‘आम आदमी’ एवं ‘दलित’ की नई राजनीतिक परिभाषा

नई दिल्ली। राजनीति समाज में भ्रम फैलाने वाला सर्वोच्च, संगठित एवं सर्वाधिक शक्तिशाली संस्थान है. और भ्रम फैलाने का सबसे अच्छा माध्यम यह है कि शब्दों के परंपरागत-संस्कारगत अर्थों को भ्रष्ट करके उनकी परिभाषायें बदल दी जायें. इस राजनीतिक औजार की सबसे अधिक जरूरत लोकतांत्रिक प्रणाली वाली व्यवस्था में पड़ती है, और भारत में फिलहाल यही प्रणाली काम कर रही है.

अभी राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति के चुनाव में दो शब्द काफी चर्चा में रहे-दलित एवं आम आदमी. परंपरागत अर्थ में ‘दलित’ का अर्थ है- जिसको दला गया, यानी कि दबाया गया, सताया गया, तिरस्कृत किया गया. यह ‘पद-दलित’ शब्द से लिया गया है, जो इसके अर्थ को भारत की जातिगत सामाजिक संरचना के साथ व्यक्त करता है-पैरों तले कुचलना. यह एक सामाजिक अवहेलना है, जिसे हमारे संविधान में ‘सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग’ कहा गया.

‘आम आदमी’ शब्द ‘विशिष्ट व्यक्ति’ शब्द के विपरीत है. विशिष्ट, यानी कि किसी भी कारण से बना समाज का प्रभावशाली वर्ग, जिसे अंग्रेजी में ‘इलीट’ कहते हैं. ये संख्या में थोड़े से होते हैं. ‘आम आदमी’ यानी कि इस वर्ग के अतिरिक्त शेष बचे हुए लोगों का समूह. इसे आप देश की ‘भीड़’ कह सकते हैं. उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ रहे गोपालकृष्ण गांधी ने इस पद की योग्यता के रूप में स्वयं को ‘आम आदमी’ घोषित किया. जाहिर है कि उनकी जुबान पर यह शब्द उन्हें खड़ा करने वाले राजनीतिक दलों ने धरा होगा. अन्यथा स्वयं के सम्पूर्ण जीवन को ‘सत्य का प्रयोग’ कहने वाले महात्मा गांधी के पोते के ओठों पर इतना असत्य शब्द नहीं आया होता.

आइये, हम इस ‘आम आदमी’ की आमीयत का थोड़ा जायजा लेते हैं:
राष्ट्रपिता के पोते के रूप में एक अत्यंत श्रद्धेय परिवार में जन्म लेने के केवल 22 साल बाद ही गोपालकृष्ण गांधी इस देश की सबसे ऊंची और अभिजात्य नौकरी में आ गये, जिसे आई.ए.एस. के नाम से जाना जाता है. इससे पहले उन्होंने पढ़ाई भी की थी, तो उस समय के सबसे बड़े इलीट कॉलेज दिल्ली के सेंट स्टीफन से और वह भी अंग्रेजी साहित्य में. कलेक्टरी के बाद अनेक पदों पर रहने के साथ-साथ वे पहले उपराष्ट्रपति के तथा बाद में राष्ट्रपति के सचिव रहे. लंदन में नौकरी की. दक्षिण अफ्रीका और श्रीलंका में भारत के उच्चायुक्त रहे. नार्वे और आइसलैंड में राजदूत रहे. और सन् 2003 में इस सबसे रौबदार और सुविधाजनक नौकरी से रिटायर होने के बाद पश्चिम बंगाल में राज्यपाल बना दिये गये.
वैसे यह जानना भी ठीक ही होगा कि इनके दादा के पिता राजकोट के राजा के दीवान थे.तो यह है भारत के आम आदमी की तस्वीर.

अब आइये देखते हैं-हमारे देश के दलित का चेहरा, लेकिन राजनीतिक आइने में. राष्ट्रपति पद के लिए खड़ी श्रीमती मीरा कुमार ने स्वयं को ‘दलित की बेटी’ बताकर मतदाताओं से अन्तरात्मा की आवाज़ पर मतदान की अपील की. लेकिन क्या सचमुच उनकी अपनी आत्मा के अंदर से अपने लिए निकला शब्द ‘दलित’ सही है? जाति के आधार पर उत्तर होगा-‘हां’, लेकिन ‘सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक आधार पर’?

बात शुरू करते हैं तीन पीढ़ी पहले से. मीरा कुमार के दादा न केवल ब्रिटिश सेना में ही थे, बल्कि बहुत अच्छी अंग्रेजी भी बोलते थे. बाद में नौकरी छोड़कर शिवनारायणी संप्रदाय के महंत बनकर उन्होंने समाज में अपने लिए एक सम्मानजनक स्थान बनाया. पिता जगजीवन राम मीरा कुमार के जन्म से आठ साल पहले ही बिहार विधान परिषद के सदस्य नामांकित कर दिये गये थे. देश की आजादी से एक साल पहले जब अंतरिम सरकार बनी थी, उस समय जिन बारह सदस्यों को इसमें शामिल किया गया था, उनमें से एक बाबू जगजीवन राम भी थे. इसके बाद वे लगातार सरकार में वरिष्ठ मंत्री रहे.

मीरा कुमार इसी परिवार में पली-पढ़ी हैं. उनकी पढ़ाई देश के प्रसिद्ध जयपुर के महारानी गायत्री देवी गल्र्स पब्लिक स्कूल के साथ-साथ दिल्ली के मिरांडा कॉलेज जैसे संस्थानों में हुई. जब नौकरी की बात आई, तो वे शामिल हुईं-देश की अत्यंत प्रतिष्ठित एवं अभिजात्य नौकरी-भारतीय विदेश सेवा में. बाद में मंत्री एवं लोकसभा अध्यक्ष के उनके रूप सर्वज्ञात हैं.

तो ये हैं हमारे देश के ‘आम आदमी’ एवं ‘दलित’ की वर्तमान राजनीतिक परिभाषा. निःसंदेह रूप से उपराष्ट्रपति एवं राष्ट्रपति के रूप में इनकी योग्यता पर तनिक भी उंगली नहीं उठाई जा सकती. लेकिन राजनीतिक आवश्यकताओं के समक्ष योग्यतायें कैसे निरस्त होकर असहाय की मुद्रा में खड़ी हो जाती हैं, यह इसका प्रमाण है. जाहिर है कि राजनीति जो न कराये, वही थोड़ा.

(डॉ. विजय अग्रवाल का यह लेख NDTV हिंदी से साभार लिया गया है. लेख में कोई बदलाव नहीं किया गया है)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.