संभव है क्या विचार की हत्या?

पत्रकार गौरी हत्याकांड का कारण विचारधारा है या कानून व्यवस्था? हत्या की वारदात से फैली सनसनी के बाद यह बहस शुरू हुई. शुरुआत विचारधारा से हुई. विचारधारा की बात खारिज करने के लिए कानून व्यवस्था की बात रखी गई. अब अगर हत्या के कारणों की पड़ताल के लिए अपराधशास्त्रीय नज़रिए से सोचना हो तो वह रिपोर्ट कैसी होगी?

न्यायालिक विज्ञान क्या सोचता है?
गौरी की हत्या के पीछे क्या चोरी, लूट या डकैती का मकसद दिखता है? अब तक के परिस्थिति जन्य साक्ष्यों में ऐसी कोई बात नज़र नहीं आती. रंजिश के लिहाज़ से देखें तो कुछ अंदेशे जरूर जताए जा सकते हैं. लेकिन ये रंजिश रुपए पैसे या ज़मीन जा़यदाद को लेकर हो इसका भी कोई संकेत अभी तक नहीं मिला. इस हत्याकांड से जो लोग चिंतित हैं वे बार-बार यही कह रहे हैं कि गौरी एक पत्रकार थीं और उनकी पत्रकारिता से कुछ लोग नाराज़ थे. एक तथ्य यह है कि गौरी पर दबिश के लिए उन पर अदालत में मानहानि का एक मुकदमा भी किया गया था. लेकिन अड़चन ये है कि लिखने पढ़ने से भी हत्याओं की नौबत आ सकती है इसे अदालतों में साबित करना ज़रा मुश्किल काम होता है. कम से कम कानूनी प्रक्रियाओं के तहत विचारधारा को हत्या का कारण साबित कर पाना और भी मुश्किल हो जाता है. सिर्फ एक सूरत है कि हत्यारे आकर खुद ही कबूल कर लें कि दूसरे की विचारधारा उसे इतनी नापसंद आई कि उसने हत्या कर दी. फिलहाल यह संकेत भी नहीं मिल रहा है कि कोई इस हत्या की जिम्मेदारी लेने को तैयार होगा. ज़ाहिर तौर पर हत्याकांड से कम चिंतित लोग मामले को कानून व्यवस्था का साधारण मामला मानते हुए इसे सिर्फ दुखद घटना बता रहे हैं और मौखिक दुख जताकर अपनी नैतिकता का निर्वाह कर रहे हैं. वैसे इस मामले का आगा देखते हुए बहुत सी बातें कही जा सकती हैं लेकिन हत्याकांड के मकसद को लेकर इससे ज्य़ादा बात कम से कम फिलहाल तो नहीं की जा सकती. इसलिए और भी नहीं क्योंकि मकसद कुछ भी निकले लेकिन पत्रकार के घर में घुसकर सात गोलियां दाग कर उनकी हत्या तो हुई है सो एक मुकदमा बन गया है. लिहाज़ा न्यायिक व्यवस्था के हवाले से ऐसे मामलो में ज्यादा दखल ठीक नहीं माना जाता.

इस कांड का दार्शनिक पहलू
विचारधाराओं के बीच खूनखराबा नई बात नहीं. इतिहास भरा पड़ा है. अपनी विचारधारा के बहाने ही तमाम भयानक, वीभत्स और घिनौनेे युद्ध मानव ने देखे हैं. लेकिन विचारधाराओं के बीच अघोषित युद्ध या छù युद्ध एक नई प्रवृत्ति है. इन युद्धों के अघोषित होने के पीछे का दर्शन गौरतलब है. कौन नहीं समझता कि प्रत्यक्ष युद्ध से वही डरता है जो अपनी नैतिकता सिद्ध करने में खुद को असमर्थ पाता है. इसीलिए दुनिया में आजकल वैचारिक युद्धों का चलन ही कम होता जा रहा है. इस लिहाज़ से गौरी हत्याकांड को देखें तो इस युद्ध में सिर्फ गौरी को मार डालने का ही मकसद नहीं दिखता. इस हत्या के ज़रिए यह संदेश भी हो सकता है कि बाकी सब भी डरिए. अपराधशास्त्र की भाषा में इसे डेटरेंट यानी प्रतिरोधात्मक उपाय कहते हैं. पहले रूप् को स्फैसिफिक डेटरेंस और दूसरे को जनरल डेटरेंस कहते हैं. गौरी हत्याकांड में अपराधियों ने एक पत्रकार को जो सजा़ दी है वह उन्हें सबक सिखाने की बजाए दूसरों को डराने या सबक सिखाने के मकसद से ज्यादा लगती है. सो यह मामला सामान्य प्रतिरोध का ज्यादा दिखता है.

हत्याकांड टीवी डिबेट में
कांड गंभीर प्रकृति का है. लिहाज़ा इसमें रोचकता की बात करना निहायत ही अगंभीर बात होगी. लेकिन इस कांड को लेकर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर ज्यादातर डिबेट भौंचक करने वाली दिखीं. मामला कर्णाटक का था लेकिन इन डिबेटों में नेता और विशेषज्ञ केंद्रीय स्तर की राजनीति के थे. एक वर्ग ने इस कांड को कानून व्यवस्था का मामला साबित करने में एड़ी से चोटी का दम लगा दिया. उन्हें बार बार यह दोहराते रहना पड़ा कि इस मामले में कर्णाटक की कांग्रेस सरकार जिम्मेदार है कि वह ये अपराध क्यों नहीं रोक पाई. कानून व्यवस्था का मामला बताते हुए उन्होंने आरोप लगााया कि कांग्रेस शासित प्रदेश की लोकल इंटेलिजेंस यानी खुफिया विभाग क्या करता रहा. यहां अनुमान लगाने की ज़रूरत नहीं कि अगर जहां भाजपा की सरकारें होती हैं वहां यही लोग क्या कह रहे होते हैं. हाल के तमाम मामले हमारे सामने हैं जहां सरकार ने अपनी न्यूनतम जिम्मेदारी को कबूलने की बजाए क्या क्या तर्क नही दिए.

विचारधारा की हत्या की बात
कानून और व्यवस्था बनाम विचारधारा की बहस तो शुरू हो ही गई है. इसी बीच गौरी की हत्या को एक विचार की हत्या की भी कहा गया. वैसे यह बात कुछ तथ्य परक नहीं लगती. क्योंकि सिर्फ विचार ही तो है जिसे अमर और अजर कहा गया है. वाकई ऐसा कोई विचार नहीं जन्मा जिसे मार देने में मानव को सफलता मिली हो. हां उसे मारने की नाकाम कोशिश जरूर होती रही. ज्ञात इतिहास की हर सहस्राब्दी में हर सदी में ये कोशिशें हमारे अभिलेखागारों में दर्ज़ हैं. बात यहीं तक नहीं कि विचार की हत्या नहीं हो सकती बल्कि मानव के अदभुत गुण विचार का एक लक्षण यह भी है कि उसे जितना मिटाने की कोशिश की जाए वह उससे ज्यादा उभर उठता है.

इस तरह से देखें तो प्राकृतिक नियम के मुताबिक गौरी की हत्या उनके विचारों को और ज्यादा प्रसारित होने का कारण भी बन रही है. इसीलिए ऐसे व्यक्तियों को हम अपने समाज में श्रद्धा के साथ शहादत की श्रेणी में रखते हैं. बुधवार को प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में जितने भावपूर्ण तरीके से पत्रकारों और जागरूक समाज ने गौरी को श्रद्धांजलि दी और इस कांड का आगा पीछा देखा उससे तो यह बात और भी पुख्ता हो गई कि विचार की हत्या नहीं हो सकती.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं…
साभारः एनडीटीवी इंडिया

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