बसपा की रैलियों पर प्रो. विवेक कुमार की टिप्पणी

 

बसपा सुप्रीमो मायावती यूपी में अब तक दो चुनावी रैलियां कर चुकी हैं. इन दोनों चुनावी रैलियों में लाखों की संख्या में समर्थक इकट्ठा हुए. चुनावों के नजरिए से बसपा का रूख सकारात्मक है. बसपा अपना एजेंडा सेट कर रही है. आगरा रैली और आजमगढ़ रैली में लोगों ने बसपा को भारी समर्थन दिया और आने वाली रैलियों में समर्थकों की सुनामी आएगी. हालांकि मुख्यधारा की मीडिया इसे कवर नहीं कर रही है, फिर भी लोगों की भीड़ स्वतः निकलकर आ रही है. लोगों का यह हुजूम प्रमाणित करता है कि ये रैलियां काफी सफल हो रही है.

आजमगढ़ की रैली में बसपा सुप्रीमो ने तिलक तराजू का नारे के बारे में बहुत दिनों बाद कुछ कहा है. उनका कहना बिल्कुल ठीक है. मैंने जब मान्यवर कांशीराम का इंटरव्यू किया था तब उन्होंने यह बात कही थी कि यह नारा मेरा या फिर बसपा का नहीं है. मान्यवर कांशीराम उस समय इटावा से चुनाव लड़ रहे थे. जब सपा और बसपा का गठबंधन था और सपा के लोगों ने यह नारा लगाया था. पहली बार यह नारा 1993 में सपा के लोगों द्वारा दिया गया. कांशीराम ने कहा था कि मेरे नारे तो सिद्धांतवादी होते हैं जिसके अंदर हम प्रजातंत्र को दिखाते हैं. जैसे हमारे शुरूआत के नारे “वोट हमारा राज तुम्हारा नहीं चलेगा नहीं चलेगा”, “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी”, “वोट से लेंगे पीएम सीएम, आरक्षण से लेंगे एसपी-डीएम”. ये नारे हमारे थे और इसी पर हम टिके हुए हैं. इसलिए तिलक-तराजू वाला नारा बसपा के मंच से कभी नहीं निकला. जनता ने अगर लगाया हो तो लगाया हो.

बसपा से निकाले गए नेताओं को भाजपा जिस तरह अपना रही है, इस पर बहनजी ने भाजपा की यथास्थति को बताया है. उन्होंने बिल्कुल सही कहा है कि हमारे रिजेक्टेड माल को भाजपा बड़ी अहमियत दे रही है. इसका मतलब यह हुआ कि उसके अपने कैडर और कैंडिडेट नहीं हैं. एक राष्ट्रीय पार्टी जोकि दावा कर रही है कि हम सरकार बनाने जा रहे है और विरोधी पार्टी के 25 साल पुराने नेता को अपनाकर इज्जत दे रही है. भाजपा का यह कदम उसकी जमीनी हकीकत और संगठनात्मक हकीकत का कहीं न कहीं पोल खोलती है.

 

अब तक दो रैलियां हो चुकी हैं. रैली में समर्थकों का हूजुम देखकर बसपा सुप्रीमों ने इसे समुद्री रैली बोला है. मेरा मानना है कि आने वाले समय में कोई भी राजनीतिक दल यूपी में रैली नहीं करेगा. वो रथ यात्रा निकाल सकता है, वो रोड शो कर सकता है, वो कार्यकर्ता सम्मेलन कर सकता है, लेकिन वह रैली नहीं करेगा. क्योंकि इससे उसके जनाधार की पोल खुलने का खतरा रहेगा. इसलिए बसपा प्रमुख ने इन जनसैलाबी रैली को कर के एक नई स्थापना कर दी है. दूसरे दल रैली न कर सके और अपने जनाधार का परचम ना लहरा पाए. तो इसे बसपा की राजनैतिक जीत के रूप में देखा जा सकता है.

बसपा की अपनी एक नीति रही है. बसपा लगातार अनुसूचित जाति जनजाति, पिछड़ा वर्ग और यहां तक कि कंवर्टेड माइनोरिटीज और अपर कास्ट में गरीब तबके को सर्वजन हिताय के तहत संगठित करती रहीं हैं. लेकिन मुझे लगता है कि बसपा को अकलियत समाज, कनवर्टेड माइनोरोटीज जिन्हें रिलिजियस माइनोरिटीज कहा जाता है, उसके लिए दो कदम और चलना पडेगा. उनके अंदर विश्वास बनाना पड़ेगा. उनके लीडरों के माध्यम से उनको मनाना पड़ेगा कि आपका भविष्य सपा में सुरक्षित नहीं है, कांग्रेस और किसी अन्य दल में सुरक्षित नहीं है. आज अल्पसंख्यक समाज सिर्फ बसपा में सुरक्षित है. इसके लिए उनको एक कदम आगे आना पड़ेगा, उनके संगठन को मनाना पड़ेगा. जिससे की वो बसपा की तरफ तेजी से उन्मुख हो सके.

 

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