मनु या मैकाले

भारतीय इतिहास में दो तारीखें इस देश की मूलनिवासी दलितबहुजनों के लिये विशेष मायने रखती है, पहला 06 अक्टूबर 1860 और दूसरा 26 जनवरी 1950 . 06 अक्टूबर 1860 को इंडियन पेनल कोड (भारतीय दंड संहिता) लागू हुआ था और 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान. आईपीसी लागू होने पर कानून के समक्ष ब्राह्मण शूद्र सभी बराबर हो गये और संविधान लागू होने पर वर्षों से चली आ रही मानवता का कलंक अस्पृश्यता को संविधान की आर्टिकल 17 में न केवल समाप्त कर दिया गया बल्कि इसका आचरण और व्यवहार करना कानूनी रूप से दंडनीय भी माना गया. अब अछूत मानव पशु से मानव बन कर जी सकते थे तथा विकास पथ पर अंतरिक्ष से भी आगे जाने के लिए स्वतंत्र थे.

आई0पी0सी0 को लागू करने वाले लार्ड मेकाले (ब्रिटिश शिक्षाविद्) और संविधान की रचना करने वाले धरती पुत्र विश्वविभूति डाॅ0 बाबासाहब अम्बेडकर थे. ये दोनों महामानव बहुजनों के लिए मसीहा के रूप में अवतरित हुये थे. लार्ड मेकाले भले ही किसी और के लिए आलोचना के पात्र हो सकते हं, किन्तु बहुजनों के लिये किसी फरिस्ता से कम नहीं थे.
लार्ड मेकाले: कानूनी समता के अग्रदूत:- लार्ड मेकाले ने नई शिक्षा नीति और आईपीसी लागू कर दलितों के उन्नति और मुक्ति का द्वार खोल दिया. आईपीसी लागू होने के पहले भारत में मनुस्मृति के आधार पर कानून व्यवस्था चलता था. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को एक ही अपराध के लिये अलग-अलग दंड विधान थे. ब्राह्मण मृत्युदंड ;ब्ंचपजंस च्नदपेीउमदज द्ध से मुक्त था चाहे वह कितना भी जघन्य अपराध क्यों न किया हो. परन्तु मेकाले ने वर्णवाद पर आधारित मनु की विधान को आईपीसी से ध्वस्त कर दिया तथा भारत में आजादी के पूर्व ही कानूनी रूप से समता का बेजोड़ मिषाल प्रस्तुत किया. इससे वर्षो से कू्रर षोषण के चक्की में पीसते अछूतों को जीने की एक आषा जगी. अब यदि किसी के विरूद्ध हत्या का आरोप सिद्ध होता है तो उसे भारतीय दंड संहिता की दफा 302 के तहत उम्रकैद अथवा फाँसी की सजा दी जाती है चाहे वह ब्राह्मण हो या भंगी.

मनु ने बहुजनों को षिक्षा-सम्पति से वंचित कियाः- ऋग्वेद में चार वर्णो की कल्पना है. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र. ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने के कारण शिक्षा का अधिकारी केवल वही है जबकि ब्रह्मा के पैर से जन्मे शूद्र का काम सिर्फ तीनों वर्णो की वगैर मजदूरी लिये सेवा करना है. मनु ने इसी को आधार बना कर बहुजनों पर ढ़ेर सारी निर्योग्ताएं लाद दी. उसके अनुसार शूद्र को विद्या नही ग्रहण करना चाहिए. समर्थ होने पर भी वह सम्पति नहीं रखे. वह गांव के आखिरी छोर पर बसे. जूठा भोजन करे तथा मुर्दों पर का वस्त्र पहने. शूद्र को राजा और न्यायधीश बनने का अधिकार नहीं है, आदि.

मनु के उपर्युक्त विधानों के उल्लंघन करने पर कठोर दंड दिया जाता था. मनु प्रथम व्यक्ति था जिसने भारत में अपराधों को चिन्हित कर उसे दंडविधान से जोड़ा तथा उसका नियमन किया. मनु ने षारीरिक चोट, चोरी, डकैती, झुठी गवाही, आपराधिक विष्वासघात, धोखाधड़ी, व्यभिचार तथा बलात्कार जैसे कृत्य को अपराध की श्रेणी में चिन्हित किया. राजा न्याय करता था तथा आर्थिक दंड राजकोष में जमा होता था. पीड़ित को कोई मुआवजा नहीं दिया जाता था. मनुस्मृति की रचना ईसा पूर्व 185 के आस-पास की गई थी. ऐसा नहीं है कि 2000 साल से अधिक बीत जाने कें बाद उसका असर कम हो गया. मनु का भूत आज भी ब्राह्मणों पर सवार है. मनु के विधानों का समर्थन करते हुये बाल गंगाधर तिलक ने बाबासाहब और षाहू जी महाराज द्वारा साउथवरों कमिषन के समक्ष विधान मंडलों में दलित-पिछड़ों के लिये प्रतिनिधित्व की मांग करने पर घोर आपति जताया था. वे बहुजनों को विकास के पथ पर आगे बढ़ने से वंचित करना चाह रहे थे. तिलक ने मनु विधान का अनुषरण कर कहा था कि ’’दलित पिछडों को मिडिल क्ल्लास से ज्यादा षिक्षा ग्रहण नहीं करना चाहिए.’’ ”09 जनवरी 1917 को यवतमल में उन्होंने ऐलान किया था कि ”हमारा कानून मनुस्मृति है’’( आमचा कायदा म्हण्जे मनुस्मुति). इसीलिए वे चाहते थे कि भारत में राज अंग्रेज करें और नौकरषाही ब्राह्मणों के हाथ में रहे, उनकी नज़र में स्वराज का यही मतलब था (छत्रपति षाहू द पीलर आॅफ षोसल डेमोक्रेसी).” जब तिलक जैसे महाविद्वान मनु का कट्टर सर्मथक हो सकता है तो सधारण ब्राह्मणों को क्या कहा जाय? तिलक ने मनुस्मृति द्वारा षूद्रों पर थोपी गई निर्योग्यताओं का कभी बुरा नहीं माना.

मनु विधान के कारण बाबासाहब अम्बेडकर को संस्कृत शिक्षा से वंचित किया तथा विद्वता की षिखर पर होने के बावजूद हर मोड़ पर उन्हें जाति के नाम पर तिरस्कृत किया. मनु के कारण ही महामना ज्योतिबा राव फूले को कक्षा से नाम काट कर भगा दिया गया. मनु के कारण ही शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक ब्राह्मणों ने पैर में अंगुठा से कराया तथा उनके पोता छत्रपति शाहुजी महाराज को पंचगंगा में षाही स्नान के मौके पर उनके राज पुरोहित राजोपाध्याय द्वारा अपमानित किया गया. मनु का ही प्रभाव है कि आज सारा दलित बहुजन समाज दबा कुचला तथा षोषित पीड़ित है जबकि मुट्ठी भर लोग उनपर षासन और षोषण कर रहे हैं.

लार्ड मेकाले: बहुजन षिक्षा के क्रंातिदूत:- मैकाले ने मनु के वर्षो से चली आ रही बनाई विधान को नई शिक्षा नीति लागू कर विध्वंस कर दिया तथा बहुजनों के लिये षिक्षा का द्वार खोल दिया. 10 जून 1834 को लार्ड मैकाले गवर्नर जनरल की काउंसिल का कानून सदस्य नियुक्त हो कर भारत आया. वर्ष 1813 में ब्रिटिश संसद ने ईस्ट इंडिया कम्पनी पर एक षर्त लगाई, जिसके मुताबिक कम्पनी को हर साल कम से कम एक लाख रूपये भारतीयों की षिक्षा पर खर्च करने होते थे. प्रष्न था किस तरह की षिक्षा भारतीयों को दी जाय. भारत की वर्तमान षिक्षा या ब्रिटिष सिस्टम की शिक्षा. मेकाले ने ब्रिटिश सिस्टम की शिक्षा लागू करने की सिफारिश की थी. उसने अंग्रेजी और साइंस पर जोर दिया था. गवर्नर जनरल बिलियम बैन्टिक ने मेकाले के प्रस्ताव को मंजूर कर लिया साथ ही उसने दूसरी भारतीय भाषाओं की शिक्षा को जोड़ दिया.

मेकाले की षिक्षा नीति का प्रभाव:- वर्ष 1835 से 1853 तक के काल में मेकाले की नीति का ही कार्यान्यवन हुआ. बंगाल में नये स्कूल और काॅलेज खोले गये. प्रत्येक जिले में एक जिला स्कूल खोला गया. 1841 में बंगाल, बंबई और मद्रास में लोक षिक्षा परिषदों की स्थापना की गई. 1844 में घोषणा किया कि अंग्रेजी स्कूलों में षिक्षा प्राप्त करने वाले लोगों को सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता दी जायगी.

”अंग्रेजी शिक्षा का ही प्रभाव था जिसने अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को जन्म दिया. पाष्चात् विचार और विज्ञान से भारत में राजनैतिक जागृति, वैज्ञानिक चेतना और धार्मिक विचार धाराएँ पनपी (भारतीय शिक्षा का इतिहास-शंकर विजयवर्गीय).” अंग्रेजी शिक्षा नहीं लागू होती तो भारत बुद्ध को अब तक नहीं जान पाता. अंग्रेजी में लिखी-सर इडवीन अरनाल्ड की ’’लाइट आॅफ एशिया’’ सर्व प्रथम बुद्ध को विश्व फलक पर लाया. मैकाले की अंग्रेजी षिक्षा नीति के कारण ही कल्पना चावला और सुनिता विलियन जैसे भारतीय मूल की विदेषी महिला अंतरिक्ष में दौड़ लगाकर भारत और विश्व का मान बढ़ाया. प्रसिद्ध लेखक एवं चिंतक मा0 चन्द्रभान के अनुसार इसी शिक्षा नीति के कारण भारत सर्विस सेन्टर में विष्व में अपनी जगह बना रहा है. अमेरिका की शायद ही ऐसी कोई युनिवर्सिटी होगी जहाँ भारतीय मूल के प्रोफेसर न हो. अमेरिका और ब्रिटेन में भारतीय डाक्टरों की अच्छी डिमांड है.’’ स्वामी विवेकानंद जैसा शूद्र संत अंग्रेजी शिक्षा का सहारा लेकर ही षिकागो में हिन्दूत्व का धूम मचा सके.

मेकाले के आलोचक विकास के दुष्मनः- परम्परावादी हिन्दू मेकाले की शिक्षा नीति का आलोचना करते हंै, उसे कोषते है; इसलिए कि मेकाले ने मनू विधान को चुनौती दी तथा ब्राह्मणों की षिक्षा पर एकाधिकार की परम्परा को तोड़ कर षिक्षा में समता की धारा प्रवाहित किया. मेकाले के इस कथन ’’ हमारे पास उपलब्ध संसाधनों के आधार पर यह मूमकीन नहीं कि सभी भारतीयों को एक साथ शिक्षित किया जा सके. कोषिस करनी चाहिए कि ऐसा वर्ग तैयार किया जाय, जो रक्त रंग से तो भारतीय हो, पर स्वाद नज़रिया, नैतिकता बौद्धिकता में इंगलिष हो और जो हमारे शेष भारतीयों के बीच इन्टरप्रेटर का काम कर सके, को गलत समझा गया. सच तो यह है कि इतिहास के पन्ने कहते हंै कि मेकाले भारत के भाग्य विधाता साबित हुये. जिस अंग्रेजी की नींव उन्होनें सन 1835 में डाली आज उसी के सहारे भारत दुनिया पर हावी हो चला है. यदि अब भी कोई मेकाले को कोसता है तो माना जायगा कि वह विकास का दुश्मन है.

संस्कृत षूद्रों का जीवन नर्क बनाया:- यदि मेकाले की षिक्षा नीति और 1854 का मौजूदा एजुकेषन सिस्टम लागू नहीं होता तो क्या होता ? तब भारत की धरती पर मनुस्मृति पर आधारित शिक्षा पद्धति लागू रहता. सारे धर्मशास्त्र संस्कृत में है और इन्हीं धर्मशास्त्रों में बहुजनों के ऊपर ढ़ेर सारी निर्योग्ताएं थोपी गई है. आज भी ये सब लागू रहता . हम अनपढ़ और अनाथ रहते, जुठन पर जिंदा रहते, षरीर में चिता का भस्म लगाकर घूमते तथा मरे जानवरों की लाषें खाते और ढ़ोते रहते. बहुजन गांव के बाहरी छोर पर रहता और पषुओं जैसा जीवन जीता क्योंकि तब अंग्रेजी शिक्षा से लैस डाॅ. बाबासाहब जैसा कोई मसीहा भी नहीं मिलता, जो हमें मुक्ति देकर उन्नति के मार्ग पर अग्रसर करता. न कोई कांशीराम बनता न कोई मायावती (मुख्यमंत्री), के. आर. नारायण (राष्ट्रपति) तथा जी.बी. बाला कृष्णन (सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायधीष) पैदा होता. बहुजन सिर्फ और सिर्फ अछूत और दास बन कर पशुओं से भी बदत्तर जीवन जीता.

मनु का दंड-विधान वर्णवाद पर आधारित:- मनु ने न केवल बहुजनों को षिक्षा और सम्पति के अधिकार से वंचित किया बल्कि उनके लिये कठोर दंड विधान भी बनाया. मनु का दंड विधान जाति आधारित था. एक ही अपराध के लिए ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय तथा शूद्र के लिये अलग-अलग दंड का प्रावधान था. ब्राह्मण को मृत्युदंड से मुक्त रखा गया था. भले ही वह कईयों की हत्या कर दे. मनु के अनुसार राजा ब्राह्मण का वध नहीं करेगा, चाहे उसने कितने ही भयंकर अपराध किये हो (मनु-8.350). इस पृथ्वी पर ब्राह्मण वध के समान कोई दूसरा बड़ा पाप नहीं है अतः राजा ब्राह्मण के वध का विचार मन में भी ना लाये (मनु-8.581). राजा आर्थिक दंड की राशि ब्राह्मण को दे (मनु-8.336). यदि कोई षूद्र ब्राह्मणी स्त्री के साथ व्यभिचार करे तो उसका लिंग कटवा कर राजा सारी संपति ले ले, वैष्य को इसी अपराध के लिये एक वर्ष की कारावास और सारी सम्पति से बेदखल कर दंड दे. परन्तु इसी अपराध के लिये क्षत्रिय और ब्राह्मण को सिर्फ एक हजार पण का आर्थिक दंड दे (मनु -8-374-383). ब्राह्मण की सम्पति राजा कभी न ले (मनु-9.189). शूद्र ऊँचे वर्ण की आजीविका कभी न अपनावे, ऐसा करने पर राजा उसकी सम्पति छीन कर उसे देश से निष्कासित कर दे (मनु-10.96). अगर कोई शूद्र अहंकार वश ब्राह्मण को उपदेष दे तो राजा उसके मुंह और कान में खौलता तेल डलवावे (मनु-8.272). शूद्र यदि ब्राह्मण की निंदा करे, कठोर वचन कहे तो उसकी जिह्वा काट कर फेंक देनी चाहिए क्योंकि वह जन्म से ही नीच है.

मनु का उपरोक्त दंड विधान कू्ररतम और दिल दहला देने वाला है. यदि मेकाले आईपीसी लागू नहीं करता तो मनु विधान प्रत्यक्ष रूप से आज भी लागू रहता; तब हमारी स्थिति कैसी होती है ? यह लिखने की आवष्यकता नहीं है.

मेकाले की दंड संहिता समता पर आधारित:- प्रख्यात लेखक, स्तम्भकार और डाइवर्सिटी आन्दोलन के नायक मा. एच0 एल0 दुसाध लिखते है कि ’’लार्ड मेकाले भारत में एक फरिस्ते के रूप में आविर्भाव हुआ. वे फादर विलियन केरी और चाल्र्स ग्रान्ट के भारत सुधार वादी मंत्रों से अभिप्रेरित थे.’’ मेकाले ने भारत आने से पूर्व ब्रिटिष पार्लियामेन्ट को संबोधित करते हुये बडे क्षोभ के साथ कहा था ’’भारत में पंडितों और काजियों का कानून चलता है जो भारत के बृहतर हित में घातक है. यहाँ मुसलमान कुरान द्वारा और हिन्दू मनुविधान द्वारा षासित होता है.” उस समय भारत के विभिन्न राज्यों में क्रिमिनल लाॅ में समरूपता नहीं थी. लार्ड मेकाले भारत को एक समरूप और समता मूलक कानून देना के उद्देष्य से भारत प्रस्थान किये थे. सन् 1834 में पहला भारतीय विधि आयोग ;थ्पतेज प्दकपंद स्ंू ब्वउपेेपवदद्ध का गठन हुआ जिसका प्रथम प्रेसीडेन्ट लार्ड मेकाले थे. मेकाले 14 अक्टूबर 1837 र्को आ0पी0सी0 का ड्राफ्ट रिर्पोट तत्कालीन गर्वनर जनरल को सौंप दिया. कई बार जाँच-पड़ताल के बाद ड्राफ्ट रिर्पोट को अंतिम रूप से सन् 1856 में प्रस्तुत किया गया. अंततः मेकाले का सोच परिणाम में सामने आया और 06 अक्टूबर 1860 को इंडियन पेनल कोड (भारतीय दंड संहिता) के रूप में यह भारत में लागू हो गया. इसके पारित होते ही भारत के सभी पूर्ववर्ती नियम-कानून निष्प्रभावी हो गये तथा देष में कानूनी एकरूपता और समानता आ गई. मनु का विषमतावादी कानून मिट गया, वर्णवाद की रीढ़ टूट गई. यह भारत में बहुजनों के हक में सबसे बड़ी क्रांतिकारी घटना थी. इस आई0 पी0 सी0 ने कानून के नज़रों में सबको एक समान बना दिया क्या ब्राह्मण, क्या शूद्र सभी एक कानून की तराजू पर तौले जाने लगे. इससे बहुजनों को षिक्षा और सम्पति अर्जन करने के अधिकार मिल गये. बहुजन शिक्षक, चिकित्सक, व्यवसायी, शासक, प्रशासक और लेखक आदि बनने के सपने देखने लगे. यह सपना साकार हुआ भी. इसका सारा श्रेय लार्ड मेकाले को जाता है जिनके अगुवाई में आई0 पी0 सी0 जैसे क्रिमिनल लाॅ बने.

आई0पी0सी0 ने हिन्दू साम्राज्यवाद को ध्वस्त कियाः-मा0 दुसाध साहब डाइवर्सिटी के घोषणा पत्र में लिखते है कि ’’मेकाले ने हिन्दू साम्राज्यवाद से लड़ने का मार्ग प्रषस्त किया है. अगर उन्होंने कानून की नजरों में सबकों एक बराबर करने का उद्योग नहीं किया होता तो डाॅ. अम्बेडकर, कांषीराम, मायावती, लालू प्रसाद यादव, चन्द्रभान प्रसाद, डाॅ. संजय पासवान, राजेन्द्र यादव, एस0 के0 विश्वास इत्यादि जैसे ढे़रों नेताओं, लेखकों नौकरशाहों आदि का उदय नही होता. तब शुद्रातिशूद्रों को विभिन्न क्षेत्रोें में योग्यता प्रदर्षन का कोई अवसर नहीं मिलता. कारण, तब मनु का कानून चलता.” जिन हिन्दू भगवानों और षास्त्रों का हवाला देकर वर्ण-व्यवस्था को विकसित किया गया था, आईपीसी ने एक झटके में झूठा साबित कर दिया. आईपीसी में ब्राह्मणी अर्थव्यवस्था को भी खारिज कर दिया. लेकिन सदियों से अर्थोपार्जन के बंद पडे जिन स्रोतों को मैकाले ने शुद्रातिशूद्रों के लिये मुक्त किया उसका हिन्दू साम्राज्यवाद में शिक्षा व धन बल में उन्हें इतना कमजोर बना दिया गया था कि वे लाभ उठाने की स्थिति में ही नहीं रहे.

बहुजन समाज मेकाले को सम्मान दें:- अंग्रेजी शिक्षा और आईपीसी लागू कर लार्ड मेकाले ने बहुजनों का सदियों से जकडे़ जंजीर को काट दिया है. हम गलतफहमी वश इस मसीहा के प्रति अनादार का भाव रखते हैं, यह ठीक नहीं. हमारे अन्य बहुजन नायकों की तरह वे भी हमारा उद्धारक हैं. उन्होंने षिक्षा, सत्ता, सम्पति पर ब्राह्मणों के एकाधिकार को तोड़ कर और हमें हमारा अधिकार दिलाकर हमारा उद्धार किया है. अंग्रेजों की ईस्ट इंड़िया कम्पनी रूल के कारण ही देश में प्रथम बार सन् 1774 में नंद कुमार देव नाम के एक ब्राह्मण अपराधी कों फांसी की सजा दी गई. जो कि न्यायिक जगत में एक एक महत्वपूर्ण घटना थी. बाद में कम्पनी रूल को हटा कर पूरे भारत में समान रूप से आई0 पी0 सी0 लागू किया गया जिसका श्रेय लार्ड मेकाले को जाता है. वर्णवादी ब्राह्मणवादी के नज़रों में मेकाले भले ही आदरणीय नहीं हो परन्तु बहुजनों के लिए तो वे नायक थे. हम उन्हंे 25 अक्टूबर को उनके 208 वाँ जन्म दिन पर कोटिशः नमन करते हैं.

दो में से क्या चाहिए ? मनु या मेकाले:- इतिहास से सबक लेकर बहुजनों को यह निर्णय लेना है कि उसे किसको चुनना है ? मनु अथा मेकाले को. संकीर्णता से ऊपर उठकर निःसंकोच बहुजन विचार करे, विचार दे और विचार फैलाये. चिल्ला-चिल्लाकर इतिहास कहता है कि मेकाले ने जिस अंग्रेजी शिक्षा की नींव सन् 1835 में और आईपीसी की नींव 1860 में डाली थी उसी के बूते बहुजन विकास के पंख से अंतरिक्ष छूने को बेताब है तथा भारत दुनियां पर हावी हो चला है. इसमें कोई शक नहीं की मेकाले भारत के भाग्य विधाता साबित हुये. प्रसिद्ध स्तम्भकार, लेखक और चिंतक मा. चन्द्रभान प्रसाद का मानना है कि अंग्रेज भारत में देर से आये और पहले चले गये. यदि ब्रिटिश शासन सन् 1600 में पूर्णत स्थापित हो जाता और वे सन् 2001 तक रहते तो दलित समाज आज उन्नति के सोपान पर होता (भारतीय समाज और दलित राजनीति). चन्द्रभान जी की बातों में दम है, इसमें कोई शक नहीं.

आज मेकाले की मूत्र्ति स्थापित करने की जरूरत है; मनु की नहीं. परन्तु राजस्थान उच्च न्यायलय परिषर में अन्याय और असमसनता के प्रतिक मनु की आदमकद मूत्ति न्याय की खुली चुनौति दे रही है. किसी की मूर्ति उसके व्यक्तित्व, कृतित्व और आदर्ष की याद दिलाती है. समाज उसका अनुकरण कर मानववादी और समतावादी विकास के पथ पर प्रषस्त होता है. जब मद्रास षहर की एक प्रमुख सड़क पर जनरल नील की मूर्ति स्थापित की गई तो कांग्रेस के तत्वकालीन प्रखर सांसद एस0 सत्यमूर्ति ने जनरल नील की मूर्ति हटाये जाने का सवाल उठाते हुये कहा था कि “मनुष्य रूप में यह राक्षस मद्रास (अब चेन्नई) षहर के सुन्दरतम सार्वजनिक भागों में से एक को बदनुमा बना रहा है.’’ सत्यमूर्ति ने ब्रिटिष सरकार को याद दिलाया कि नील ने कानपुर में किस कदर क्रूरता का नंगा नाच किया था और विद्रोही गांवों को जला डालने और गांव वालों को मौत के घाट उतरवा कर तथा कथित बागियों के सिर कत़्ल कर के सार्वजनिक स्थलों पर लटकाने का काम किया था. सत्यमूर्ति ने जनरल नील के आदेष पर हुई बर्बरता को ‘‘मनुष्यता के विरूद्ध जधन्य अपराध’’ बताया और कहा कि ‘‘ऐसा नहीं हो सकता कि लोग उस मूर्ति को देख कर यह महसूस करंगेे कि इसे हटाया नहीं जाना चाहिए’’. सता पक्ष के लोगों को इस दलील को अनसुनी करने का नैतिक साहस नहीं था. वे शर्मिंदा हुये और नील की मूर्ति को हटा कर संग्रहालय में रख दिया गया. यह बात 1927 की हैं.

बिल्कूल नील की मूर्ति की तरह ही राजस्थान हाई कोर्ट परिसर में स्थापित मनु की मूर्ति मनु काल की बर्बर और विषम कानून तथा सामाजिक विधान को याद दिलाती है. यह मूर्ति आज के बहुजनों को याद दिला कर विचलित करता है कि किस तरह मनु ने भारत के मूलनिवासियों के ऊपर षास्त्रीय निर्योग्यताओं को थोप कर उन्हें ‘‘षिक्षा, सम्पति और षस्त्र’’ के अधिकार से बंचित किया. ये 85ः बहुजन घोर बंचनाओं के दौर से गुजरते हुये मानव होते हुये मानव-पषु बना दिये गये. वह मनु ही था, जिसने लिखा कि ”यदि षूद्र ब्राह्मण के सामने आसन पर बैठे तो उसके चुतड़ काट देना चाहिए, ब्राह्मणों को दुर्बचन कहे तो उसके मुंह में दस अगुंल की तपाई लोहे की छड़ घुसेड़ देना चाहिए और किसी ब्राह्मणी बाला से प्रेम करे तो उसका लिंग कटवा देना चाहिए.” इतना ही नहीं, ”यदि षूद्र अपनी जीवन निर्वाह के लिये सम्पति रखे तो ब्राह्मणों को उसे छीन लेना चाहिए.” क्या इन टीश भरी बातों का चूभन मनु की प्रतिमा देख कर बहुजन मानस में नहीं होता होगा?

वास्तव में मनु की मूर्ति की मौजूदगी अपने में मानव गरीमा का अपमान है. इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि यह मूर्ति किसी लोकप्रिय मांग के कारण नहीं लगाई गई, बल्कि हुछ लोग इकठा हुये और सार्वजनिक स्थान को हड़प लिया. वे मनु को न देखे हैं और न ही उसका इतिहास जानते हैं, मनुस्मृति किसकी कृति है यह भी ठीक-ठीक पता नहीं, परन्तु मनु के नाम पर हैं, फिर भी मनु की घृणामूलक काल्पनिक मूर्ति लगा दिये. उन्होंने यह जानते हुये भी प्रतिमा की स्थापना कर दी कि भारत के बहुसंख्यक लोग मनु और उसकी कृति से घोर नफरत करते हैं, उसकी मूत्र्ती पर कालिख पोतने हिमाकत रखते हैं. आने वाले समय में यह नफरत की आग एक बड़े क्रांति की ज्वाला का रूप ले सकती है. अतः मनु के मूर्ति को उखाड़ कर किसी अज्ञात कुड़ेदान में फेंक देना चाहिए तथा मनुस्मृति को जला कर भस्म कर देना चाहिए. बाबासाहेब डाॅ0 अम्बेडकर ने 25 दिसम्बर 1927 को काले और क्रूर कानून के प्रतिक मनुस्मृति को सार्वजनिक रूप से दहन कर यह दिखा दिया है कि बहुजनों को किसी भी हाल में मनु और उसके विधान स्वीकार्य नहीं है. आज बाबासाहेब के सच्चे अनुयायियों को ऐसा करने के लिए उद्यत होना चाहिए.

डाॅ0 विजय कुमार त्रिषरण

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