सबका अपना-अपना राष्ट्रवाद

Natioanlim in india

मशहूर फ्रेंच विचारक लुई अल्तुसर से हमारी मुलाकात 1980 के आसपास हुई थी. उन दिनों वे ‘फिलॉसफी ऑफ रीडिंग’ (पाठ का प्रयोजन) के अध्ययन के सिलसिले में भारत आए थे. उनके अध्ययन का सार यह था कि किसी किताब का पाठ हम सभी अलग-अलग ढंग से और अलग-अलग प्रयोजन से करते हैं. जैसे, एक साल के किसी बच्चे के सामने यदि रामचरित मानस रख देते हैं तो वह क्या करेगा? वह उसे उठाने की कोशिश करेगा. उसे इस बात का ज्ञान नहीं होगा कि किताब वह इस तरह उठाए कि उसके पन्ने न फटें. वह सिर्फ जिल्द या कोई एक पन्ना पकड़ कर उठाएगा. उसे मुंह तक ले जाकर खाने की कोशिश करेगा और थक जाने पर उसे छोड़ देगा.

आपकी नजर में वह उस पूजनीय किताब को खराब कर रहा है लेकिन अपनी समझ से वह एक चीज से जान-पहचान बढ़ाने की कोशिश कर रहा है. यह बच्चे का उस किताब से पहला परिचय है और वह जानना चाहता है कि अपने लिए उससे वह किस तरह का फायदा उठा सकता है. चार या पांच साल का बच्चा मानस के अक्षर या शब्द पढ़ने की कोशिश कर सकता है जो फिलहाल वह अपने स्कूल में सीख रहा है. या फिर दादा-दादी की तरह पूजा घर में बैठकर उनकी नकल उतार सकता है. वह भी पढ़ रहा है लेकिन उसका प्रयोजन अलग है. उसी मानस का पाठ एक कथावाचक और एक गायक करता है. एक उसके रोचक प्रसंग ढूंढता और पढ़ता है ताकि अपने श्रोताओं को मुग्ध कर सके. दूसरा उसकी ज्ञेयता पर ध्यान देता है. कुछ लोग दुख-सुख के अवसर पर अपने आवेगों को सहारा देने के लिए मानस के चुने हुए प्रसंगों का पाठ करते हैं. उनके लिए वह मनोचिकित्सा में काम आने वाली किताब है लेकिन एक भक्त इनसे बिल्कुल अलग सिर्फ धार्मिक कारणों से उसे पढ़ता है और एक शोधार्थी बिल्कुल अलग कारणों से. धर्मगुरु को मानस के अलंकारिक सौंदर्य में रुचि नहीं होती. कथागायक किसी कथावाचक की तरह भावुक नहीं होता. साहित्य का छात्र धर्मगुरु की तरह मानस को पढ़ने से पहले सिर से नहीं लगाता.

अल्तुसर के इस पाठ-दर्शन से हम देश के नए राष्ट्रवादी उभार को समझ सकते हैं. समाज के अलग-अलग तबके के लिए राष्ट्रवाद की परिभाषा अलग-अलग है. राष्ट्र के प्रति अपनी निष्ठा दिखाने का तरीका अलग-अलग है. जैसा कि प्रधानमंत्री ने पिछले दिनों कहा, ‘एक आदमी वंदे मातरम का नारा लगाता है और सड़क पर पीक थूक देता है. उसे पूरा विश्वास है कि नारा लगाकर उसने राष्ट्र के प्रति अपने प्रेम का इजहार कर दिया है. वह नहीं समझ पाता कि पीक थूककर उसने राष्ट्र का क्या नुकसान किया.’ दूसरा आदमी अपने राष्ट्रप्रेम के आवेश में उन लोगों पीटकर ठीक कर देना चाहता है, जो वंदे मातरम का नारा नहीं लगा रहे. उसे समझ में नहीं आ रहा कि अपने राष्ट्र प्रेम का वह और क्या उपयोग कर सकता है. कुछ लोगों को धर्म और राष्ट्र के बीच का फर्क नहीं समझ में आ रहा जबकि कुछ लोग सरकार और राष्ट्र का भेद नहीं समझ पा रहे. उनकी नीयत अच्छी है लेकिन राष्ट्र की कोई साफ, सर्वमान्य तस्वीर उनके सामने नहीं है. पहले पूरी दुनिया में राजा होते थे. एक राजा दूसरे राजा के देश पर हमला करता था और उसका कुछ इलाका छीन लेता था. कभी-कभी बेटी के साथ दहेज में या आपसी समझौतों के दौरान भी कुछ इलाके एक-दूसरे को दे दिए जाते थे. वे राष्ट्र नहीं थे लिहाजा इलाके के साथ राजभक्ति बदल जाती थी. आधुनिक राष्ट्र-राज्य की अवधारणा हमने अंग्रेजों के जमाने में आयात की जो जाते-जाते एक नया नक्शा खींचकर हमें दे गए.

कुछ विद्वान बताते हैं कि वेदों-पुराणों में भी ‘राष्ट्र’ का उल्लेख मिलता है लेकिन वहां इसका प्रयोग अलग संदर्भों में किया गया है. आधुनिक राष्ट्र-राज्य की अवधारणा बिल्कुल नई है जिसे हमने बरास्ता यूरोप पाया है. अच्छा होगा कि भारत के नागरिक आज स्वयं राष्ट्र की पहचान करें और इसकी परिभाषा गढ़ें लेकिन राष्ट्र को समझने का यह रास्ता लंबा है. नागरिक समूहों के बीच राष्ट्रवाद की परिभाषा को लेकर यदि मतभेद ज्यादा गहरे हों और एक तबका, दूसरे को अपने ही ढंग से राष्ट्रभक्ति व्यक्त करने के लिए बाध्य करने लगे तो सामाजिक संघर्ष पैदा हो सकता है. ध्यान रखें कि जिस बांग्लादेशी ने 1947 के पहले भारत के लिए वंदे मातरम गाया होगा शायद उसी के बेटे ने भारत-पाक विभाजन के बाद पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगा कर अपनी राष्ट्रभक्ति व्यक्त की होगी और उसका पोता आज ‘जय बांग्ला’ के उद्घोष में अपनी राष्ट्रभक्ति की अभिव्यक्ति ढूंढ रहा होगा.

यदि मेरठ का राष्ट्रवाद मेवात के राष्ट्रवाद से, सवर्ण का राष्ट्रवाद पिछड़ों के राष्ट्रवाद से, हिंदू का राष्ट्रवाद मुसलमानों के राष्ट्रवाद से, गरीबों का राष्ट्रवाद अमीरों के राष्ट्रवाद से, गांवों का राष्ट्रवाद शहरों के राष्ट्रवाद से और बेरोजगारों का राष्ट्रवाद सरकारों के राष्ट्रवाद से मेल नहीं खाता तो संघर्ष का खतरा बढ़ जाता है. पूर्वी पाकिस्तान की राष्ट्रवादी आकांक्षाओं को न समझने वाली पश्चिमी पाकिस्तान की जिद ने ही इतिहास का रास्ता बदल दिया. राष्ट्रवाद का ऐसा संघर्ष राष्ट्र की एकता को ध्वस्त करता है. इसलिए जब राष्ट्र के नागरिक अपने राष्ट्र का अर्थ ढूंढ रहे हों, तब ऐसे सामाजिक-राजनीतिक नेतृत्व की जरूरत होती है जो सामाजिक संघर्ष पैदा न होने दे और उस समरसता को आगे बढ़ाए, जो सबके भीतर राष्ट्र के साझेपन की भावना मजबूत कर सके.

बालमुकंद का यह लेख नवभारत टाइम्स से साभार है.

2 COMMENTS

  1. Very Nice Article…….Thanks a lot for sharing…..Nationalism is a spirit/feeling/contribution through which we make sure that our Country should face any problem to loose it’s dignity. Nation is above all and we must always try to save it’s Respect & Dignity.

    • Rephrasing to make correction :- Nationalism is a spirit/feeling/contribution through which we make sure that our Country should not face any problem to loose it’s dignity

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