आदिवासी होने का दर्द

आदिवासी

महाराष्ट्र। आठ साल की रविता ने न तो ‘एक्स-रे’ और ‘एमआरआई’ जेसे शब्द सुने हैं, न उसे उनका महत्व मालूम है. उसे मालूम है तो बस इतना कि रीढ़ की हड्डी टूटने से पैदा लकवे के इलाज के लिए कुछ जरूरी सुविधाएं हैं जो नंदूरबार के दूर-दराज के उसके इलाके के अस्पताल में मौजूद नहीं. लिहाजा, भील समुदाय की इस आदिवासी बच्ची को अपने मां-बाप के साथ 467 किलोमीटर दूर, मुंबई के जीटी अस्पताल में इलाज करवाने आना पड़ा है.

महाराष्ट्र के हजारों आदिवासी उसी की तरह चिकित्सा की बुनियादी सुविधाओं के अभाव से जूझ रहे हैं. अकेले रविता के नंदूरबार जिले में 467 बच्चे कुपोषण और ढंग की चिकित्सा न मिलने से बीमारियों से अप्रैल से सितंबर के छह महीनों में अपनी जान से हाथ धो बैठे हैं.

‘कहने को प्रदेश के बजट का प्रतिशत हिस्सा आदिवासियों के कल्याण के ‌लिए निर्धारित है, पर शायद ही यह कभी पूरा खर्च किया जाता हो’, आदिवासियों के बीच काम करने वाले पूर्व विधायक विवेक पंडित की शिकायत है कि उन्हें दूसरे श्रेणी का नागरिक समझ लिया गया है. चूंकि वे दलितों की तरह वोट बैंक नहीं हैं और सरकार पर दबाव डालने के लिए रैली और प्रदर्शन नहीं कर पाते.

दरअसल, आदिवासियों की तरफ ध्यान तब जाता है जब उनके साथ कुछ हादसा घटता है. सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए सस्ते अनाज, स्वरोजगार और मकान बनाने के लिए रियायती कर्ज, गर्भवती माताओं के लिए पोषक भोजन, रियायती कापी-किताबों और यूनिफॉर्म जैसी सुविधाएं दी हैं. उन्हें शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण भी मिला है, जिसका पूरा लाभ वे नहीं उठा पा रहे. कारण भ्रष्टाचार. बोर्डिंग स्कूलों में आदिवासी छात्राओं के दैहिक शोषण की खबरें आम हैं. लैंड माफिया और बिल्डरों ने उनकी जमीनें गड़प कर ली हैं जिनकी सांठगांठ नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों से है. इस वजह से उनकी सुनवाई भी नहीं.

पंडित सवाल उठाते हैं कि आप कहते हैं आपके पास आदिवासी बच्चों के कल्याण के लिए कई योजनाएं हैं. तब इन योजनाओं का सही क्रियान्वयन क्यों नहीं हुआ? उनके विकास के लिए रखा धन आखिर कहां चला गया? क्या आपने यह पता लगाने की कोशिश की कि आदिवासी और आंगनवाड़ी के बच्चों को भोजन और जरूरी पोषण तत्व आखिर क्यों नहीं मिल पा रहे हैं?’ कहकर बॉम्बे हाई की मुख्य न्यायधीश मंजुला चेल्लूर और न्यायाधीश एन. एम. जामदार की खंडपीठ कोर्ट फटकार लगा रही थी तो महाराष्ट्र सरकार की घिघ्घी बंधी हुई थी.

यह मामला दो महीने के भीतर विदर्भ के मेलघाट पालघर और मोखाड़ा, ठाणे और अन्य आदिवासी इलाकों में कुपोषण और बीमारियों से 180 से ज्यादा मौतें होने पर उठा था. हाई कोर्ट ने सरकार को इन इलाकों में बच्चों के पोषण, स्वास्थ्य व शिक्षा, आदि सुविधाओं संबंधी अपनी आदेशों का पालन न करने के लिए भी झाड़ लगाई और तय किया कि अब से आदिवासी कल्याण संबंधी सभी मामलों को हर सप्ताह सुना जाएगा.

 

साभार: नवभारत टाइम्स

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