दो अप्रैल के भारत बंद का आह्वान गैर-राजनैतिक दलित समूहों ने किया था. इसने हिंदी पट्टी में हमेशा से शोषित रहे दलित समुदाय की लामबंदी की नई क्षमताओं का परिचय दिया. अपने संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए उनके संघर्ष ने नरेंद्र मोदी के शासनकाल में एक नया आयाम लिया है जो उनके नारे “सबका साथ, सबका विकास” के मिथक को छिन्न-भिन्न करता है.
जब से भाजपा हिंदी पट्टी और पश्चिमी प्रांतों में सत्ता में आई तब से दलितों की समस्याएं शुरू हो गईं. प्रधानमंत्री खुद के अन्य पिछड़ा वर्ग से होने का दावा करते हैं पर दलितों के शैक्षणिक-आर्थिक अवसरों की रक्षा की दिशा में उन्होंने कुछ खास नहीं किया. ऐसा इसलिए क्योंकि भाजपा अकेले सरकार चला ही नहीं सकती. सरकारी व्यवस्था असल में आरएसएस की मातृछाया में चल रही है.
आरएसएस और भाजपा ने हिंदीपट्टी और पश्चिमी भारत के हर ढांचे में अपने तंत्र को मजबूत कर रखा है क्योंकि यही उनका मुख्य कार्यक्षेत्र रहा है. दशकों तक उसने अपने सवर्ण कैडर को वर्णधर्म का प्रशिक्षण दिया है. उसने कैडर को सिखाया है कि हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लिए छुआछूत का बने रहना भी जरूरी है. आरएसएस का दलित/आदिवासी/ओबीसी के साथ मित्रवत रहने का कोई सांस्कृतिक इतिहास है ही नहीं. इसने केवल व्यापारी, पुजारी, साधु, संन्यासी और गाय के आर्थिक व सांस्कृतिक उत्थान के लिए ही प्रयास किए हैं. इसका साहित्य मजदूर के लिए सम्मान की बात करता ही नहीं.
एक संगठन के रूप में इसने न तो कृषक वर्ग के बारे में अध्ययन किया है और न ही उनकी भलाई के लिए कोई कार्य, क्योंकि इनके हिंदू मातृभूमि साहित्य/सांस्कृतिक इतिहास में कृषक वर्ग को कभी शामिल ही नहीं किया गया. “हिंदू मातृभूमि” की इनकी परिभाषा में शूद्र के लिए कोई खास स्थान नहीं है. सिर्फ द्विज—ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय” ही इसमें स्थान और सम्मान पाते हैं.
उत्तर भारतीय शूद्र/दलितों ने ब्राह्मण-विरोधी आंदोलन देर से छेड़ा है. इससे पहले कि आरएसएस जैसी एक संगठित ब्राह्मणवादी ताकत दक्षिण भारत में अपनी घुसपैठ मजबूत करती, सामाजिक सुधारों के प्रयास शुरू हुए और इसीलिए ज्यादा सहजता से हो गए. हालांकि जातिवाद और छुआछूत अब भी इधर देखने को मिल जाते हैं.
आरएसएस का हिंदू राष्ट्र का एजेंडा एक समाज-सुधार विरोधी एजेंडा है. इस एजेंडे में जाति के मकडज़ाल में फंसे “हिंदुत्व” के सुधार का कोई एजेंडा नहीं दिखता. बस यह भारतीय इस्लाम को सुधारने के लिए ही उतावला दिखता है. उनके “अपने हिंदू समाज” में वे सभी सुधारवादी कानूनों को पलटने के लिए लालायित दिखते हैं.
20 मार्च, 2018 को सुप्रीम कोर्ट के एससी/एसटी प्रताडऩा कानून पर आए फैसले ने जता दिया कि केंद्रीय कानून मंत्रालय में क्या चल रहा है. हिंदुत्व बिरादरी में इस बात पर आम सहमति है कि आरक्षण से जुड़े सभी कानूनों की समीक्षा की जरूरत है.
इंदिरा गांधी से उलट मोदी लोगों से किए अपने वादे पूरे करने के लिए प्रशासन पर सख्ती नहीं करा सकते. पार्टी और उनके मंत्री उनके नियंत्रण में नहीं हैं, वे आरएसएस के हाथों की कठपुतली बने हैं. सो उनकी अपील “यदि मारना ही चाहते हो तो मुझे मार दो, पर मेरे दलित भाइयों को मत मारो” का भाजपा/आरएसएस के दलित विरोधी सोच पर कोई असर नहीं हुआ.
हिंदी पट्टी में आज पहले से ज्यादा दलित मारे जा रहे हैं. आरएसएस की गोरक्षा नीति दलित दमन की नीति बन गई है. दलित महसूस कर रहे हैं कि गोरक्षा के नाम पर दलित/आदिवासी की पशुधन आधारित अर्थव्यवस्था और खाद्य संसाधनों को नष्ट किया जा रहा है.
दलित छात्रों में आरक्षण और छात्रवृति छिन जाने का डर रहता है और वे उच्च शिक्षण संस्थानों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को लेकर भयभीत रहते हैं. इसी भय ने इस नई लामबंदी को संभव किया है. इसे भारत का दलित वसंत कहिए.
इस आलेख के लेखक कांचा इलैया शेफर्ड टी-मास, तेलंगाना के अध्यक्ष हैं.
साभार- आज तक
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