सफाई कर्मचारियों के पैर धोने से कौन महिमामंडित होता है?

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अपनी कुंभ यात्रा के दौरान पीएम मोदी सफाईकर्मियों के पैर धोते हुए

24 फरवरी 2019 का दिन देश के इतिहास में हमेशा याद रहेगा. शायद इसलिए कि प्रधान मंत्री मोदी ने कुंभ में सफाई करने वाले कुछ सफाई कर्मचारियों के पैर धोने का उपक्रम किया. इस मौके पर कुंभ में सफाई अभियान की तारीफ करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि 22 करोड़ लोगों के बीच सफाई बड़ी जिम्मेदारी थी, जिसे सफाई कर्मचारियों ने साबित किया कि दुनिया में नामुमकिन कुछ भी नहीं. ये सफाईकर्मी बिना किसी की प्रशंसा के चुपचाप अपना काम कर रहे थे. लेकिन इनकी मेहनत का पता मुझे दिल्ली में लगातार मिलता रहता था. वो यहीं नहीं रुकें, अपितु वोटों की खातिर मोदी जी ने कोरिया से मिले सोल शांति पुरस्कार की राशि को नमामि गंगे प्रॉजेक्ट को समर्पित किया. इसके बाद पांव धोने का उपक्रम किया गया. पांव धोने के उपक्रम से उन राजनेताओं के माथे पर शिकन पड़ना जरूरी ही है जो दलितों के घर जाकर खाना खाने का नाटक करते रहे हैं. किंतु मोदी जी की नाटकबाजी दलितों के घर जाकर खाना खाने के उपक्रम से ज्यादा खतरनाक है. यद्यपि दोनों का मकसद केवल और केवल दलितों के वोट हासिल करना दिखता है. किंतु दलित हैं कि राजनीति की भाषा समझते ही नहीं.

इस संबंध में विल्सन बेजवाड़ा कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री को सफाई कर्मियों और दलितों के पैर नहीं धोने चाहिए बल्कि उनसे हाथ मिलाना चाहिए. पैर धोने से कौन ग्लोरिफाई (महिमामंडित) होता है. प्रधानमंत्री ही ग्लोरिफाइ होते हैं ना. वह सफाईकर्मियों के पांव पकड़ते हैं तो वह यह संदेश दे रहे हैं कि आप (सफाईकर्मी) बहुत तुच्छ हैं और मैं महान हूं. इससे किसका फायदा होता है? इनके पैर धोकर वह खुद को महान दिखा रहे हैं. यह बहुत खतरनाक विचारधारा है.

संगम को पवित्र माना जाता है और हिंदू मानते हैं कि कुंभ के दौरान वहां स्नाोन करने से पाप धुलते हैं और मोक्ष प्राप्तत होता है. बड़ी संख्यान में श्रद्धालु नदी के किनारे कैंप या अखाड़ों में रुकते हैं. पिछले कुछ हफ्तों में कई राजनेता, मंत्री और नामी हस्तियां कुंभ मेला पहुंची. स्मृुति ईरानी, योगी आदित्युनाथ और अखिलेश यादव जैसे नेताओं ने अपने कुंभ जाने की तस्वी रें भी साझा की हैं. 48 दिनों तक चलने वाले कुंभ मेले में करोड़ों की संख्यान में श्रद्धालु संगम में डुबकी लगाने पहुंच रहे हैं. 15 जनवरी को मकर संक्रांति के दिन से शुरू हुआ कुंभ मेला 4 मार्च को महाशिवरात्रि के दिन समाप्तफ होगा. तो क्या कोई ऐसा मान सकता है कि कुम्भ अथवा गंगा स्नान करने में उन लोगों की ज्यादा ही रुचि रहती है जो पापी होते हैं?

खैर प्रधानमंत्री मोदी ने इस अवसर पर सफाईकर्मियों के लिए स्वच्छ सेवा कोष की घोषणा भी की और घोषणा करते हुए कहा, ‘आज स्वच्छ सेवा कोष की भी घोषणा की गई है. इस कोष से आपके परिवार को विशेष परिस्थितियों में मदद सुनिश्चित हो पाएगी. यह देशवासियों की तरफ से आपका आभार है. इस बार कुंभ की पहचान स्वच्छ कुंभ के तौर पर हुई तो केवल सफाई कर्मचारियों के कारण यह संभव हो सका. पीएम मोदी ने कहा, ‘दिव्य कुंभ को भव्य कुंभ बनाने में आपने कोई कसर नहीं छोड़ी. जहां 1 लाख से ज्यादा शौचालय हों, 20 हजार से ज्यादा कूड़ादान हो, वहां काम कैसे हुआ इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता. आज मेरे लिए भी ऐसा ही पल है जो भुलाया नहीं जा सकता. आज जिन सफाईकर्मी भाइयों-बहनों के चरण धोकर मैंने वंदना की है, वह पल मेरे साथ जीवनभर रहेगा.’

मोदी जी ने औपचारिकतावश नाविकों और पुलिस कर्मियों की भी तारीफ की. किंतु पीएम मोदी जी के द्वारा सफाई प्लांट का उद्घाटन से पहले सफाई करने के लिए टैंक में उतरे दो मजदूरों की मौत की मोदी जी को कोई याद ही न रही. वृतांत इस प्रकार है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 12 नवंबर को संसदीय क्षेत्र वाराणसी में जिस दीनापुर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का उद्घाटन करने वाले थे, उसे चालू करने में जुटे दो मजदूरों की मौत हो गई. सीवर में काम करने वाले अनेक सफाई कर्मियों की मृत्यु को मोदी जी दरकिनार कर देते हैं. फिर भी सफाईकर्मियों की सीवर में मौत की घटनाओं को रोकने की दिशा में कोई ठोस उपाय नहीं दिख रहे हैं. इस ओर मोदी जी का कोई ध्यान नहीं है….मोदी जी को यह याद क्यों नहीं रहता कि वोट तो सीवर में मरने वालों के भी होते हैं. यदि मोदी जी अपने कार्यकाल में दलितों के हितों को ही अनदेखी नहीं करते तो मोदी जी को सफाई कर्मियों के पैर की जरूरत ही न पड़ती. सफाई कर्मियों के पैर धोने की बजाय यदि मोदी जी दलितों के हक में अधोलिखित काम ही कर देते तो काफी होता.

> सफाई कर्मियों से छीनकर ठेकेदारों को दी गयी सभी सरकारी नौकरियां उन्हें लौटा देते
> सफाई कर्मियों के बच्चों को समुचित शिक्षा प्रदान करा देते और उनके लिए पीएचडी तक मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था कर देते
> हाई कोर्ट/सुप्रीम कोर्ट में दलित समुदाय को प्रतिनिधित्व प्रदान करने का उपक्रम करने की व्यवस्था कर देते.

किंतु आपने तो दलितों के हितों की रक्षा करने की बजाय कुछ उल्टा ही काम किया है. आपके नेतृत्व में भाजपा सरकार ने पूरे पांच साल में सफाई कर्मी ही नहीं बल्कि पूरे SC, ST, OBC समुदाय के हितों का गला घोटा है और उनके संवैधानिक अधिकारों पर बज्र प्रहार किया है, इसलिए आप अब जो भी कर रहे हैं वह सिर्फ नौटंकी लगती है और कुछ नहीं. पूरा देश जानता है कि आप आजकल जो कुछ भी कर हैं केवल और केवल 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के लिए कर रहे हैं.

ऐसे में आपके द्वारा सफाई कर्मचारियों के पैर धोने का क्या औचित्य रह जाता है जबकि 13 फरवरी 2019 को सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ द्वारा एक NGO की याचिका पर सुनवाई करते हुए 11 लाख से अधिक आदिवासियों को जमीन से बेदखल करने का आदेश दे दिया गया है. इस आदेश की वजह से करीब 20 राज्यों के आदिवासियों और जंगल में रहने वाले अन्य लोग प्रभावित होंगे. सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला इस वजह से भी आया क्योंकि केंद्र सरकार आदिवासियों और वनवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए बने एक कानून का बचाव नहीं कर सकी. खेदजनक तो ये भी है कि सरकार के द्वारा आदिवासियों के मुद्दों की वकालत करने के लिए कोई भी सरकारी वकील नहीं भेजा गया. इसे क्या कहें? सरकार की गरीब तबके के प्रति अनदेखी अथवा सरकार का जाति भावना से ग्रस्त होना? इस मामले में केंद्र सरकार की भूमिका बेहद ही गैरजिम्मेदाराना, दोषपूर्ण और संदिग्ध नजर आती है. क्या सरकार ने अपनी आदिवासी-विरोधी कार्पोरेट नीतियों को विस्तार देने के लिए ऐसा किया? कहा जाता है कि कानून की पवित्रता तभी तक तक बनी रह सकती है, जब तक वो लोगों की इच्छा/जरूरतों की अभिव्यक्ति करे. लेकिन हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा फैसला दिया है जो मुलनिवासी माने जाने वाले आदिवासियों की इच्छा के विरूद्ध है.

आदिवासी और वनवासियों के लिए काम करने वाली एक संस्था ‘अभियान फॉर सर्वाइवल एंड डिग्निटी’ का आरोप है कि सुनवाई के समय केंद्र सरकार का वकील कोर्ट में मौजूद ही नहीं था. सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद देशभर से आदिवासियों को जबरदस्ती जंगल की जमीन से बेदखल करने की घटनाएं सामने आएंगी. जाहिर है जमीन को अपनी ‘मां’ कहने वाले आदिवासी आसानी से जमीन खाली नहीं करेंगे, ऐसे में सैनिकों की मदद से बलपूर्वक उन्हें बेदखल किया जाएगा. इस बाबत हमें ब्राजील में घटी घटना का स्मरण होना चाहिए जिसके तहत वहाँ के आदिवासियों ने सरकार का अपने तरीके से भरपूर विरोध किया था. यहाँ तक कि परम्परागत हथियारों जैसे तीर कमान और भालों को जमकर इस्तेमाल किया गया था. शंका है कि कहीं वो ही अवस्था भारत में न आ जाए. अफसोस की बात तो ये है कि जिन आदिवासियों ने जंगलों को बचाया आज जंगल बचाने के नाम पर उन्हें ही उजाड़ा जा रहा है. आदिवासियों का जंगल से रिश्ता बहुत गहरा है. उनकी अस्मिता और अस्तित्व जंगल, नदी, पहाड़ से ही परिभाषित होता है. इसलिए जब भी किसी बाहरी ने उन्हें जंगल से बेदखल करने की कोशिश की है, आदिवासियों ने हमेशा विद्रोह किए हैं. अंग्रेजों ने आदिवासी इलाकों पर जबरन कब्जा करना शुरू कर दिया था जिसके खिलाफ आजादी की लड़ाई से भी पहले 18वीं और 19वीं सदी में आदिवासियों ने आंदोलन किये हैं. सही मायने में ये आंदोलन भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की शुरूआत मानी जानी चाहिए.

विदित हो कि बिरसा मुंडा शहीद हो गए लेकिन उनके आंदोलन के दबाव में अंग्रेज सरकार ने 1908 में आदिवासियों के वनाधिकारों को बचाने के लिए ‘छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट’ बनाया. बाद में इसी की तर्ज पर ‘संथाल परगना टेनेंसी एक्ट’ लाया गया. इनकी रोशनी में ही भारत के संविधान में आदिवासियों के अधिकारों संबंधी प्रावधान किये गए थे. किंतु सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी को एक ऐसा आदेश जारी किया है जो संभवतः आजाद भारत के इतिहास में आदिवासियों के खिलाफ तंत्र की तरफ से सबसे बड़ी कार्यवाही साबित होगी. सुप्रीम कोर्ट को आदिवासियों के विस्थापन को रोकने के लिए स्वत: संज्ञान लेना चाहिए.

इस संबंध में सोशल मीडिया के जरिए जस्टिस काटजू कहते हैं कि “मी लॉर्ड, आर्टिकल 21 भूल गए हैं जिसके जरिए संविधान हमें जीने का अधिकार देता है. मैं सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से बेहद दुखी हूं जिसमें कहा गया है कि 17 राज्यों के जंगलों में रहने वाले 10 लाख से भी ज्यादा आदिवासियों को जमीन खाली करके जाना होगा. मेरी अगुवाई में बनी बेंच द्वारा सुप्रीम कोर्ट (कैलाश वर्सेस स्टेट ऑफ महाराष्ट्र) का फैसला आया था. उसके मुताबिक, भारत प्रवासियों का देश है (जैसे कि नार्थ अमेरिका) यहाँ की 93 से 94% आबादी प्रवासियों की वंशज है. यहां पर मूलनिवासी तो द्रविड़ियन आदिवासी हैं (मसलन भील, गोंड, संथाल, टोडा जैसे आदिवासी) जिनका बेरहमी से कत्ल किया गया, जिनके साथ आक्रांता प्रवासियों ने बुरा बर्ताव किया और उन्हें जंगलों में रहने के लिए मजबूर कर दिया. ताकि वो अपना वजूद बचा सकें. और अब उन्हें जंगलों से भी भगाया जा रहा है. यह अति दुखदायी है कि अब वो कहां जाएंगे? क्या उन्हें अब समुद्र में फेंक दिया जाएगा? या गैस चैंबर में डाल दिया जाएगा? क्या फॉरेस्ट एक्ट संविधान द्वारा प्रदत्त आर्टिकल 21 के ऊपर है?”

इतना ही नहीं, आपके कार्यकाल में विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की भर्ती के लिए 200 पाइंट रोस्टर के बदले 13 पाइंट रोस्टर लागू कर दिया गया; संसद मार्ग थाने के सामने देश का संविधान जलाया गया. जातिगत भावना के तहत दलितों के विरोध में ही कार्य किए गए. अब तो इस कार्यकाल में आपके पास समय ही शेष नहीं रह गया है ताकि आप अपनी कथनी और करनी के सवालों को हल कर सकें. अगला दौर किसका होगा … कौन जाने?

  • लेखक तेजपाल सिंह ‘तेज’ स्वतंत्र लेखक हैं।

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