आज कुछ अप्रत्याशित हुआ. मैं अपने घर में केवल रिश्तेदारों, अभिन्न मित्रों, प्रेस वालों और उनको जिन्हें मैं आसपड़ोस में होने के कारण जानता हूँ, आने देता हूँ. जो लेखक मित्र फोन पर समय लेकर आते हैं, वे भी मेरे अतिथि बनते हैं. पर आज शाम मैं हैरान रह गया. मैं अपने रूटीन से जब शाम को फ्रेश होकर स्ट्डी रूम में आया, तो कमरा खुला पाया, और तीन अनजाने लोगों को बैठा पाया. देख कर दिमाग भन्ना गया.
उन्हें बहू ने कमरा खोलकर बैठा दिया था. उसने सोचा मिलने आए हैं तो बैठा दूं. उसने सावधानी नहीं बरती. खैर बातचीत हुई. बोले हम इसी कॉलोनी में रहते हैं. मैंने कहा मैंने इससे पहले आपको कभी नहीं देखा. बताइए कैसे आना हुआ? बोले, आरएसएस की ओर से एक कार्यक्रम हो रहा है, हमने आपका नाम भेज दिया है.
अब मैं पूरा माजरा समझ गया था. मैंने कहा, आप गलत जगह आये हैं. आपने मुझसे पूछे वगैर मेरा नाम क्यों भेजा ? फिर मैंने उन्हें आराम से बताया कि मैं आरएसएस को एक ख़तरनाक संगठन मानता हूं. और मैं इससे नहीं जुड़ सकता. उनके एक दो सवाल आये, जिनका मैंने जवाब दिया. फिर मैंने उन्हें बताया कि आप नौजवान इसमें क्यों फंसे हुए हैं. यह आपको मुस्लिम विरोधी बनाने के सिवा कुछ नहीं सिखाएगा.
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वह दंगों में आपका इस्तेमाल करेगा और आपको अपराधी बनाएगा. होगा यह कि आप जेल में होंगे और आपके घर वाले कष्ट उठाएंगे. तब आरएसएस आपका कोई साथ नहीं देगा. ऐसे तमाम उदाहरण हैं. हिन्दू कौन हैं इस पर भी चर्चा हुई. मैंने कहा, हिन्दू होना एक अलग बात है और हिन्दूवादी होना दूसरी बात है. आप हिन्दूवादी होकर ही खतरनाक हो जाते हैं.
खैर मेरी बात से वे कितने सहमत हुए, यह तो नहीं पता. पर वे चले गए और मेरे सामने ढेर सारे प्रश्नचिन्ह छोड़ गए. मैं आरएसएस के विरोध में फेसबुक पर किश्तें लिख रहा हूं. क्या वे झूठ बोल रहे थे? क्या उन्हें आरएसएस ने भेजा था? क्या मेरी मौत ने मेरा घर देख लिया? कुछ इसी तरह के सवालों से परेशान हूं.
कंवल भारती के फेसबुक वॉल से
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आप जैसे दलित साहित्यकारों की कलम कृपाण मनुवादी बंधनों को काटने व संवैधानिक मूल्यों के स्थापित करने का काम करती है. लगभग 1998 से भारतीय दलित साहित्य अकादमी के दिल्ली आयोजनों के द्वारा आपसे परिचित हूं.
आरएसएस वालों की कोशिश रहती है कि साम दाम दण्डभेद की नीति से अम्बेडकरवादी साहित्यकारों की आवाज को दबाना. हमें अपने मानवीय मूल्यों का स्थापना की दिशा में निर्भीकता से कर्तव्याऱूढ रहना है. राजनैतिक संगठनों को चाहिए कि वर्तमान में देश के दलित साहित्यकारों की जान माल के खतरों पर सुरक्षा हेतु नजर रखें.