छद्म राष्ट्रवाद की उग्रता

रोहित चक्रवर्ती वेमुला उर्फ रोहित नाम का 26 साल का युवा फाँसी के फंदे पर झुलकर जान दे देता है, यह ऐसे भारत देश की घटना है जहां की 65 फीसदी आबादी 35-40 साल से कम की है. रोहित की मौत फिलहाल आत्महत्या है या फिर उसकाकर फांसी पर लटकने को बाध्य किया गया- ये एक सवाल बना हुआ है. एक युवा की मौत पर राजनीति कोई पहली बार नहीं है लेकिन दो धाराओं में चल रही बहस देश की सामाजिक पृष्ठभूमि को जानने- समझने के लिये काफी है. एक सवर्णवादी धारा रोहित को कायर, बुजदिल, अतिवादी, देशद्रोही और आरोपी करार दे रही है तो दूसरी बहुजनवादी धारा उसे क्रांतिकारी, दलित नायक, शहीद और सामाजिक न्याय का नायक और पीड़ित बता रहा है. इस सबके बीच यह सवाल उभरता है कि रोहित का अपराध क्या था और जो भी अपराध था क्या उसकी सजा मौत है? 30 जनवरी, 2016 को रोहित की जिन्दगी के 27 साल पूरे होते लेकिन उससे पहले ही वो दुनिया को अलविदा कह चुका था.

भारत सरकार के श्रममंत्री बंडारू दत्तात्रेय के लिखे पत्र और मानव संसाधन मंत्री स्मृति इरानी के अग्रसारित पत्र के अनुसार रोहित एक अतिवादी, जातिवादी और राष्ट्रद्रोही शख्स था. अब इन आरोपों का विश्लेषण कर लेते हैं. अतिवादी होना एक स्वभाव एवं विचारधारा से जुड़ी बात है तो जाति इस भारत भूमि पर पैदाइश से जुड़ी एक बड़ी कड़वी सामाजिक हकीकत है. जहाँ तक अतिवाद की बात है तो सत्तातंत्र के इशारे पर निर्दोषों को नक्सली बताकर एनकाउंटर करने या फिर जेल में मार डालने की भी लम्बी फेहरिश्त है. यूं इस देश में कट्टर अतिवादी होने के नाम पर हिन्दू हो या मुसलमान किसी को भी अकारण या बिना अपराध ही सजा दिये जाने के कारण नहीं बनते हैं. पर जिस देश में समाज की मूल अवधारणा ही जाति पर बनी हो, किसी को जातिवादी करार देना कोई बड़ी बात नहीं है. रोहित अगर दलित या पिछड़ा होते हुये जातिवादी था तो उसके विरोध में खड़ी पूरी जमात कोई सामाजिक क्रांति के अग्रदूतों की नहीं बल्कि स्वाभाविक तौर पर सवर्ण- सामंती, मनुवादी- ब्राह्मणवादी और जातिवादी ही दिखाई देती है. याकूब मेमन- अफजल गुरू के समर्थन में या फाँसी की सजा के प्रावधान के खिलाफ लोकतांत्रिक तरीके से पक्ष रखना अगर अपराध है तो देश में संविधान, कानून, पुलिस- प्रशासन भी है. फिर याकूब मेमन या अफजल गुरू का जिसने मुकदमा लड़ा हो तो उन सबको फांसी पर लटका दिया जाना चाहिये. जहां तक बात है कि देशभक्त कौन है और देशद्रोही कौन? तो इसका फैसला कौन करेगा यह एक बड़ा सवाल बनकर उभरा है.

जेएनयू में जिस तरह की स्थिति बनाई गई, दिल्ली के पटियाला कोर्ट में जिस तरह वकीलों ने सारी मर्यादा छोड़कर हिंसा की और पुलिस ने जिस तरह बेशर्मी से आंखे मूंदे रखी, उसने केंद्र सरकार पर सवालिया निशान लगा दिया है. क्योंकि ऐसी निरंकुश हिंसा तभी संभव है जब उसे शासक का समर्थन हासिल हो. किसी विश्वविद्यालय में पुलिस का प्रवेश करना और वहां हॉस्टलों में घुसकर छात्रों को डराना धमकाना विश्वविद्यालय के लिए शर्म की बात होती है. जेएनयू से यह भी खबर आई कि उसके मुख्य गेट पर बजरंग दल और भगवा संगठनों के लोगों ने डेरा डाल रखा था जो छात्रों से जबरन देशभक्ति के नारे लगवा रहे थे. देशभक्ति के नारों में कोई गलत बात नहीं है लेकिन जब एक खास समय में लोगों को इन सबके लिए मजबूर किया जाए तो फिर यह समझा जा सकता है कि सत्ता में बैठे लोग देश को किधर ले जाना चाहते हैं. सवाल उठता है कि क्या संघ- बीजेपी, भारत सरकार के मंत्री, विश्वविद्यालय का वीसी या एवीबीपी के कार्यकर्ता राह चलते सड़क पर लोगों के देशभक्ति की जांच करेंगे और देशभक्ति का प्रमाण-पत्र बाटेंगे जैसा की चेन्नई, हैदराबाद, दिल्ली में हुआ है और देश के विभिन्न कोने में हो रहा है.

रोहित पर लगे आरोप उसके विरोधियों के राजनीतिक बचाव के लिये मायने जरूर रखते होंगे लेकिन अब जबकि वो दुनिया में नहीं है उसके परिवार एवं समर्थकों के लिये यह जानना महत्वपूर्ण है कि उसकी हत्या किस परिस्थिति में हुई. यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है क्योंकि रोहित के शव का पोस्टमार्टम नहीं किया गया. इसकी उच्चस्तरीय जांच होनी चाहिये लेकिन निष्पक्ष जांच कैसे संभव होगी यह भी एक सवाल है, क्योंकि इसमें केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार के दो मंत्री स्पष्ट तौर पर और तकनीकी रूप से घटना के केन्द्र में शामिल हैं. भारत की मानव संसाधन विकास मंत्री (शिक्षा मंत्री) स्मृति जुबीन इरानी और श्रममंत्री बंडारू दत्तात्रेय हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में पिछले 5-6 महीने में हुई तमाम गतिविधियों से रू-ब-रू रहे हैं और निर्देशित भी करते रहे हैं. इस घटना में बंडारू के स्मृति इरानी को लिखे गये एक गंभीर पत्र जिसमें विश्वविद्यालय को ‘अतिवादी- जातिवादी- राष्ट्रद्रोही राजनीति का गढ़’  एवं कुलपति को मूकदर्शक घोषित करते हुये सख्त कार्रवाई करने को कहा और फिर इसी को आधार बनाकर स्मृति इरानी ने विश्वविद्यालय प्रशासन को -वीआईपी- नोटिंग कर 5 पत्र लिखे जो साबित करते हैं कि एक बड़े स्तर का राजनीतिक दबाव हस्तक्षेप ही नहीं बल्कि इस पूरे मामले को निर्देशित किया जा रहा था. केन्द्रीय मंत्रियों बंडारू एवं स्मृति के बढ़ते दबाव ने नि:संदेह कुलपति को दलित छात्रों के खिलाफ कार्रवायी को बाध्य कर दिया. अपनी मृत्यु के पूर्व रोहित ने एक पत्र छोड़ा था, जिसकी चर्चा आम है लेकिन इसके एक महीने पूर्व दिसम्बर में उसने कुलपति को लिखे अपने पत्र में न्याय न दिये जाने की स्थिति में जहर या फाँसी का फंदा देने की अपील की थी. इस पत्र में उसने खुद को ‘दलित आत्मसम्मान मुहिम’ का सदस्य बताते हुये अपनी तरह के छात्र जो विश्वविद्यालय परिसर में लगतार चल रहे आम उत्पीड़न के माहौल से परेशान है मुक्ति की नींद सुला देने की गुजारिश की थी. इस तरह के पत्र किसी जोश या होश खोकर लिखा गया नहीं है बल्कि भाषा- शैली के लिहाज से बेहद संवेदनशील है. जो विश्वविद्यालय परिसर के सवर्ण- सामंती- मनुवादी चरित्र को उजागर करते हैं और जिसे बहुजन विरोधी समूह अमूमन राष्ट्रभक्ति का जामा पहनाकर प्रचारित करते हैं.

इस घटना के पीछे आखिर क्या था जिसने रोहित की जिन्दगी तबाह की. रोहित अम्बेडकर स्टुडेन्ट एसोसिएशन नामक संगठन के उन पांच छात्रों में शामिल था जिन्हे एबीवीपी कार्यकर्ता की पिटाई के मामले में विश्वविद्यालय से सस्पेंड किया गया था. इस संबंध में विश्वविद्यालय के द्वारा गठित विशेष जाँच समिति ने रोहित को आरोप मुक्त कर दिया गया था. इसके बाद एबीवीपी कार्यकर्ताओं ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर बंडारू दत्तात्रेय को अपने पक्ष में खड़ा किया. फिर बंडारू ने स्मृति और स्मृति ने विश्वविद्यालय के कुलपति को पत्र लिखकर हड़काया. इसके बाद विश्वविद्यालय प्रशासन ने पूरे चार महीने के उपरांत मामले में अपने ही फैसले पर पुनर्विचार किया और संबंधित दलित छात्रों को हॉस्टल, कैन्टीन, कैफेटेरिया सहित कैम्पस बहिष्कृत कर दिया. जब ये छात्र बाहर निकाले जा रहे थे तो पूरा एबीवीपी संगठन अपनी जीत का जश्न मनाते हुये तालियां बजाकर उन्हें चिढ़ा रहा था. समाजशास्त्र में सोशल एक्सक्लूजन पर इनदिनों विभाग खोले जा रहे हैं ऐसे में विश्वविद्यालय से इन छात्रों को सिर्फ निकाला नहीं गया था बल्कि उन्हें सामाजिक समूह (जातिवादी मानसिकता के तहत) के तौर पर बहिष्कृत किया गया था जिस अवधारणा को हर संवेदनशील व्यक्ति समझ सकता है. रोहित पर कार्रवाई में जिस एबीवीपी कार्यकर्ता संदीप को पीटने का आरोप था उसके बारे में यह बात साफ हो गई हैं कि घटना के दो दिनों के बाद उसके एपेन्डिक्स का ऑपरेशन हुआ जिसें यह रहस्य खुलने तक संगीन मामला बनाकर आरोपी छात्रों के खिलाफ पेश किया गया था. पूरा घटनाक्रम बताता है कि किस तरह संघ-बीजेपी-एवीबीपी के लोगों के आत्माभिमान को संतुष्ट करने के लिये दो केन्द्रीय मंत्रियों ने कुलपति को दबाव डालकर दलित छात्रों को प्रताड़ना का शिकार बनाया जिसने एक छात्र की जान ले ली.

इस घटना में दोनों पक्षों (सरकार और विश्वविद्यालय) का संवेदनशील पक्ष अभी तक सामने नहीं आया है. इसे खबर के तौर पर देखने का दृष्टिकोण भी स्पष्ट तौर पर सार्वजनिक हुआ जब कई मीडिया चैनलों के एंकर- पत्रकारों की फौज अपने जातिगत कुंठा को राष्ट्रवाद का चोंगा पहना कर प्रकट करते रहे और रोहित की ऐसी- तैसी करते रहे. खास बात यह भी रही की बंडारू दत्तात्रेय पिछड़ी यादव जाति से आते हैं (जिसे बीजेपी अपने पक्ष में प्रचारित करवा रही है) बावजूद पिछड़ी जाति के लोगों की संवेदना रोहित के साथ थी और लोग अपना विचार बदलने को तैयार नहीं थे. इससे एक बात तो साफ है कि सामाजिक पृष्ठभूमि की बुनियाद पर राजनीति और बौद्धिक- वैचारिक गोलबंदी पहले एकतरफा या कुछ जाति समूह तक थी जो इस प्रकार की संवेदनशील घटनाओं में टूटती हुई दिखती है. समय के अंतराल के साथ सोशल मीडिया भी ‘जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का एहसास और आगाज करने लगा है. सोशल मीडिया ने जो दबाव बनाया उसी की बदौलत देशभर की प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया को तकलीफ के साथ ही सही इस खबर को भरपूर जगह देनी पड़ी.

जब चेन्नई के पेरियार स्टडी सर्किल पर प्रतिबंध का मामला था तो भी केन्द्र सरकार का हस्तक्षेप था और अब यह दूसरा मामला है जहां केन्द्र के मंत्री अपने पार्टी के छात्र संगठन को संरक्षण प्रदान करने सामने आए हैं. दोनों जगह मामला दलित समाज से जुड़ा है लिहाजा ये साफ है कि भारत भर के शिक्षण संस्थान खासकर उच्च शिक्षातंत्र जो पिछले 67 सालों में सवर्ण मठाधीशी के केन्द्र के रूप में स्थापित हुये है उसे अब संघ के निर्देशन में राष्ट्रवाद का मुखौटा लगाकर पूर्णत: मनुवादी- ब्राह्मणवादी संस्थान के तौर पर तब्दील किये जाने का काम शुरू हो गया है. ऐसे में दलित- पिछड़े- पसमांदा समाज के शिक्षकों- छात्रों की प्रताड़ना के मामले खुलकर सामने आने अब शुरू हो गये हैं. देश के सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में 95 प्रतिशत उच्च जाति के कुलपति हैं और इनमें फैकल्टी के स्तर पर दलित- पिछड़ों की नियुक्तियों को जिस तरह से खिलवाड़ कर बाधित किया जा रहा है वह जग जाहिर है. हाल ही में देश के कई विश्वविद्यालयों- संस्थानों में नियुक्तियों में अनियमितता का हवाला देकर दलित- पिछड़े शिक्षकों की नौकरी खत्म कर दी गई. एम्स, आईआईटी सहित देशभर के उच्च शिक्षण संस्थानों में छात्रों की प्रताड़ना बदस्तूर जारी है. प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक में कुछ समय के अंतराल पर जब दलित- पिछड़ों की एक बड़ी खेप तैयार हो जाती है तो नियम बदल दिये जाते हैं ताकि वंचितों को नौकरी से रोका जा सके. 85 फीसदी की आबादी का जो हवाला सड़कों पर दिया जाता है उसका दलित-पिछड़े समाज को इतना ही लाभ है की देह लेकर लोग विधानसभा-लोकसभा पहुंच जा रहे हैं जिसकी ताकत को खारिज करने के लिये जुडिशियरी, ब्यूरोक्रेसी, मीडिया में बैठे सवर्ण सामंती मठाधीश एकजुट हो चुके हैं.

फिलहाल रोहित के बहाने हैदराबाद की राजनीति का भी एक उलझा हुआ सूत्र कुछ खुला है. ओवैसी के गढ़ में बीजेपी की मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक राजनीति को खाद आसानी से मिल रही थी. जाहिर सी बात है कि यहां का हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय इस राजनीति के दबाव एवं प्रभाव से अछूता नहीं है. लेकिन सामाजिक तौर पर यह बड़ी बात थी कि हिन्दू- मुस्लिम गोलबंदी से अलग दलित समूह/ संगठन राजनीति की जड़ता को तोड़ते हुये चर्चा बनकर उभरे थे. अब इस बेचैनी ने विश्वविद्यालय स्तर के छोटे से मामले में केन्द्र के कद्दावर मंत्रियों को हस्तक्षेप कर दबाव बनाने के लिये मजबूर किया. लेकिन रोहित के बहाने जो देश में भावना उभरी और चर्चा हुई है उसका संदेश महत्वपूर्ण एवं व्यापक भी है. संदेश यह है कि- राजनीति में दलित, पिछड़े, अति-पिछड़े, पसमांदा, मुसलमान नेताओं और उनकी पार्टियों के राजनीतिक हित भले ही अलग हों लेकिन सत्ता तंत्र के सभी केन्द्रों पर 85 फीसदी आवाम की भागीदारी की लड़ाई मिलकर लड़नी होगी अन्यथा ये समूह निपटा दिये जायेंगे. इसी बीच कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी हैदराबाद पहुंचकर संवेदना जता रहे थे. उन्हें यह पता होना चाहिये कि अर्जुन सिंह के शिक्षामंत्री दौर के कार्यकाल को छोड़कर भारत भर के उच्च शिक्षण संस्थान का ब्राह्मणवादी चरित्र तैयार करने में उनकी कांग्रेसी सरकार अव्वल रही है. यूपीए सरकार के दौरान भी दलित- पिछड़े छात्रों ने आत्महत्या की थी पर उस वक्त सारे कांग्रेसियों ने मौन साध रखा था. जाहिर है कि कांग्रेस के नेतृत्व में भारतीय शिक्षा व्यवस्था में सामाजिक भागीदारी को दरकिनार कर जातिवाद को मजबूत किया गया था. उसपर अब बीजेपी-संघ राष्ट्रवाद का मुखौटा लगा सांप्रदायिकता की पृष्ठभूमि तैयार करना चाह रही है. यह हाल में देशभर के सभी संस्थानों में की गई तमाम नियुक्तियों के अध्ययन से भी जगजाहिर होता है. स्पष्ट है कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही सामाजिक न्याय और भागीदारी के सवाल पर एक ही सिक्के के दो पहलू है. यही कारण है कि मोहन भागवत के आरक्षण विरोधी बयान को कांग्रेस के दो ब्राह्मण पुत्रों- मनीष तिवारी और जितीन प्रसाद ने सबसे पहले खुलकर समर्थन किया था.

अब जातिवादी कहकर दलित- पिछड़े- पसमांदा समूहों में चल रहे वैचारिक- बौद्धिक विमर्श और राजनीतिक गोलबंदी को खारिज करना इतना आसान नहीं है. कुछ उदाहरण भी याद से दुहरा लेने चाहिये. बिहार में 80-90 के दो दशकों तक एक प्राइवेट जातिवादी सैन्य संगठन रणवीर सेना ने नरसंहारो के माध्यम से कोहराम मचाया था. इस संगठन का नेतृत्व करने वाले अपराधी ब्रह्मेश्वर की हत्या उसी की जाति के दूसरे गुंडों ने कर दिया तो इसकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया के तौर पर आरा के दलित हॉस्टल पर हमला कर दिया गया था. फिर इसी जाति के डीजीपी के संरक्षण में 50-60 किलोमीटर लम्बी शवयात्रा निकाल कर एक गुन्डे को नायक बनाने की कोशिश की गई, अब तो उसका सलाना शहादत दिवस मनाया जाता है जिसमें भूमिहार समाज के सभी क्षेत्रों के सारे लोग शिरकत कर गर्व महसूस करते हैं. राजपूत जाति का एक नेता आनंद मोहन एक दूसरे जाति के दबंग गुन्डे छोटन शुक्ला की हत्या के विरोध में जुलूस निकालता है जिसमें एक दलित जिलाधिकारी जी. कृष्णैया की दिन- दहाड़े नृशंस हत्या कर दी जाती है. इस घटना के मुख्य आरोपी को उसके समाज के लोग राज्यभर में नायक बताकर उसके लिये हस्ताक्षर अभियान चलाते हैं. देवेन्द्र दूबे नाम के दबंग गुन्डे के खिलाफ बनिया समाज का बृज बिहारी प्रसाद नायक बनता है.

अपने खिलाफ ज्यादती का विरोध कर बदला लेकर फूलन विद्रोहिणी नायिका बनती है. फिर हरियाणा के भगाना की बेटियाँ, बिहार में खगड़िया के शिरोमणि टोला की औरतें- इनके साथ इसी भारत में सामुहिक बलात्कार होता है. दलित- पिछड़े समाज पर ब्राह्मणवादी समाज के द्वारा प्रताड़ना की इतनी लम्बी फेहरिश्त है कि तमाम वेद-पुराण-रामायण-महाभारत के पन्ने कम पड़ जायेंगे. सामाजिक संघर्ष व द्वंद्व के इतिहास में मनुवादी-ब्राह्मणवादी समाज के द्वारा खड़े किये गये छद्म- मिथकों के नायक के मुकाबले बहुजन (दलित- पिछड़ा- पसमांदा) समाज का हर नायक क्रांतिकारी प्रतिरोध की धारा का वाहक रहा है. उच्च जाति के सामंत- अत्याचारी- गुंडों को नायक के तौर पर स्थापित करने के अनगिनत उदाहरणों के बीच सवर्णों की नजर में राष्ट्रद्रोही घोषित किया गया बहुजन समाज का बेटा रोहित नि:संदेह प्रतिरोध की धारा का एक नायक है- कम से कम अपने 85 फीसदी समाज के लिये तो जरूर ही है.

इसी बीच यह भी खबर पेश की जा रही है कि रोहित दलित नहीं पिछड़ा है जो पत्थर तोड़ने वाले समाज से आता है तो क्या फर्क पड़ता है पिछड़ी जाति से है या फिर एक साथी ने बताया कि माँ दलित जाति से है और पिता पिछड़ी जाति से है तो भी क्या कहना चाहते है विरोधी. माँ- बाप ने एक होनहार क्रांतिकारी मिजाज बेटा खोया और शोषित (दलित या पिछड़ा) समाज के अपना एक नेतृत्वकर्ता युवा खो दिया. जाहिर है कि देश ने कुछ भी नहीं खोया होगा क्योंकि इनदिनों देश की ठेकेदारी कर रही पार्टी के रहनुमाओं और उनके गुर्गों की परिभाषा के दायरे में रोहित देश विरोधी था जिसकी परिणति वे मौत मानते हैं.

इसी संदर्भ में यह बात जोड़ना दिलचस्प है कि कालांतर में जामिया, अलीगढ़ के विश्वविद्यालयों को भी संघ-बीजेपी के लोग आतंक का गढ़ बताते रहे हैं. उसी तरह केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद से ही देशभर से उच्च शिक्षण संस्थानों में संघ- बीजेपी का गढ़ स्थापित करने के लगातार प्रयास जारी हैं. पुणे, चेन्नई, हैदराबाद होते हुये अब दिल्ली पहुंची संघ- बीजेपी की साजिश ने अब जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय को निशाना बनाया है जहां हाल ही में एक घटना को अंजाम और तूल देकर जिस प्रकार से एक प्रतिष्ठित संस्थान की अंतरराष्ट्रीय छवि को धुमिल करने का प्रयास किया गया है वह शर्मनाक है. जेएनयू की घटना के बाद आरजेडी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री लालू प्रसाद का यह बयान बिलकुल सटीक बैठता है कि, “दलित/पिछड़ा समाज पूछता है कि क्या केन्द्र सरकार ने ‘JNU में देशद्रोह’ की खोज रोहित वेमुला की आत्महत्या से उपजे आक्रोश को ढंकने के लिये किया है.” रोहित की मौत से उभरे राष्ट्रव्यापी बहुजनवादी जनाक्रोश के बाद देश के गिने- चुने प्रगतिशील संस्थानों की छवि धुल- घुसरित करने पर जिस तरह राष्ट्रवाद का चोंगा पहन मनुवादी- ब्राह्मणवादी भगवा ब्रिगेड जुट गयी है जाहिर है कि देश में संविधान, लोकतंत्र, विचार की मर्यादा को खत्म करने की बहुत बड़ी साजिश नजर आती है. केन्द्र में मोदी सरकार के आने के बाद विवादों के कारण चर्चित हुये ये सभी वही संस्थान हैं जहां पर पढ़ने- पढ़ाने वाले दलित- पिछड़े- पसमांदा समाज के बड़े विचारक इनदिनों देश- दुनिया में सुर्खियां बटोर रहे हैं और इन संस्थानों को ध्वस्त कर बीजेपी- संघ पूरे देश में चल रही प्रगतिशील- आलोचनात्मक बौद्धिक- वैचारिक विमर्श को खत्म करना चाहती है.

कभी भगवाधारियों के आदर्श सावरकर भी राष्ट्रनिर्माता डॉ. अम्बेडकर को राष्ट्रविरोधी मानते थे तो सावरकर के सवर्ण- मनुवादी- ब्राह्मवादी भगवाधारी पौत्र इनदिनों अम्बेडकर के सामाजिक न्याय और भागीदारी की लड़ाई लड़ने वाले बहुजनवादी पौत्रों को राष्ट्रविरोधी घोषित करने में लगे हैं. अब अंतत: पूरे घटनाक्रम को इस नजरिये से देखना इसलिये भी जरूरी है कि भारत के इतिहास में इनदिनों पहली बार एक तथाकथित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संचालित राष्ट्रवादी सरकार बनी है जिसकी कमान ‘56 इंच’ सीने वाले नरेन्द्र मोदी के हाथ में है. संघ और बीजेपी के लोगों ने प्रत्यक्ष ऐलान कर रखा है कि वह भारत के मुसलमानों को पाकिस्तान भेज देगा जिसकी आहट उसके गुर्गों की जबानी गाहे- बगाहे सुनाई भी देती रहती है. वहीं उसने अप्रत्यक्ष ऐलान कर रखा है कि देश के भीतर जो भी मनुवाद- ब्राह्मणवाद का विरोधी और सामाजिक न्याय- भागीदारी की लड़ाई का समर्थक है उन सभी को येन-केन-प्रकारेण नेस्तनाबूद करके दम लेगा. बहुजन समाज को सत्ता की साजिशों को समझना होगा. राष्ट्रवाद के शोर के बावजूद बहुजनवाद को याद रखना होगा. बहुजन समाज को खुद को राष्ट्रवादी होने का प्रमाण पत्र देने के बोझ तले नहीं दबना है क्योंकि इस देश को बनाने में सबसे ज्यादा किसी ने योगदान दिया है तो वह बहुजन समाज के लोगों ने दिया है. यह देश जिस ढ़ांचे पर खड़ा है, उसकी नींव में बहुजनों का खून और पसीना मिला हुआ है.

फिलहाल वक्त बाबासाहेब अम्बेडकर के “शिक्षित बनो-संगठित बनो-संघर्ष करो” पर मन-कर्म-वचन से अमल करने का है. मार्च के महीने में बहुजन नायक मान्यवर कांशीराम की जयंती भी है. कांशीराम वही शख्स हैं, जिन्होंने 85 प्रतिशत का फार्मूला समाज के सामने रखा था और इसी फार्मूले की बदौलत देश की राजनीति में ब्राह्मणवादी वर्चस्व को सीधी चुनौती दी थी. यह वक्त कांशीराम जी को श्रद्धांजलि देने का भी है. जरूरत है कि बहुजन समाज प्रण करे और रोहित को सच्ची-ईमानदार श्रद्धांजलि अर्पित करे. और यह तभी संभव है जब जिस विचारधारा ने रोहित की जान ले ली और उसके सीने पर राष्ट्रद्रोही का तमगा टांगने की साजिश रची, उसके खिलाफ एकजुट होकर इस लड़ाई को तब तक लड़ा जाए जब तक यह अंजाम तक न पहुंच जाए.

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