भारत में 19वीं सदी में जिन ठगों से अंग्रेज़ों का पाला पड़ा था, वे इतने मामूली लोग नहीं थे. ठगों के बारे में सबसे दिलचस्प और पुख़्ता जानकारी 1839 में छपी किताब ‘कनफ़ेशंस ऑफ़ ए ठग’ से मिलती है. किताब के लेखक पुलिस सुपरिटेंडेंट फ़िलिप मीडो टेलर थे लेकिन उन्होंने ‘इसे सिर्फ़ कलमबंद किया है.’ दरअसल, साढ़े पांच सौ पन्नों की किताब ठगों के एक सरदार आमिर अली खां का ‘कनफ़ेशन’ यानी इक़बालिया बयान है. फ़िलिप मीडो टेलर ने आमिर अली से जेल में कई दिनों तक बात की और सब कुछ लिखते गए. टेलर के मुताबिक, “ठगों के सरदार ने जो कुछ बताया, उसे मैं तकरीबन शब्दश: लिखता गया, यहां तक कि उसे टोकने या पूछने की ज़रूरत भी कम ही पड़ती थी.”
अब हम आपको बताते हैं कि आखिर कैसे थे असली ‘ठग्स ऑफ़ हिन्दुस्तान’.
टेलर ने लिखा है, “अवध से लेकर दक्कन तक ठगों का जाल फैला था, उन्हें पकड़ना इसलिए बहुत मुश्किल था क्योंकि वे बहुत ख़ुफ़िया तरीके से काम करते थे. उन्हें आम लोगों से अलग करने का कोई तरीका ही समझ नहीं आता था. वे अपना काम योजना बनाकर और बेहद चालाकी से करते थे ताकि किसी को शक न हो.”
उनके अपने रीति-रिवाज़, विश्वास, मान्यताएं, परंपराएं, उसूल और तौर-तरीक़े थे जिनका वे बहुत पाबंदी से धर्म की तरह पालन करते थे. उनकी अपनी एक अलग ख़ुफ़िया भाषा थी जिसमें वे आपस में बात करते थे. इस भाषा को रमासी कहा जाता था. गिरोह में हिन्दू और मुस्लिम दोनों होते थे.
चाहे हिंदू हों या मुसलमान, ठग शुभ मूहूर्त देखकर, विधि-विधान से पूजा-पाठ करके अपने काम पर निकलते थे, जिसे ‘जिताई पर जाना’ कहा जाता था. ठगी का मौसम आम तौर पर दुर्गापूजा से लेकर होली के बीच होता था. तेज़ गर्मी और बारिश में रास्तों पर मुसाफ़िर भी कम मिलते थे और काम करना मुश्किल होता था. जिताई पर जाने से सात दिन पहले से ‘साता’ शुरू जाता था. इस दौरान ठग और उनके परिवार के सदस्य खाने-पीने, सोने-उठने और नहाने-हज़ामत बनाने वगैरह के मामले में कड़े नियमों का पालन करते थे.
साता के दौरान बाहर के लोगों से मेल-जोल, किसी और को बुलाना या उसके घर जाना नहीं होता था. इस दौरान कोई दान नहीं दिया जाता था, यहां तक कि कुत्ते-बिल्ली जैसे जानवरों को भी खाना नहीं दिया जाता था. जिताई से सफल होकर लौटने के बाद पूजा-पाठ और दान-पुण्य जैसे काम होते थे.
ठगी और लूटपाट के लिए हत्याएं भी की जाती थीं। इसके लिए भी कुछ नियम थे। पहला नियम यह था कि क़त्ल में एक बूंद भी खून नहीं बहना चाहिए, दूसरे किसी औरत या बच्चे को किसी हाल में नहीं मारा जाना चाहिए, तीसरे जब तक माल मिलने की उम्मीद न हो, हत्या बिल्कुल नहीं होनी चाहिए.
कैसे होती थी रास्ते पर ठगी:
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जिताई पर निकलने वाले ठगों का गिरोह 20 से 50 तक का होता था. वे आम तौर पर तीन दस्तों में चलते थे, एक पीछे, एक बीच में और एक आगे. इन तीनों दस्तों के बीच तालमेल के लिए हर टोली में एक-दो लोग होते थे जो एक कड़ी का काम करते थे. वे अपनी चाल तेज़ या धीमी करके अलग होते या साथ आ सकते थे. रास्ते में कई बार वो जरूरत के हिसाब से अपना रूप बदलते रहते थे। ठगों के सरदार आमतौर पर पढ़े लिखे इज़्ज़तदार आदमी की तरह दिखने-बोलने वाले लोग होते थे।
आमिर अली के मुताबिक ठगों के काम बंटे हुए थे. ‘सोठा’ गिरोह के सदस्य सबसे समझदार, लोगों को बातों में फंसाने वाले लोग थे जो शिकार की ताक में सरायों के आसपास मंडराते थे. वे आने-जाने वालों की टोह लेते थे, फिर उनके माल-असबाब और हैसियत का अंदाज़ा लगाकर उसे अपने चंगुल में फंसाते थे. शिकार की पहचान करने के बाद कुछ लोग उसके पीछे, कुछ आगे और कुछ सबसे आगे चलते. रास्ते भर धीरे-धीरे करके ठगों की तादाद बढ़ती जाती लेकिन वे ऐसा दिखाते जैसे एक-दूसरे को बिल्कुल भी नहीं जानते. अपने ही लोगों को जत्थे में शामिल होने से रोकने का नाटक करते थे ताकि शक न हो. हड़बड़ी की कोई गुंजाइश नहीं थी.
आखिरी हमला
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सबसे आगे चलने वाले दस्ते में ‘बेल’ यानी कब्र तैयार करने वाले लोग होते थे. उन्हें बीच वाले दस्ते में से कड़ी का काम करने वाला बता देता था कि कितने लोगों के लिए कब्र बनानी है. पीछे वाला दस्ता नज़र रखता था कि कोई ख़तरा उनकी तरफ़ तो नहीं आ रहा. आख़िर में तीनों बहुत पास-पास आ जाते लेकिन इसकी ख़बर शिकार को नहीं होती थी.
कई दिन गुज़र जाने के बाद जब शिकार चौकन्ना नहीं होता था और जगह माकूल होती थी तब गिरोह को कार्रवाई के लिए सतर्क करने के लिए, बातचीत में पहले से तय एक नाम लिया जाता था. यह पहला इशारा था कि अब कार्रवाई होने वाली है. इसके बाद ठगों में सबसे ‘इज्ज़तदार’ लोगों की बारी आती थी जिन्हें ‘भतौट’ या ‘भतौटी’ कहा जाता था. इनका काम बिना खून बहाए रुमाल में सिक्का बांधकर बनाई गई गांठ से शिकार का गला घोंटना होता था. हर एक शिकार के पीछे एक भतौट होता था, पूरा काम एक-साथ दो-तीन मिनट में होता था. इसके लिए मुस्तैद ठग अपने सरगना की ‘झिरनी’ यानी आखिरी इशारे का इंतज़ार करते थे.
इशारा मिलते ही पलक झपकते भतौट शिकार के गले में फंदा डाल देते थे और दो-तीन मिनट में आदमी तड़पकर ठंडा हो जाता था. इसके बाद लाशों से कीमती सामान हटाकर उन्हें पहले से खुदी हुई कब्रों में ‘एक के सिर की तरफ़ दूसरे का पैर’ वाली तरकीब से कब्रों में डाल दिया जाता ताकि कम-से-कम जगह में ज्यादा लाशें आ सकें. इसके बाद जगह को समतल करके उसके ऊपर कांटेदार झाड़ियां जो पहले से तैयार रखी होती थीं, लगा दी जाती थीं ताकि जंगली जानवर कब्र को खोदने की कोशिश न करें. इस तरह पूरा का पूरा चलता-फिरता काफ़िला हमेशा के लिए ग़ायब हो जाता था और ठग भी.
बीबीसी हिन्दी में प्रकाशित राजेश प्रियदर्शी के लेख का अंश साभार प्रकाशित
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