जयंती विशेष: वंचितों के लिए जीवनपर्यंत संघर्ष करते रहे महात्मा फुले

डॉ. अम्बेडकर का मानना था-‘अगर इस धरती पर महात्मा फुले जन्म नहीं लेते तो अम्बेडकर का भी निर्माण नहीं होता.’ डॉ. अम्बेडकर महात्मा फुले के व्यक्तित्व-कृतित्व से अत्यधिक प्रभावित थे. वे महात्मा फुले को अपने सामाजिक आंदोलन की प्ररेणा का स्त्रोत मनाते थे. डॉ. अम्बेडकर ने महात्मा बुद्ध तथा कबीर के बाद महात्मा फुले को अपना तीसरा गुरू माना है. महात्मा ज्योतिबा फुले ऐसे महान विचारक, समाज सेवी तथा क्रांतिकारी कार्यकर्ता थे जिन्होंने भारतीय सामाजिक संरचना की जड़ता को ध्वस्त करने का काम किया. महिलाओं, दलितों एवं शूद्रों की अपमानजनक जीवन स्थिति में परिवर्तन लाने के लिए वे आजीवन संघर्षरत रहे. ज्योतिबा फुले का पूरा नाम जोतिराव गोविंदराव फुले था. उनका जन्मर 11 अप्रैल 1827 को पुणे में महाराष्ट्रे के एक ऐसे माली परिवार में हुआ, जिसे खुश होकर पेशवा ने 36 एकड़ जमीन दे दी थी. सो इस लिहाज से वह एक संपन्न परिवार में पैदा हुए. ज्योतिबा के पिता का नाम गोविन्दथ राव तथा माता का नाम विमला बाई था. जब ज्योतिबा की उम्र एक साल थी, तभी उनकी माता का देहान्ता हो गया. पिता गोविन्दआ राव जी ने आगे चल कर सुगणा बाई नामक विधवा जिसे वे अपनी मुंह बोली बहिन मानते थे उन्हें. बच्चों की देख-भाल के लिए रख लिया. ज्योतिबा को पढ़ने की ललक थी सो पिता ने उन्हें पाठशाला में भेजा था मगर सवर्णों के विरोध ने उन्हेंो स्कूकल से वापिस बुलाने पर मजबूर कर दिया. अब ज्योतिबा अपने पिता के साथ माली का कार्य करने लगे. काम के बाद वे आस-पड़ोस के लोगों से देश-दुनिया की बातें करते और किताबें पढ़ते थे. उन्हों ने मराठी शिक्षा सन् 1831 से 1838 तक प्राप्ति की. सन् 1840 में तेरह साल की छोटी सी उम्र में ही ज्योतिबा का विवाह नौ साल की सावित्री बाई से हुआ. आगे ज्योतिबा का दाखिला स्का्टिश मिशन नाम के स्कूदल (1841-1847) में हुआ, जहां पर उन्होंेने थामसपेन की किताब ‘राइट्स ऑफ मेन’ एवं ‘दी एज ऑफ रीजन’ पढ़ी, जिसका उन पर काफी असर पड़ा. एक बार वह अपने स्कूबल के एक ब्राह्मण मित्र की शादी में उसके घर गए. वहां उन्हें काफी अपमानित होना पड़ा था. इससे उनमें प्रतिरोध का भाव आ गया. उन्होंने मन में इन रुढ़ियों के खिलाफ बगावत करने का पक्का निर्णय कर लिया.

1 जनवरी, 1848 को उन्होंने पुणे में एक बालिका विद्यालय की स्थापना कर दी. 15 मई, 1848 को पुणे की अछूत बस्ती में अस्पृश्य लड़के-लड़कियों के लिए भारत के इतिहास में पहली बार विद्यालय की स्थापना की. थोड़े ही अन्तराल में उन्होंने पुणे और उसके पार्श्ववर्ती इलाकों में 18 स्कूल स्थापित कर डाले. चूंकि हिन्दू धर्मशास्त्रों में शुद्रातिशुद्रों और नारियों का शिक्षा-ग्रहण व शिक्षा-दान धर्मविरोधी आचरण के रूप में चिन्हित रहा है इसलिए फुले दंपति को शैक्षणिक गतिविधियों से दूर करने के लिए धर्म के ठेकेदारों ने जोरदार अभियान चलाया. उस स्कूल में पढ़ाने के लिए कोई शिक्षक न मिलने पर ज्योतिबा फुले की पत्नी सावित्रीबाई फुले आगे आईं. लेकिन जब सावित्रीबाई स्कूल जाने के लिए निकलतीं, वे लोग उनपर गोबर-पत्थर फेंकते और गालियाँ देते. लेकिन लम्बे समय तक उन्हें उत्पीड़ित करके भी जब वे अपने इरादे में कामयाब नहीं हुए, तब उन्होंने शिकायत फुले के पिता तक पहुंचाई. पुणे के धर्माधिकारियों का विरोध इतना प्रबल था कि उनके पिता को ज्योतिबा से स्पष्ट शब्दों में कहना पड़ा कि वो स्कूल बंद कर दें या फिर उनका घर छोड़ दे. फुले दंपत्ति ने 1849 में घर छोड़ देने का विकल्प चुना. उस स्कू ल में एक ब्राह्मण शिक्षक पढ़ाते थे. उनको भी दबाव में अपना घर छोड़ना पड़ा. निराश्रित फुले दंपति को पनाह दिया उस्मान शेख ने. फुले ने अपने कारवां में शेख साहब की बीवी फातिमा को भी शामिल कर अध्यापन का प्रशिक्षण दिलाया. फिर अस्पृश्यों के एक स्कूल में अध्यापन का दायित्व सौंपकर फातिमा शेख को उन्नीसवीं सदी की पहली मुस्लिम शिक्षिका बनने का अवसर मुहैया कराया.

सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूकल खोलकर दिया. सन् 1855 में उन्होंने पुणे में भारत की प्रथम रात्रि प्रौढ़शाला और 1852 में मराठी पुस्तकों के प्रथम पुस्तकालय की स्थापना की. यही वजह है कि बहुजन समाज 5 सितंबर को शिक्षक दिवस का विरोध करता रहा है और रुढ़िवादियों को चुनौती देकर वंचित तबके के लिए पहला स्कूल खोलने वाले ज्योतिबा फुले और प्रथम महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले के सम्मान में ‘शिक्षक दिवस’ की मांग करता रहा है. नारी–शिक्षा, अतिशूद्रों की शिक्षा के अतिरिक्त समाज में और कई वीभत्स समस्याएं थीं जिनके खिलाफ पुणे के हिन्दू कट्टरपंथियों के डर से किसी ने अभियान चलाने की पहलकदमी नहीं की थी. लेकिन फुले थे सिंह पुरुष और उनका संकल्प था समाज को कुसंस्कार व शोषण मुक्त करना. लिहाजा ब्राह्मण विधवाओं के मुंडन को रोकने के लिए नाइयों को संगठित करना, विश्वासघात की शिकार विधवाओं की गुप्त व सुरक्षित प्रसूति, उनके अवैध माने जानेवाले बच्चों के लालन–पालन की व्यवस्था, विधवाओं के पुनर्विवाह की वकालत, सती तथा देवदासी-प्रथा का विरोध भी फुले दंपति ने बढ़-चढ़कर किया.

फुले ने अपनी गतिविधियों को यहीं तक सीमित न कर किसानों, मिल-मजदूरों, कृषि-मजदूरों के कल्याण तक भी प्रसारित किया. इन कार्यों के मध्य उन्होंने अस्पृश्यों की शिक्षा के प्रति उदासीनता बरतने पर 19 अक्तूबर, 1882 को हंटर आयोग के समक्ष जो प्रतिवेदन रखा, उसे भी नहीं भुलाया जा सकता. अपने इन क्रांतिकारी कार्यों की वजह से फुले और उनके सहयोगियों को तरह-तरह के कष्ट उठाने पड़े. उन्हें बार-बार घर बदलना पड़ा. फुले की हत्या करने की भी कोशिश की गई; पर वे अपनी राह पर डटे रहे. अपने इसी महान उद्देश्य को संस्थागत रूप देने के लिए ज्योतिबा फुले ने सन 1873 में महाराष्ट्र में सत्य शोधक समाज नामक संस्था का गठन किया. उनकी एक महत्वपूर्ण स्थापना यह भी थी कि महार, कुनबी, माली आदि शूद्र कही जानेवाली जातियां कभी क्षत्रिय थीं, जो जातिवादी षड्यंत्र का शिकार हो कर दलित कहलाईं.

ज्योतिबा ने समाज और जाति के बंटवारे को भी अपने तर्कों से समझने की कोशिश की. वैसे तो फुले ने शिक्षा और समाज सुधार के क्षेत्र में अतुलनीय कार्य करते हुए सर्वजन का ही भला किया किन्तु बहुजन समाज सर्वाधिक उपकृत हुआ उनके चिंतन व लेखन से. उनकी छोटी-बड़ी कई रचनाओं के मध्य जो सर्वाधिक चर्चित हुईं वे थीं- ब्राह्मणों की चालांकी, किसान का कोड़ा और ‘गुलामगिरी’. इनमें 1 जून, 1873 को प्रकाशित गुलामगिरी का प्रभाव तो युगांतरकारी रहा. ज्योतिबा ने गुलामगिरी प्रकाशित कर भारत के सबसे अधिक शोषित एवं उत्पीड़ित तबके के अछूतों एवं शूद्रों के अधिकारों की घोषणा की थी. अपनी पुस्तक ‘गुलाम गिरी’ की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा है, ‘सैकड़ों साल से आज तक शूद्रादि-अतिशूद्र (अछूत) समाज; जब से इस देश में ब्राह्मणों की सत्ता कायम हुई तब से लगातार जुल्म और शोषण से शिकार हैं. ये लोग हर तरह की यातनाओं और कठिनाइयों में अपने दिन गुजार रहे हैं. इसलिए इन लोगों को इन बातों की ओर ध्यान देना चाहिए और गंभीरता से सोचना चाहिए. ये लोग अपने आपको ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों की जुल्म-ज्यादतियों से कैसे मुक्त कर सकते हैं. यही आज हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण सवाल हैं; यही इस ग्रंथ का उद्देश्य है.’ ज्योतिबा ने लिखा है, ‘यह कहा जाता है कि इस देश में ब्राह्मण-पुरोहितों की सत्ता कायम हुए लगभग तीन हजार साल से भी ज्यादा समय बीत गया होगा. वे लोग परदेश से यहां आए. उन्होंने इस देश के मूल निवासियों पर बर्बर हमले करके इन लोगों को अपने घर-बार से, जमीन-जायदाद से वंचित करके अपना गुलाम (दास) बना लिया. उन्होंने इनके साथ बड़ी अमानवीयता का रवैया अपनाया था. ब्राह्मणों ने यहां के मूल निवासियों को घर-बार, जमीन-जायदाद से बेदखल कर इन्हें अपना गुलाम बनाया है, इस बात के प्रमाणों को ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने तहस-नहस कर दिया. दफना कर नष्ट कर दिया.’ अंग्रेजी शासन को ज्योतिबा ने दलित एवं वंचितों के हित के रूप में देखा. उनका मानना था कि इस देश में अंग्रेज सरकार आने की वजह से शूद्रादि-अतिशूद्रों की जिंदगी में एक नई रोशनी आई. उन्होंने कहा कि यह कहने में किसी प्रकार का संकोच नहीं है कि अंग्रेजों के शासनकाल में ही ये लोग ब्राह्मणों की गुलामी से मुक्त हुए.

मुम्बाई सरकार के अभिलेखों में भी ज्योतिबा फुले द्वारा पुणे एवं उसके आस-पास के क्षेत्रों में शुद्र बालक-बालिकाओं के लिए कुल 18 स्कू ल खोले जाने का उल्लेआख मिलता है. समाज सुधारों के लिए पुणे महाविद्यालय के प्राचार्य ने अंग्रेज सरकार के निर्देश पर उन्हेंन पुरस्कृनत किया और वे चर्चा में आए. इससे चिढ़कर सवर्णों ने कुछ अछूतों को ही पैसा देकर उनकी हत्या‍ कराने की कोशिश की गई पर वे उनके शिष्य़ बन गए. सितम्बर 1873 में इन्होंने महाराष्ट्र में ‘सत्य शोधक समाज’ नामक संस्था का गठन किया. महात्मा फुले एक समता मूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है. पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है. गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया. उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की. जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमद नगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था. इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं था लेकिन महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया.

स्त्रियों के बारे में भी महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे. मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं, लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा. उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया. फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की. प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था. ज्योतिबा ने शराब बंदी के लिए भी काम किया था. वह मानवता के वाहक थे. एक गर्भवती ब्राह्मण विधवा को आत्मं हत्या करने से रोक उन्होंने उसके बच्चेा को गोद ले लिया. जिसका नाम यशवंत रखा गया. अपनी वसीयत ज्योतिबा ने यशवंत के नाम ही की. सन् 1890 में ज्योतिबा के दाएं अंगों को लकवा मार गया. तब वे बाएं हाथ से ही सार्वजानिक सत्यक धर्म नामक किताब लिखने में लग गये. 28 नवम्बर 1890 को उनका महापरिनिर्वाण हो गया. बहुजन समाज महात्मा ज्योतिबा फुले को ‘राष्ट्रपिता’ का दर्जा देता है.

ज्योतिबा फुले के महत्व को इससे भी समझा जा सकता है कि डॉ. अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘’शूद्र कौन थे?’’ को 10 अक्टूबर 1946 को महात्मा फुले को समर्पित करते हुए लिखा- ‘‘‘जिन्होंने हिन्दु समाज की छोटी जातियों को, उच्च वर्णो के प्रति उनकी गुलामी की भावना के संबंध में जागृत किया और जिन्होंने विदेशी शासन से मुक्ति पाने से भी ज्यादा सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना को महत्व दिया, उस आधुनिक भारत के महान शूद्र महात्मा फुले की स्मृकति में सादर समर्पित.

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