मायावती ने फेरा कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी

नई दिल्ली। कौन कहता है कि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सुप्रीमो मायावती बड़े सपने नहीं देखतीं? उत्तर प्रदेश में एक के बाद एक 3 विधानसभा तथा लोकसभा चुनाव हारने, वर्तमान लोकसभा में एक भी सीट न मिलने के बाद उन्होंने अभी भी इस देश की पहली दलित प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा नहीं छोड़ी है. इस बारे बात करना अभी जल्दबाजी होगी लेकिन इस महत्वाकांक्षा को बड़े लम्बे समय से पाले हुए खुद मायावती ने 2012 में एक चुनावी रैली के दौरान दहाड़ लगाई थी कि ‘सत्ता की चाबी उनके हाथ में है.’

2014 में बसपा ने उन्हें अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था. इस वर्ष मई में बसपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने एक प्रस्ताव पारित करके यह घोषणा की थी कि 2019 के चुनावों में मायावती प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार होंगी. वह यह किसी मकसद के बिना नहीं कर रहीं क्योंकि इस इरादे का मकसद पार्टी कार्यकत्र्ताओं को प्रेरित करना है ताकि वे ‘दलित की बेटी’ शीर्ष पर पहुंच रही है, का सपना बेच सकें. कम से कम इतना हो कि वह 2019 के बाद के चुनावी परिदृश्य में एक किंगमेकर के तौर पर उभरें.

मजे की बात यह है कि उनकी पार्टी के निरंतर पतन के बावजूद राजनीतिक दल बसपा के साथ एक साधारण कारण से गठबंधन करने के लिए एक-दूसरे के साथ होड़ में हैं, वह यह कि बसपा के वोट हस्तांतरणीय हैं. जहां यह एक बड़ा प्रश्र हो सकता है कि वह अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा कर पाएंगी, वहीं विपक्षी एकता के लिए बड़ी योजनाओं में उनकी प्रासंगिकता पर प्रश्र नहीं उठाया जा सकता. यहां तक कि भाजपा भी बसपा के साथ गठबंधन बनाने के खिलाफ नहीं है. बसपा की 18 राज्यों में उपस्थिति है. यदि मत हिस्सेदारी की बात करें तो कांग्रेस तथा भाजपा के बाद यह तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है. 2014 में एक भी सीट हासिल न होने के बावजूद इसने यू.पी. में 19.8 प्रतिशत वोट हासिल किए, जबकि मध्य प्रदेश तथा उत्तराखंड में 4.5 प्रतिशत से अधिक. इसके अतिरिक्त इसने कर्नाटक, पंजाब, दिल्ली, राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ में सम्मानजनक मत हिस्सेदारी प्राप्त की.

गोरखपुर तथा फूलपुर में हुए हालिया लोकसभा उपचुनावों में सपा का समर्थन करने के बाद मायावती की ताकत बढ़ी है, जो यह दिखाता है कि संयुक्त विपक्ष भाजपा को आसानी से हरा सकता था. कर्नाटक में जद (एस.) के साथ ऐसा ही चुनाव पूर्व गठबंधन एक संयुक्त विपक्ष की सफलता को दर्शाता है. इस बात की सम्भावना थी कि इसे सम्भवत: वर्ष के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों के साथ-साथ 2019 के लोकसभा चुनावों तक खींचा जा सकता है. पहली परीक्षा राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में होने वाले विधानसभा चुनाव होंगे, जहां इन सभी भाजपा शासित राज्यों में कड़ी सत्ता विरोधी लहर चल रही है.

भाजपा अथवा कांग्रेस के लिए पराजय या जीत के दूरगामी परिणाम होंगे. राजस्थान में दलितों की संख्या कुल जनसंख्या का 17 प्रतिशत से अधिक है, मध्य प्रदेश में 15 प्रतिशत तथा छत्तीसगढ़ में लगभग 12 प्रतिशत और तीनों राज्यों में 65 लोकसभा सीटें हैं. 2013 के विधानसभा चुनावों में बसपा को राजस्थान में 3.5 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 6.3 प्रतिशत तथा छत्तीसगढ़ में 4.25 प्रतिशत वोट मिले थे इसलिए मायावती लेन-देन की स्थिति में हैं. यद्यपि महागठबंधन, जिसके बनने की आशा कांग्रेस कर रही थी, के लिए जाने की बजाय मायावती ने पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के साथ गठजोड़ करके अपनी आशा छत्तीसगढ़ पर केन्द्रित कर दी है. जोगी ने कांग्रेस छोड़ कर अपनी जनता कांग्रेस का गठन किया था. मायावती ने दिखाया है कि वह अप्रत्याशित हैं और आंख मूंद कर भाजपा विरोधी मोर्चे में शामिल नहीं होंगी. यह कांग्रेस के लिए दोहरा अपमान है कि उन्होंने गठजोड़ के लिए अजीत जोगी को चुना.

दूसरे झटके के तौर पर मध्य प्रदेश में बसपा ने सभी सीटों पर चुनाव लडऩे का निर्णय किया है, जबकि कांग्रेस सीटों के बंटवारे के फार्मूले को लेकर टाल-मटोल कर रही थी. जहां बसपा ने मध्य प्रदेश में केवल 4 सीटें जीती थीं, दलित मतदाता सम्भवत: संतुलन को उनके पक्ष में झुका सकते हैं, विशेषकर चम्बल क्षेत्र में. कांग्रेस को तीसरा झटका देते हुए बसपा सम्भवत: राजस्थान में सपा तथा वामदलों द्वारा गठित तीसरे मोर्चे के साथ गठजोड़ कर सकती है, जहां कांग्रेस जीतने की स्थिति में है. यदि कांग्रेस सीटों के बंटवारे के मामले में बसपा के साथ अधिक उदार होती तो मामला इतना नहीं बिगड़ता. कांग्रेस अभी भी ‘बहुमत वाली पार्टी की मानसिकता’ में है और इस वास्तविकता का एहसास नहीं कर रही कि वह अपनी ताकत गंवा चुकी है. अत: विपक्षी वोटें विभाजित हो सकती हैं जिसका लाभ सम्भवत: भाजपा को होगा.

भाजपा की सत्ता में वापसी करने की आशा पूरी तरह से एक विभाजित विपक्ष पर टिकी है और केन्द्र में सत्ता में होने के नाते भाजपा मायावती तथा अन्य विपक्षी नेताओं पर दबाव बनाने की स्थिति में है, जो विभिन्न केसों का सामना कर रहे हैं. मायावती तथा अजीत जोगी दोनों ही छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार के सी.बी.आई. केसों का सामना कर रहे हैं. ये सब दिखाता है कि यदि चीजों के साथ सही तरीके से नहीं निपटा गया तो विपक्ष की महागठबंधन की योजना आसान नहीं होगी. यही मायावती ने उत्तर प्रदेश में किया जो अधिक मायने रखता है. उस समय तक विपक्ष को पता चल जाएगा कि वह कहां पर खड़ा है और इस बात की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए वे सम्भवत: एक साथ आ जाएं मगर अधिकतर पाॢटयां चुनावों के बाद की स्थितियों को नजर में रखे हुए हैं. अब जो स्थिति है उसके अनुसार इस बात में कोई संदेह नहीं कि मायावती ने अपना रास्ता खुद चुन कर कांग्रेस की आशाओं पर पानी फेर दिया है.

Read it also-SC/ST एक्ट: सात साल की सजा से कम के मामलों में बिना नोटिस गिरफ्तारी नहीं

  • दलित-बहुजन मीडिया को मजबूत करने के लिए और हमें आर्थिक सहयोग करने के लिये आप हमें paytm (9711666056) कर सकतें हैं। 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.