बाबरी की बात

उर्दू, अंग्रेज़ी के अच्छे जानकार हिंदी और संस्कृत से पी.जी. इस पूरे आंदोलन को करीब से जानने समझने वाले और बाबरी मस्जिद के मुद्दई स्व. हाशिम अंसारी के करीब रहने वाले कुछ लोगों में हाजी आफाक साहब भी हैं। बाबरी मस्जिद विवाद पर यूँ तो बात करने के लिए यहाँ काफी कुछ है लेकिन इस पूरे विवाद पर कब किसने क्या किया इसकी काफी दिलचस्प जानकारी इनसे गुफ्तगू के दौरान हुई यह लेख इसी बात चीत पर आधारित है.

अयोध्या मसले पर सुलह की कोशिश में भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. चंद्रशेखर ने सबसे पहले बात-चीत का सिलसिला शुरू किया जो भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. वीपी सिंह तक चला यहाँ इस बात का जिक्र इसलिए ज़रूरी है क्यूंकि यह देश के प्रधानमंत्रियों द्वारा किया जाने वाला प्रयास था इसलिए महत्वपूर्ण भी था लेकिन इसका कोई हल नहीं निकल सका कारण सिर्फ इतना था कि सुलह की सूरत में शर्त एक ही थी कि मुसलमान मस्जिद से अपना दावा छोड़ दें. शंकराचार्य जी, जस्टिस पलोक बासु से होता हुवा यह सिलसिला श्री श्री रवि शंकर तक पहुंचा लेकिन सब में एक ही बात थी कि मुसलमान बाबरी मस्जिद से अपना दावा छोड़ दें.

जबकि होना यह चाहिए था कि दोनों पक्षों को साथ ला कर दोनों के ही धार्मिक स्थलों का निर्माण कराने की बात पर सहमती बनानी चाहिए थी और सांप्रदायिक शक्तियों को मुंह तोड़ जवाब भी देना चाहिए था. लेकिन ऐसा नहीं हुवा बल्कि इसके उलट ऐसा माहौल बनाया गया जिससे देश में लगातार नफरत फैलती गयी.
उस समय से अगर हम देखें तो एक तरफ सुलह की लगातार बात हो रही है वही दूसरी तरफ पूरे देश में मुसलमानों और उनकी इबादतगाहों के खिलाफ घृणा का माहौल भी बनाया जा रहा है जिसमे आये दिन ऐसे बयान दिए जा रहे हैं जिससे मुसलमानों की इबादतगाहों, मकबरों एवं कब्रिस्तानो के लिए लगातार खतरा पैदा होता जा रहा है. आखिर हम कब समझेंगे कि जब सुलह का माहौल ही नहीं होगा तो सुलह की बात कैसे होगी.

एक खास बात जिसको मंदिर की पैरवी करने वालों ने हमेशा नज़रंदाज़ किया वो यह कि देश के मुसलमानों ने कभी नहीं कहा कि वो मंदिर के खिलाफ हैं बल्कि वो तो हमेशा इस बात पर सहमत हैं कि अदालत से जो भी फैसला होगा वो उनको मंज़ूर होगा.

देश का आम मुसलमान यह चाहता हैं कि मंदिर भी बने और मस्जिद की जगह मस्जिद बन जाए जिससे शांति-सदभाव का सन्देश पूरी दुनिया में अयोध्या से जाए. इसमें हर्ज़ भी नहीं है देश में इसकी तमाम मिसाल मौजूद है लेकिन अगर हमारे अन्दर एक दूसरे के प्रति नफरत और घृणा होगी तो हम साथ कैसे खड़े होंगे अगर हम साथ खड़े हो गए तो अयोध्या ही नहीं काशी और मथुरा का भी हल निकाल लेंगे लेकिन अगर हमने हल निकाल लिया तो फिर इस देश के तमाम सियासी दल किस मुद्दे पर चुनाव लड़ेंगे क्यूंकि पूरे देश में धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषाई झगडा खड़ा करके तो ये चुनाव जीतते आये हैं.

अभी हाल ही में कांग्रेस पार्टी के बड़े नेता सीपी जोशी का बयान आया है कि ताला कांग्रेस के समय लगा और उनके ही प्रधानमंत्री ने ताला खुलवाया और कांग्रेस का प्रधानमंत्री ही मंदिर निर्माण करा सकता है यही बात राजबब्बर ने भी कही हमें यहाँ यह समझना होगा कि सियासी दलों के लिए मंदिर मुद्दा सिर्फ सरकार बनाने का जरिया है न कि आस्था की बात है. बात सिर्फ कांग्रेस की ही नहीं बल्कि बीजेपी जो मंदिर आन्दोलन पर ही टिकी पार्टी है उसने देश में इसी मुद्दे पर 4 बार सरकार बनायीं और 2014 में प्रचंड बहुमत से केंद्र की सत्ता में काबिज़ हुई फिर राम मंदिर के नाम पर ही उत्तर प्रदेश में सत्ता में यह बोल कर आयी कि प्रदेश में सरकार होगी तो हम संसद में अध्यादेश ला कर मंदिर निर्माण करा लेंगे लेकिन पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद वो लगातार इससे कन्नी काट रही है और उसके ज़िम्मेदार नेता लगातार बयान दे रहे हैं कि हम मंदिर के लिए अध्यादेश नहीं ला सकते जबकि उनके ही कुछ सांसद, विधायक आज भी आम भारतियों को गुमराह करने पर तुले हुए हैं कि मुसलमानों की वजह से मंदिर निर्माण नहीं हो रहा है.

जबकि हकीकत यह है कि इस पूरे मामले में मुसलमान ही विक्टिम है और उसको ही अपराधी की तरह नेता और मीडिया पेश करते रहे हैं. एक तरफ तो मस्जिद को तत्कालीन सरकार और दक्षिणपंथी संगठनों के कार्यकर्ताओं की भीड़ के माध्यम से तोड़ा गया वही दूसरी तरफ अयोध्या में 17 मुस्लिमो की हत्या भी की गई लेकिन इन दोनों ही अपराधिक मामलों में आज तक न्याय नहीं हो पाया और न ही किसी को सजा हुई अगर सजा भी हुई तो सिर्फ एक दिन की उस समय के तत्कालीन मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह को जो मौजूदा समय में राजस्थान और हिमांचल प्रदेश के राज्यपाल हैं.

इस पूरे विवाद में अब खेल खुल गया है जहाँ पहले इस मुद्दे पर कांग्रेस,भाजपा सहित उत्तर प्रदेश के ही सियासी दल हाथ आजमाते थे वही महाराष्ट्र में उत्तर भारतियों के खिलाफ नफरत और घृणा फैलाने वाली पार्टी शिवसेना ने इस मुद्दे पर अयोध्या कूच कर दिया और उद्धव ठाकरे भाजपा को मंदिर मुद्दे पर लगातार कटघरे में खड़ा करते रहे उन्होंने इसके लिए एक नारा “हर हिन्दू की यही पुकार पहले मंदिर फिर सरकार” दिया जिसका असर 25 नवम्बर की धर्मसभा में भी देखने को मिला और भीड़ में कुछ राम भक्त भाजपा, विहिप और संतो तक से बहस करते हुए टीवी पर दिखाई दिए. शिवसेना मंदिर आन्दोलन से शुरू से जुडी रही है और भाजपा गठबंधन में हिस्सेदार भी है. इस पूरे मामले को करीब से समझने की ज़रूरत है कि क्यों शिवसेना राम मंदिर मुद्दे को भाजपा से छीनना चाहती है और अयोध्या में ही भाजपा को घेर कर उसकी हिंदुत्व की छवि को तार तार करने की कोशिश उद्धव ठाकरे द्वारा की गयी. 24-25 नवम्बर को जो हुवा उससे एक बात तो साफ़ है कि यह मुद्दा अब भाजपा की झोली से निकल चुका है शिवसेना और कांग्रेस दोनों इस मुद्दे को अब हथियाना चाहते हैं.

हमें यह भी जानना होगा कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने जब राम चरित्र मानस काशी में बैठ कर अवधी में लिखा तो उस समय अकबर का शासन था उन्होंने न ही बाबर का ज़िक्र किया और नहीं ही मंदिर तोड़े जाने के विषय में ही कुछ लिखा अगर ऐसा कुछ होता तो ज़रूर तुलसीदास जी अपनी रचना के माध्यम से इसका उल्लेख करते. लेकिन गोसाईं जी ने ऐसा नहीं किया और भी बहुत से उधाहरण है जिनसे हम यह समझ सकते हैं कि यह मुद्दा सिर्फ सियासी है और सियासी फ़ायदे के लिए लोगों को आपस में लड़ाया जा रहा है.

इस पूरे मामले में इन्साफ का सवाल आज तक बना हुवा है और इस घटना के साजिशकर्ता और अपराधियों का महिमा मंडन मीडिया जब तब करती ही रहती है साथ ही देश की राजनीती में ऐसे लोगों का कद आसमान छु रहा है. लेकिन देश का युवा आज भी बेहतर शिक्षा और रोज़गार की तलाश में लगातार पलायन कर रहा है उसका भविष्य अंधकारमय है और चूँकि सत्ता शासन नहीं चाहते कि देश की आम जनता अपने हक़ हुकूक के लिए लडे इसलिए वो धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा को हथियार बना कर जनता को आपस में लड़ाते रहते हैं.

अब समय आ गया है जब हम देश के लिए कुछ बेहतर करने का फैसला ले और संविधान विरोधी और सांप्रदायिक ताकतों को पूरी तरह से ऐसे नकारे जैसे जर्मनी में हिटलर के बाद नाजीवाद को आम जर्मन नागरिकों ने ‘नेवर अगेन’ मतलब ‘अब फिर नहीं’ के नारे के साथ ज़मिदोज़ कर दिया और अपने देश की मूल समस्याओं को हल करने की तरफ अपनी उर्जा लगा दी.
गुफरान सिद्दीकी

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