आरक्षण खत्म होना चाहिए

Representative Schoolमैं भी आप का समर्थन करता हूँ कि “आरक्षण बंद होना चाहिए”, लेकिन “सब को शिक्षा सब को काम” की भी मांग कर रहा हूँ. 30 प्रतिशत सवर्ण भूमिहीन हैं. 20 प्रतिशत सवर्णों के पास 100 बीघे से भी अधिक जमीनें हैं. मैं सरकार से मांग करता हूँ कि उन अमीर जमीदार सवर्णों की जमीन छीनकर गरीब सवर्णों में बांट दिया जाय जिससे उनके बाल-बच्चे ठीक से जीवन-यापन कर सकें. 10 प्रतिशत सवर्णों के पास 100 एकड़ जमीनें हैं. सरकार को चाहिए कि उनसे जमीनें छीनकर अन्य वर्गों के भूमिहीनों में वह जमीन बांट दी जाय. असमानता अन्याय है.

परम्परावादी सवर्ण की बड़ी बुरी आदत है कि वह व्यक्तिगत तौर पर चिढ़ने लगता हैं. वह अमीर सवर्ण जमीदार के पक्ष में खड़ा होकर सवाल पूछने और उपदेश देने लगता है कि तुम अपनी ज़मीन क्यों नहीं दान कर देते? यदि किसी अमीर के पास अधिक जमीन है तो वह उसके बाप-दादा की है. इसमें तुम्हारा क्या जाता है. ऐसे ही एक ब्राह्मण मित्र के सवाल के जवाब में मैंने अपनी सफाई पेश करते हुए लिखा कि मेरे पास या मेरे पिता जी के पास 1 बीघा खेत भी नहीं है. 5 भाई और 2 बहनों में मैं इकलौता व्यक्ति हूँ जो इत्तेफ़ाक से नौकरी कर रहा है और मैं सभी भाई बहनों को साथ लेकर चल रहा हूँ. क्या यह समाज के लिए कम बड़ी जिम्मेदारी है. मेरे पास तनखाह के अतिरिक्त कुछ नहीं है. मैं किसी को क्या दे सकता हूँ.

हाँ, यदि बहुत से जमीदार सवर्णों की जमीनें सरकार छीन ले तो अन्य गरीब सवर्ण मजे में रह सकते हैं. मैं सवर्णों से छीनी जमीनें दलितों में बांटने की बात कत्तई नहीं कर रहा हूँ. फिर आप को पीड़ा क्यों होने लगती है? क्या आप अपने ही भाई को ठीक से कमाते-खाते नहीं देखना चाहते हैं? जब सवर्णों से छीनने की बात उठती है तो आप को अनायास पीड़ा होने लगती है, क्यों? क्या उसे मैं अपने लिए मांग रहा हूँ, जी नहीं. सवर्ण समाज में समरूपता आए, इसलिए ऐसा विचार मैं अपने लेख द्वारा गूँगी-बाहरी सरकार तक पहुंचा रहा हूँ. कुछ सवर्णों की वजह से 77.1प्रतिशत सवर्ण गरीब हैं, नौकरी विहीन हैं. उनके लिए यह मांग करिए, लेकिन आप बेवजह सवालिया हो रहे हैं. इसे ही कहते हैं जाति की पीड़ा और जातिवाद से ग्रसित होना. जातिवाद कभी भी समानता की कायल नहीं है.

बस एक नई बात जोड़ दी की जिनके पास जीवन-यापन से अधिक खेती है, उनसे वह खेत छीनकर गरीब सवर्णों में बांट दिया जाय. मैं यह भी नहीं कह रहा हूँ कि वह जमीन शूद्रों को दे दी जाय. आप समझो न मेरी बात को. लेकिन आप को एक धुन सवार हो गई है कि बात आरक्षण वाले मुद्दे से भटक गई है.

आप जानते हैं सवर्ण साथी भी भूमिहीन है. उसके भूमिहीन होने का कारण ये सवर्ण जमीदार ही हैं. किसी के पास एक धुर जमीन नहीं किसी के पास 100 एकड़ जमीन है. ये कहाँ का न्याय है? इससे तो असमानता रहेगी ही. सिर्फ आरक्षण ख़त्म कर देने या आर्थिक आधार पर आरक्षण कर देने से समस्या का समाधान नहीं हो जाएगा. इस समय 35 करोड़ युवा हैं. मैं जाति-धर्म की बात नहीं कर रहा हूँ. सिर्फ युवा की बात कर रहा हूँ. नौकरियां 2 करोड़ 75 लाख हैं. किस-किस को आरक्षण के आधार पर नौकरियां मिल सकती हैं? क्या 35 करोड़ युवा को नौकरियां मिल सकती हैं?

फिर क्या है समस्या का समाधान? दलित कहे कि सवर्ण आरक्षण छीन रहा है और सवर्ण कहें कि आरक्षण की वजह से हमें नौकरियां नहीं मिल रही हैं. लड़ते रहो आपस में. क्या फायदा निकलेगा? समस्या की जड़ है पूँजीवाद, जो हमें लड़ाकर खुद मुनाफा कमाकर असंख्यों रुपए तिजोरी में कैद कर रही है. सारे सार्वजनिक सेक्टर्स को प्राइवेट सेक्टर्स में बदल रही है. और प्राइवेट वाले उच्चतम तकनीकी से कम व्यक्तियों के द्वारा अत्यधिक श्रम का शोषण करके हमें बेरोजगार बना रहे हैं.

हमारी आंखे वहां नहीं देख पाती है जहां समस्या की जड़ है. हम सिर्फ आरक्षण में समस्या खोजते हैं. रोजगार बढ़ाने के लिए संघर्ष करो. सभी जातियों के लोग उस संघर्ष में उतारेंगे और समस्या का समाधान जरूर होगा. यदि जातिवादी मानसिकता से ऊपर उठ पा रहे हों, तो मेरी बातों पर गौर फरमाइए. आप की बात को मैं कब का मान चुका हूँ कि “आरक्षण ख़त्म हो जाना चाहिए.” यह डीवेट तो कब का ख़त्म हो चुका है.

हमें समझना है कि संपत्ति का राष्ट्रीयकरण क्यों नहीं किया जाता है? जमीनों का राष्ट्रीयकरण क्यों नहीं किया जाता है? किसी भी संस्था का राष्ट्रीयकरण क्तो नहीं किया जाता है? किसी भी पूँजीपति के पास जो अकूत रुपया है उसका वह क्या करेगा? सिर्फ अमीर बने रहने की एक गलत महत्वाकांक्षा ही तो है. वह खुद नहीं कुछ करता है. करते हम आप हैं. मुनाफा कमा कमा कर धन वह इकठ्ठा कर रहा है. वह धन न उसके काम आता है न हमारे ही काम आता है. न राष्ट्र के काम आता है. अनुत्पादक पूँजी पड़ी हुई है.

इसी तरह जिसके पास ज्यादे बीघा जमीने है, किस काम की? क्या वह कुछ ज्यादे खा लेता है? बिल्कुल नहीं. लेकिन उसकी वजह से बहुत से ग्रामवासी जो उन्हीं की जाति-बिरादरी के हैं, भूमिहीन और गरीब हैं. यदि जमीनों का राष्ट्रीयकरण हो जाय या सामान बटवारा हो जाय तो न किसी की तिजोरी भरेगी और न कोई गरीब और बेरोजगार भूंखों मरेगा. आओ हम अपने सोच का दायरा बढ़ाएं. जाति-धर्म से ऊपर उठें. यह मानसिकता एक बीमार मानसिकता है. इस बीमारी को दूर भगाएं.

  • आर डी आनंद

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