि आदिवासी भी दलितों के जैसे ही हिंदुत्‍ववादी ताकतों की निरंकुशता के शिकार हैं. झारखंड के सरना धर्मालंबियों की यह चेतावनी भारत के आदिवासियों की स्‍वायत्‍त धार्मिक-सांस्‍कृतिक पहचान को मिटा उन पर हिन्दू धर्म का ठप्‍पा लगा देने की हिन्दुत्‍ववादी सांस्‍कृतिक परियोजना के खिलाफ खदबदाते आदिवासी असंतोष की अभिव्‍यक्ति है.

 यह पूरा प्रसंग राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) द्वारा दिखाये जाने वाले हिन्दू राष्‍ट्र के स्‍वप्‍न में निहित खतरों की ओर साफ संकेत करता है. आर.एस.एस. और उसके राजनीतिक संस्करण भाजपा का हमारे देश के संविधान द्वारा प्रदत्‍त धार्मिक स्‍वतंत्रता के मौलिक अधिकार में कतई विश्‍वास नहीं है. संविधान ने अनुच्‍छेद 25 से 28 तक हर भारतीय व्‍यक्ति को धार्मिक स्‍वतंत्रता से जुड़े कुछ मौलिक अधिकार दिये हैं. इनके अनुसार हर भारतीय नागरिक को यह छूट है कि वह किसी खास धर्म में विश्‍वास रखे या न रखे अथवा धर्म मात्र में ही उसकी आस्‍था न हो. किंतु लगता है कि आर.एस.एस. और भाजपा आदिवासियों को हमारे देश का नागरिक ही नहीं मानते अन्‍यथा वे क्‍यों झारखंड के आदिवासियों के सरना धर्म के प्रति असम्‍मान दिखातेॽ असल में हकीकत यह है कि आर.एस.एस. और भाजपा संविधान प्रदत्‍त लोकतांत्रिक अधिकारों की दुहाई देने वाले आदिवासियों और उनके शुभचिंतकों को राष्‍ट्रविरोधी और नक्‍सली आरोपित करके हिन्दू राष्‍ट्र के अपने हिंसक यज्ञ में उन्‍हें स्‍वाहा करने की कुनीति को ही अपना धर्म मानते हैं.

 लंबे समय से इस देश के मूल निवासी आदिवासी स्‍वयं को मर्दुमशुमारी में हिन्दू धर्म समेत मुख्‍यधारा के अन्‍य धर्मों के बट्टेखाते में डालने का विरोध करते आ रहे हैं. वे मानते हैं कि उनका धर्म सरना है और हिन्दू धर्म से उनका कोई लेना-देना नहीं है. वास्‍तव में देशभर के तमाम आदिवासी समुदाय प्रकृति के उपासक रहे हैं. वे प्रकृति के साथ समन्‍वय और सहयोग के दर्शन पर आधारित प्राकृतिक धर्म में आस्‍था रखते हैं. चाहे इस आस्‍था को अलग-अलग आदिवासी समुदायों में अलग-अलग नाम दिया जाता हो, किंतु इन सभी नामों के पीछे मूल दर्शन एक ही है. लेकिन गैर आदिवासी सत्‍ता समय-समय पर आदिवासियों की धार्मिक पहचान के खिलाफ राजनीतिक-धार्मिक-कानूनी षड्यंत्र करती रही हैं. प्राचीन काल से ही हिन्दू आर्य आदिवासियों के धर्म और उनकी संस्कृति को लेकर अपने धर्म ग्रंथों में उन्‍हें राक्षस और असुर कहकर तमाम नकारात्‍मक दुष्‍प्रचार करते रहे हैं. औपनिवेशिक काल में विदेशी साम्राज्‍यवाद की शह पाकर चर्चों और मिशनरियों ने भौतिक प्रलोभनों आदि के बल पर आदिवासियों का धर्मांतरण करवाया तो आ‍जादी के बाद भी कांग्रेस की केंद्रीय सरकार ने आदिवासियों की पृथक धार्मिक पहचान को जनगणना में जगह नहीं दी. और केंद्र तथा राज्‍य में सत्‍तारूढ़ आज की हिंदुत्‍ववादी सरकारों के संरक्षण में आर.एस.एस. और उसके आनुषांगिक संगठन आदिवासियों के हिन्दूकरण की मुहिम में जोर-शोर से लगे हुये हैं.

यह मुहिम पूरे दंडकारण्‍य में पहले से ही चलाई जा रही थी. इसमें प्रवासी भारतीयों के पैसे तक लगे थे. आदिवासी इलाकों में वनवासी स्‍कूलों और हनुमान मंदिरों की स्‍थापना, आदिवासियों के बीच हनुमान लॉकेट समेत त्रिशूल वितरण और सारंडा विश्‍व कल्‍याण आश्रम की स्‍थापना– ये सब इसी मुहिम का हिस्‍सा थे. गैर ईसाई आदिवासियों को ईसाई आदिवासियों के खिलाफ भड़काकर कंधमाल का दंगा आदि करवाया गया और उनका शुभचिंतक होने का ढोंग किया गया. दूसरे चरण में धीरे-धीरे उनकी आदिवासी पहचान खत्‍म करके आदिवासी धर्म-संस्‍कृति को भगवा रंग में रंगने की कुत्सित कोशिश की गई.

 जी.एस.घुर्ये (गोबिंद सदाशिब घुर्ये) आदिवासी को हिन्दू साबित करने की जिहादी जिद पकड़े हुए हैं. घुर्ये ने ‘तथाकथित मूल निवासी और उनका भविष्य’ शीर्षक एक पुस्तक लिखी थी जो कई संस्करणों के पश्‍चात् ‘भारत की अनुसूचित जनजातियां’ शीर्षक से प्रकाशित हुई. इन्होंने हिन्दू समाज के साथ आदिवासियों के समायोजन के आधार पर आदिवासियों को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत करते हुए उन्हें ‘पिछड़ा हुआ हिन्दू’ साबित करने में एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. इनके सारे तर्क बाण एक ही धनुष से निकलते हैं जो आदिवासियों के जीववादी धर्म और हिन्दू धर्म की तथाकथित मूलभूत समानता के ख्याली तत्वों से बना है.

किंतु अब पढ़-लिख रही आदिवासी पीढ़ी अपनी पहचान के प्रति धीरे-धीरे मुखरित होने लगी है. यह पीढ़ी अब सवाल पूछ रही है कि जब 45 लाख जैनियों और 84 लाख बौद्धों के अल्‍पसंख्‍यक धर्मों को जनगणना में पृथक धर्मों के रूप में मान्‍यता दी गई है तो आदिवासियों को क्‍यों पृथक धार्मिक पहचान के इस लोकतांत्रिक अधिकार से साजिशन वंचित रखा जा रहा है जबकि उनकी संख्‍या इन अल्‍पसंख्‍यक धर्मालंबियों की जनसंख्‍या से कहीं ज्‍यादा ही है. अगर प्राचीनता की बात करे तब भी भारत के अन्‍य धर्मालंबियों की तुलना में आदिवासियों का धर्म कहीं भी उन्‍नीस नहीं ठहरता. अन्‍य धर्मालंबियों के बारे में कटु सत्‍य यह है कि ये सब इतिहास के किसी न किसी चरण में बाहर से आकर यहां बसे हैं अथवा इनका धर्मातंरण हुआ है लेकिन आदिवासी इसी देश के मूल निवासी हैं और उन्‍होंने किसी दूसरे धर्मालंबी का अपने धर्म में धर्मांतरण भी नहीं कराया है.

 वास्‍तव में आर.एस.एस. को आदिवासियों की स्‍वतंत्र स्‍वायत्‍त धार्मिक पहचान इसलिए स्‍वीकार्य नहीं है क्‍योंकि इसके कारण बहुंख्‍यक हिन्दूवाद का उसका दावा दरक जाता है. आर.एस.एस. को तो ‘आदिवासी’ शब्‍द से भी चिढ़ है क्‍योंकि यह एक संज्ञा ही उनके आर्य हिन्दू राष्‍ट्रवाद को मुँह के बल गिरा देती है. आर.एस.एस. बारंबार आदिवासियों के लिए ‘वनवासी’ संज्ञा का प्रयोग करके इन्‍हें हिन्दू किंतु पिछड़ा हिन्दू साबित करने की कोशिश करता रहता है. गौरतलब है कि 2015 के अंतिम चतुर्थांश में रांची में आर.एस.एस. द्वारा आयोजित अपने अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल के अधिवेशन के दौरान भी उसने आदिवासियों के सरना धर्म के दावे को सिरे से खारिज करते हुये कहा था कि सभी आदिवासी हिन्दू होते हैं. आर.एस.एस. के सह सरकार्यवाहक डॉ. कृष्‍ण गोपाल ने सरना धर्म कोड की मांग को संविधान के खिलाफ तक बताया था. आर.एस.एस. की सरना विरोधी इस नीति के खिलाफ उस समय रांची में जमकर विरोध प्रदर्शन हुये थे और आर.एस.एस. के सरकार्यवाहक डॉ. मोहन भागवत समेत सह सरकार्यवाहक डॉ. कृष्‍ण गोपाल के पुतले फूंके गये थे.

 सरना और सनातन धर्म को एक बताये जाने के साथ-साथ हिन्दूवादी लोग आदिवासियों को मूलत: रामभक्‍त भील और शबरी की संताने बताते रहते हैं. इस प्रकार के बेसिर-पैर के हिन्दूवादी मिथकों और मंसूबों के खिलाफ सरना धर्म को लेकर आज झारखंड के विभिन्न आदिवासी संगठनों और राजनीतिक दलों में मतैक्‍य नज़र आता है. सरना महासभा, एशिया पेसिफिक यूथ इंडिजिनेस पीपुल्‍स फोरम, आदिवासी सरना महासभा, आदिवासी जन परिषद्, आदिवासी छात्र संघ, आदिवासी सेंगेल अभियान, झारखंड दिशोम पार्टी और झारखंड मुक्ति मोर्चा आदि – ये सब समय की मांग को देखते हुये आदिवासी और आदिवासी धर्म-संस्‍कृति की रक्षा के लिए लामबंद होते नज़र आते हैं. 2013 में चार आदिवासी संगठनों – अखिल भारतीय मांझी परगना समिति, अखिल भारतीय सरना धर्म मंडप, ऑल इंडिया संथाली एजुकेशन काउंसिल और झारखंड दिशोम पार्टी ने रांची के आदिवासी यूथ क्‍लब में सरना धर्म के रीति-रिवाजों को संहिताबद्ध करने के लिए तीन दिवसीय सम्‍मेलन का भी आयोजन किया था जिसमें इन संगठनों के लगभग 1000 सदस्‍यों ने शिरकत की थी.

 ईसाइयों और मुस्लिमों की जनसंख्‍या में होने वाली कथित वृद्धि को हिन्दू राष्‍ट्र के खिलाफ इन धर्मों का षड्यंत्र बताने वाला आर.एस.एस. विकास की आड़ में अपनी ही जमीन पर अल्‍पसंख्‍यक बनाये जाते आदिवासियों की त्रासदी पर एक शब्‍द तक नहीं बोलता. अगर हिन्दुओं की ठेकेदारी करने का दंभ भरने वाला आर.एस.एस. वास्‍तव में आदिवासियों को हिन्दू मानता है तो इन अभागे हिन्दुओं की इस त्रासदी पर वह मौनासन में क्‍यों पड़ा रहता हैॽ असल में आर.एस.एस यह कभी सहन नहीं कर सकता कि जनगणना में आदिवासियों को अपने सरना आदिवासी धर्म का विकल्‍प भरने का मौका दिया जाये. उसे यह बात अखरती है कि पिछली जनगणना में झारखंड की कुल जनसंख्या में से 42 लाख 35 हजार 786 लोगों ने अन्‍य के कॉलम में टिक मारा. यह बताने की जरूरत नहीं है कि इतनी बड़ी संख्‍या में अकेले झारखंड से अन्‍य धर्मालंबी का विकल्‍प चुनने वाले ये लोग कौन थे.

 आदिवासी धीरे-धीरे आर.एस.एस. और भाजपा की आदिवासी विरोधी राजनीति का रंग पहचानने लगे हैं और वे जनगणना से लेकर धार्मिक कोड बिल तक में आदिवासी धर्म को संवैधानिक पहचान देने की मांग करने लगे हैं. आदिवासियों की पढ़ी-लिखी नई पीढ़ी आदिवासी समुदायों की पृथक–पृथक पहचानों के नीचे छिपी साझा आदिवासियत को भी रेखांकित कर रही है. आज यह पीढ़ी एक साझा आदिवासी धर्म और आदिवासी कोड बिल की मांग कर रही है. लेकिन आर.एस.एस. आदिवासियों की इस साझा धार्मिक पहचान की मार्ग में अड़ंगे लगाने में जुटी है.

जो लोग झारखंड की राजनीति को निकट से देखते आये हैं, वे पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में इस आदिवासी राज्‍य में आदिवासियों द्वारा दक्षिणपंथी हिंदुत्‍ववादी रानीतिक पार्टी भाजपा के पक्ष में मतदान करने से हतप्रभ थे. वास्‍तव में यह ईसाई और मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक हिन्दुत्‍व की लहर ही थी कि झारखंड के आदिवासी भी अन्‍य भारतीय आदिवासियों के जैसे अपना भला-बुरा नहीं पहचान पाये थे. लेकिन आज आर.एस.एस. और भाजपा के लोग जिस प्रकार सरना धर्म के प्रतीकों के हिन्दूकरण के माध्‍यम से आदिवासी पहचान को मिटा देने के षड्यंत्रों में खुले आम लिप्‍त हैं, उससे झारखंड के गैर ईसाई आदिवासी भी ईसाई विरोधी सांप्रदायिक राजनीति के असली रंग को पहचानने लगे हैं.

– प्रमोद मीणा

लेखक महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय मोतिहारी में हिन्दी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.

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