‘सिंह’ सरनेम पर संघर्ष को उतारू क्षत्रिय

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पश्चिमी राजस्थान में दलितों और क्षत्रिय सवर्णों के मध्य सिंह शब्द के इस्तेमाल को लेकर कटुता खतरनाक स्तर पर पहुंच चुकी है. विशेष रूप से जालोर जिले से ऐसी खबरें आ रही हैं, जहाँ पर कुछ दलित युवाओं द्वारा अपने नाम के साथ सिंह लिख देने के कारण उन्हें भयंकर अपमान और उत्पीड़न झेलना पड़ रहा है.

प्राप्त जानकारी के अनुसार नपसा बौद्ध विराना, पदम सिंह मेघवाल तथा ओयाराम बोरटा को इस बात के लिए असंख्य गालियां दी गई है कि वे गैर राजपूत हो कर सिंह, ठिकाना, बना और सा जैसे शब्द क्यों इस्तेमाल कर रहे है ? इनके डी एन ए पर सवाल उठाए गए है और सोशल मीडिया पर यहां तक भी लिख कर पूछा गया है कि उन्हें पैदा करने के लिए उनकी माँ किसी क्षत्रिय के साथ सोई क्या? बात यहीं खत्म नहीं हुई बल्कि उपरोक्त युवकों को मोबाईल पर जान से मारने की धमकियां भी दी गयी और उनसे माफीनामें लिखवाए गए है, गांव से बहिष्कृत किया गया है और माफी मांगते हुए वीडियो बनवा कर उन्हें वायरल किया गया है. दलित अत्याचार की ऐसी बानगी शायद राजस्थान के अलावा अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलेगी.

कुछ साल पहले पाली जिले के जाडन निवासी चुन्नी लाल मेघवाल को सिर्फ इस बात के लिए सामंती तत्वों ने पीट पीट कर मार डाला, क्योंकि उसने अपनी बेटी का नाम बाईसा रख लिया था, अपने पति की निर्मम हत्या का सदमा पत्नी सह नहीं पाई और वह भी चल बसी. जिस बेटी को चुन्नी लाल बाईसा के रूप में पाल-पोस कर बड़ा करना चाहता था, वह पागल हो गयी! यह तो बानगी भर है. सामंती अत्याचार की इससे भी भयानक अमानवीय उत्पीड़न की कहानियां पश्चिमी राजस्थान के गांव-गांव में बिखरी पड़ी है. दलित महिलाओं से बलात्कार, खाट पर नहीं बैठने देने, बिन्दोली में घोड़े पर नहीं चढ़ने देने, वोट नहीं डालने देने, चुनाव नहीं लड़ने देने, सार्वजनिक स्थलों का उपयोग नहीं करने देने, बात बात में निंदनीय भाषा का प्रयोग करके अपमानित करने, बेगार लेने, मारपीट करने और जान तक ले लेने के प्रकरण अक्सर दर्ज किए जाते हैं. राजस्थान दलित समुदाय के प्रति नफरत, छुआछूत, भेदभाव, शोषण तथा अन्याय और उत्पीड़न का आज भी गढ़ बना हुआ है.

यह बात कितनी शर्मनाक है कि शब्द भी कुछ जातियों ने आरक्षित कर रखें हैं, उनको लगता है कि सिंह जैसे सर नेम सिर्फ उन्हीं के लिए बनाया गया है. अगर इसका इस्तेमाल कोई दलित कर दे तो यह दण्डनीय अपराध है. शायद इसीलिए नरपत बौद्ध को नपसा लिखने, फेसबुक पर घोड़े पर सवार प्रोफ़ाइल फ़ोटो लगाने की सज़ा दी गई है.

जालोर जिले के राजपूत और दलित युवा बुरी तरह से सोशल मीडिया पर इस बात को लेकर एक दूसरे से उलझे हुए हैं कि सिंह कौन लगा सकता है और कौन नहीं? ऐसी चीज़ें उनकी प्रगति में बाधक ही साबित होगी ,अपने नाम के साथ कुछ भी लिखने का अधिकार उन्हें भारत का संविधान देता है और इस पर कोई रोक नहीं लगा सकता है.
राजस्थान के विगत एक सदी के इतिहास में कईं गैर राजपूत समुदायों ने स्वयं का क्षत्रियकरण किया है और अपने नामों से राम, लाल, चंद, मल हटा कर सिंह लगा लिये उससे राजपूत समुदाय का क्या नुकसान हुआ? क्या इससे उनके अस्तित्व, गरिमा अथवा मान सम्मान पर किसी प्रकार का अतिक्रमण हुआ? नहीं हुआ, समाजशास्त्री इसे संस्कृतिकरण की प्रक्रिया कहते हैं, जो सतत चलती रहती है. कईं समुदाय ब्राह्मण बने, कुछ वैश्य और कुछ क्षत्रिय तो कुछ गैर हिन्दू समुदायों से जा मिले, यह चलता रहेगा, किसी भी समुदाय को इस प्रक्रिया से भयभीत नहीं होना चाहिए, इससे किसी का अस्तित्व मिटने वाला नहीं है.

यह व्यर्थ का विवाद है, जिसमें अपनी ऊर्जा बिल्कुल भी नष्ट नहीं करनी चाहिए. दलित युवाओं के लिए किसी और समुदाय की नकल करने या मंदिरों में घुसने के आंदोलन करने का समय नहीं है. समय विकट है, दूर की सोच के साथ बड़ी चीजें करने का स्वप्न लेने का समय है. उन्हें साकार करने में जुट जाने का समय है. हम मेहनतकश समुदाय हैं, हमारी अपनी संस्कृति और सभ्यता और विचारधारा है. हमें किसी से भी कोई शब्द या पहचान उधार लेने की जरूरत नहीं है.

(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता है.)

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