सावित्री बाई फुले के बारे में तीन अनसुनी बातेंl

सावित्रीबाई ने समय के उस दौर में काम शुरु किया जब धार्मिक अंधविश्वास, छूआछूत, दलितों और स्त्रियों पर मानसिक और शारीरिक अत्याचार अपने चरम पर थे. बाल-विवाह, सती प्रथा, बेटियों के जन्म लेते ही मार देना, विधवा स्त्री का शोषण जैसी प्रथाएं समाज का खून चूस रही थी. ब्राह्णवाद का बोलबाला था. ऐसे में जब सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबाफुले के ऐसी व्यवस्थाओं के खिलाफ खड़े हुए तो हलचल पैदा हो गई थी.

महान शिक्षिका सावित्रीबाई फुले ने ना केवल शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व काम किया, बल्कि भारतीय स्त्री की दशा सुधारने के लिए उन्होंने 1852 में “महिला मंडल” का गठन कर भारतीय महिला आंदोलन की अगुआ भी बन गई. इस महिला मंडल ने बाल विवाह और विधवा महिलाओं पर होने वाले जुल्म के खिलाफ समाज को मोर्चाबन्द कर समाजिक बदलाव के लिए संघर्ष किया.

उस दौर में हिन्दू स्त्री के विधवा होने पर उसका सिर मूंड दिया जाता था. विधवाओं के सर मूंडने जैसी कुरीतियों के खिलाफ लड़ने के लिए सावित्री बाई फूले ने एक नायाब कदम उठाया. महिलाओं के बाल नाई काटते थे. सावित्रीबाई फुले ने नाईयों को इस सामाजिक बुराई के बारे में बताते हुए उनसे विधवाओं के “बाल न काटने” का अनुरोध किया. उन्होंने इसके लिए आन्दोलन चलाया जिसमें काफी संख्या में नाईयों ने भाग लिया और विधवा स्त्रियों के बाल न काटने की प्रतिज्ञा ली. नाईयों के कई संगठन सावित्रीबाई फूले द्वारा गठित महिला मण्डल के साथ जुड़े. पूरे विश्व में ऐसा सशक्त आन्दोलन नहीं मिलता जिसमें औरतों के ऊपर होने वाले शारीरिक और मानसिक अत्याचार के खिलाफ स्त्रियों के साथ पुरूष जाति प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी हो. सावित्री बाई फूले और “महिला मंडल” के साथियों ने ऐसे ही अनेक आन्दोलन चलाएं व उसमें सफल भी हुए.

इसी तरह भारत का इतिहास और धर्मग्रंथों के पढ़ने से साफ पता चलता है कि हमारे समाज में स्त्रियों की कीमत एक जानवर से भी कम थी. स्त्री के विधवा होने पर उसके परिवार के पुरूष ही उनका शारीरिक शोषण करते थे, जिसके कारण वह कई बार मां बन जाती थी. बदनामी से बचने के लिए विधवा या तो आत्महत्या कर लेती थी या फिर अपने अवैध बच्चों को मार डालती थी. इस स्थिति को रोकने के उद्देश्य से सावित्रीबाई फूले ने भारत का पहला “बाल हत्या प्रतिबंधक गृह” खोला गया तथा निराश्रित असहाय महिलाओं के लिए अनाथाश्रम खोला गया, जहां विधवा महिलाएं आराम से रह सकती थीं और अपने बच्चे को जन्म दे सकती थीं.

जो लोग बहुजन महापुरुषों पर जातिवादी होने का आरोप लगाते हैं, उनके लिए यह जानना जरूरी है कि स्वयं सावित्रीबाई फूले ने आदर्श सामाजिक कार्यकर्ता का जीवन अपनाते हुए आत्महत्या करने जाती हुई एक विधवा ब्राह्मण स्त्री काशीबाई जोकि गर्भवती थी, उसको आत्महत्या करने से रोककर उसके बच्चे का जन्म अपने घर में करवाया. उस बच्चे का नाम यशंवत रखा गया जिसे फुले दंपत्ति ने अपने दत्तक पुत्र के रुप में गोद लिया. यशवंत राव को पाल-पोसकर डॉक्टर यशवंत बनाया. इतना ही नहीं उसके बड़े होने पर उसका अंतरजातीय विवाह किया. महाराष्ट्र का यह पहला अंतरर्जातीय विवाह था.

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.