मोटिवेशन कैरियर और बुद्ध की अनत्ता

गौर कीजिए इन शब्दों पर. अक्सर ही हम सोचते हैं कि बुद्ध सिर्फ ध्यान समाधि और निर्वाण जैसी बातों के लिए ही हैं. लेकिन ये बिलकुल गलत बात है. बुद्ध के लिए परलोक या परीलोक का कोई अर्थ नहीं है. वे खालिस इस लोक और इस जीवन के लिए हैं.

एक ख़ास मुद्दे के संदर्भ में इसे देखेंगे तो आसानी से समझ में आयेगा. क्या मोटिवेशन और जीवन में सुधार को अनत्ता से जोड़कर देखा जा सकता है? क्या वेदांत और ब्राह्मणी आत्मा के सिद्धांत और मोटिवेशन या व्यक्तित्व विकास या जीवन के सुधार में आपस में कोई संबन्ध है?

इसका उत्तर है कि वेदांती आत्मा के सिद्धांत से मोटिवेशन या व्यक्तित्व विकास का सीधा संबन्ध नहीं है. बुद्ध की अनत्ता या अनात्मा से न सिर्फ मोटिवेशन का बल्कि जीवन और जगत के सभी सुधारों की संभावना का सीधा संबन्ध है. सनातन आत्मा का सिद्धांत एक भयानक गुलामी और अकर्मण्यता का सिद्धांत है. सनातन आत्मा का सीधा अर्थ पुनर्जन्म से है और हजारों जन्मों के बाद आपका यह जन्म उन अनन्त संस्कारों के सामने तिनके के बराबर है. ओशो रजनीश और आसाराम जैसे वेदांती पंडित प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण कर्मों की जो व्याख्या करते हैं उसमे भी इस जन्म में करने योग्य या बदलने योग्य अवसर न के बराबर हैं. ये पोंगा पंडित समझाते हैं कि अनन्त जन्मों के अनन्त संस्कार हैं जिनसे आपकी आत्मा बंधी हुई है, उसी से आपका मन या बुद्धि बनी है आपके रुझान और आपकी क्षमताएं या कमजोरियां बनी हैं. इस जन्म में उस प्राचीन ढेर को मिटाना लगभग असंभव है इसलिए आप भाग्य के प्रारब्ध के गुलाम हैं. ये मान्यता जहर की तरह भारतीयों के खून ने घुस गई है.

इसका अर्थ ये हुआ कि आप जीवन, जगत, मन, शरीर, समाज, व्यवस्था आदि को बदलने के लिए कुछ ज़्यादा नहीं कर सकते क्योंकि करने वाला क्रियानन्द ही प्रारब्ध से बंधा है, मतलब पूरा समाज और राष्ट्र ही एक सामूहिक प्रारब्ध से बंधा है अब उसके अनन्त प्रारब्ध या संचित कर्म को कैसे काटें? एक इंसान के संचित कर्मों के भंडार को जलाना ही जन्मों की तपस्या या साधना से संभव है, इस बीच इन जन्मों में किये पाप और नई कर्म श्रृंखला बनाते हैं. इस प्रकार व्यक्तिगत मुक्ति या बदलाव सहित सामूहिक या समाज का बदलाव आत्मा के सिद्धांत के साथ असंभव है. इसीलिये भारत सड़ता रहा है. गुलाम गरीब और अंधविश्वासी होता रहा है.

लेकिन सनातन आत्मा की जगह बुद्ध की अनत्ता को रखकर देखिये. तस्वीर एकदम बदल जाती है.

बुद्ध के अनुसार शरीर बाहर से मिलता है, पहला अणु माँ बाप से फिर बाद में सब कुछ भोजन से निर्मित हुआ, आपका अपना कुछ नहीं. जैसा भोजन मिला वैसा शरीर और स्वास्थ्य बना. भोजन आप रोज करते हैं सही भोजन से स्वस्थ रहेंगे गलत भोजन से बीमार होंगे. गलत भोजन को बंद करके सही भोजन लेने लगेंगे तो शरीर और स्वास्थ्य सुधरने लगेगा. अब इस बात को ओशो रजनीश, जग्गी वासुदेव, आसाराम जैसे वेदांती पंडित भी मानते हैं. लेकिन वे इससे आगे जाने में घबराते हैं.

बुद्ध एक कदम और उठाते हैं और कहते हैं कि शरीर तो बाहर से आया है ही, ये तथाकथित आत्मा या स्व भी बाहर से ही आता है. जैसे शरीर भोजन का ढेर है वैसे ही स्व या व्यक्तित्व या मन या तथाकथित आत्मा भी विचारों, सपनों, स्मृतियों, संस्कारों, शिक्षा, कंडीशनिंग आदि का ढेर मात्र है. आपको गलत समाज, परिवार या संगति मिली है तो आपका स्व या मन गलत ढंग से काम करेगा, खुद के लिए और दूसरों के लिए दुःख पैदा करेगा. इस गलत कंडीशनिंग को सही कंडीशनिंग या विचारों या शिक्षाओं से बदला जा सकता है. और व्यक्ति और समाज को बदला जा सकता है.

चूँकि स्व या व्यक्तित्व भी क़तरा क़तरा बाहरी वातावरण से इकट्ठा करके बनाया जाता है इसलिए नये और अच्छे विचारों, संस्कारों के टुकड़ों को चुनकर मन में सजाते जाने से मन और व्यक्तित्व (जो कि अस्थाई हैं, सनातन नहीं) में बदलाव किया जा सकता है. तो जैसे गलत भोजन बन्द करके सही भोजन से कुछ महीनों में शरीर बदलने लगता है वैसे ही सही विचारों और शिक्षण से मन या व्यक्तित्व भी बदलने लगता है.

लेकिन अगर स्व या व्यक्तित्व या आत्मा सनातन है तो उसमें कोई बदलाव संभव नहीं. इसे ऐसे समझिये, अगर कोई कहे कि आपका शरीर सनातन है, उसने लाखों साल तक जो भोजन किया है उसके कारण कोई बीमारी बनी है. तो इसका अर्थ हुआ कि अब उस लाखों साल के अतीत का परिणाम जब तक मिटाया न जाए तब तक इस शरीर की बीमारी नहीं मिटाई जा सकती. लेकिन सच्चाई ये है कि शरीर ठीक भोजन और औषधि से कुछ दिनीं या महीनों में बदलने लगता है. इसका मतलब है कि शरीर सनातन नहीं है.

अब मन या स्व पर आइये. हम देखते हैं कि कुछ महीनों में कोई नई भाषा, नई तकनीक, नया हुनर या व्यवहार सीखा जा सकता है. व्यक्तित्व का ढंग ढोल बदला जा सकता है. शिक्षण प्रशिक्षण और मोटिवेशन सहित सेल्फ इम्प्रूवमेंट या समाज के देश के डेवेलपमेंट का सारा ढांचा ही स्व या मन के अस्थाई और परिवर्तनशील होने की संभावना पर खड़ा है. अगर मन या स्व या आत्मा सनातन हुई तो उसमें कोई बदलाव संभव ही नहीं है.

अब ओशो जैसे पोंगा पंडितों की सनातन आत्मा और बुद्ध की अनात्मा के सिद्धांत को जीवन, जगत समाज राष्ट्र और दुनिया के संदर्भ में रखकर देखिये. साफ़ नजर आता है कि अगर सनातन आत्मा और अनन्त संचित कर्म का सिद्धांत माना जाए तो जीवन सिर्फ अतीत और भाग्य की गुलामी बनकर रह जाएगा. और यही भारत का जीवन बन गया है. इसके विपरीत अगर हर जीवन को नया और एकमात्र जीवन माना जाए तो बदलाव सुधार और विकास तेजी से होता है. जैसे यूरोप में हुआ है.

इस तरह जीवन का एक बहुत प्रेक्टिकल आयाम जो आजकल की युवा पीढ़ी के लिए जरूरी है, मोटिवेशन या सेल्फ इंप्रूवमेंट- उसे बुद्ध की अनत्ता को समझकर और प्रयोग करके आसानी से हासिल किया जा सकता है. अनत्ता यही सिखाती है कि सबकुछ क्षणिक और अस्थाई है. सब कुछ स्वयं ही बदल रहा है आप चाहें तो ये बदलाव सही दिशा में भी जा सकता है. या फिर सभी बदलावों को चुपचाप देखते हुए आप शून्य भी हो सकते है. सेल्फ या स्व को क्षणिक मानना न केवल अतीत से मुक्त कर देता है बल्कि भविष्य का नियंत्रण भी आपके हाथ में दे देता है.

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