जेएनयू में PHD के ढांचे को तोड़ा जाना चाहिए

आखिरकार आज पीएचडी पूरी हो गई. यह संयोग ही था कि आज प्रेमचंद जयंती भी थी. वायवा के लिए प्रोफेसर चौथीराम यादव और हरिनारायण ठाकुर आए थे. मेरा विषय था- “अद्विज हिंदी कथाकारों के उपन्यासों में जाति-मुक्ति का सवाल, 1990 से 2014 तक”. दोनों ने मेरे काम की तारीफ की. उनका आभारी हूं लेकिन सच तो यह है कि मैं विषय के साथ न्याय नहीं कर पाया हूं. शोध प्रबंधों के लिखने का जो बना-बनाया ढांचा है, वह निहायत ही भद्दा है. अन्य अनुशासनों की बात मैं नहीं करता लेकिन साहित्य पर होने वाले शोध को आलोचना के रूप में होना चाहिए और जहां तक संभव हो सके, इसमें रचानात्मकता को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. या फिर यह हो कि सचमुच कुछ खोज लाओ, कोई अप्राप्त पाण्डुलिपी, कोई नया ऐतिहासिक तथ्य, तब पीएचडी मिलेगी. शोधार्थी को दोनों रास्तों में से कोई एक रास्ता चुनने की आजादी होनी चाहिए. लेकिन होता इसके उलट है. लोग ठीक ही कहते हैं, कुछ अच्छे अपवादों को छोड़ दें तो पीएचडी का मतलब है घास छीलना. फटाफट छीलो और जो बना-बनाया ढांचा है, जो टोकरी है, उसे भर डालो. विषय कोई भी हो आपको पहले अध्याय में उसकी पृष्ठभूमि लिखनी होगी, दूसरे अध्याय में तुलना करनी होगी. जबरदस्ती लोगों के उद्धरण ठूंसने होंगे. जितने ज्यादा उद्धरण, उतनी ही अच्छी पीएचडी! यह कैसी अजीब बात है!

जेएनयू में 2010 में एमफिल में आया था. विषय था- ‘फणीश्वरनाथ रेणु की पत्रकारिता के सामाजिक सरोकार’. शोध निर्देशक थे, देवेंद्र चौबे. पीएचडी मैंने गंगा सहाय मीणा के साथ करने का निर्णय लिया. दोनों ही निर्देशक मित्रवत् भी थे और अपने काम के प्रति प्रतिबद्ध भी. लेकिन ढांचा तो वही था, उन्हें भी उसी ढांचे में काम करना-करवाना होता है.

मैं महसूस करता हूं कि जेएनयू जैसे संस्थान में रहकर इस ढांचे को तोड़ा जा सकता है. शोधार्थी चाहे तो यह संभव है. अभी भी वहां पिछली पीढ़ी के जो शिक्षक हैं, वे नएपन को बढ़ावा देने में अपने कदम पीछे नहीं खींचते, अन्यथा पीएचडी के लिए मेरे विषय में जो “अद्विज” शब्द है, वह कतई स्वीकृत नहीं हो पाता. दरअसल समस्या दूसरी है. हिंदी विभागों में हिंदी पट्टी की आर्थिक और बौद्धिक विपन्नता अपना रंग दिखाती है. हिंदी में पीएचडी करने का मतलब है कि शोधार्थी सरकारी नौकरी के लिए सभी जगह हाथ-पांव मार कर हार चुका है. देश के सभी हिंदी विभाग ऐसे ही थके-हारे लोगों के गढ़ हैं. इस मामले में जेएनयू का हिंदी विभाग अंधों में काना राजा है.

जेएनयू से विदा होते हुए अजीब लग रहा है. हालांकि इन सात सालों में भावात्मक स्तर पर मैं जेएनयू का भीतरी आदमी शायद नहीं बन पाया. लेखन और पत्रकारिता की दूसरी जिम्मेवारियां थीं, जिन्हें पूरा करना मुझे ज्यादा प्रिय और महत्वपूर्ण लगता रहा. इन सात सालों में प्रिंट रूप में फारवर्ड प्रेस के संपादन के 5 साल (2011-2016) और वेब पोर्टल के रूप में पिछला एक साल भी समाहित रहा. इस बीच छह साहित्य वार्षिकियां और इतनी ही किताबें भी संपादित कीं. दर्जनों रिपोर्ट्स और लेख लिखे, सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर पुस्तिकाएं भी. इन व्यस्तताओं के कारण गंगा ढाबा की बैठकों में अपनी जगह नहीं बना सका. लेकिन उन्हें चुपके से सुनने और सराहने वालों में हमेशा शुमार रहा.

यहां रहते हुए सबसे दुखद था, अपनी आंखों के सामने एक महान विश्वविद्यालय का, भारत के सर्वश्रेष्ठ बौद्धिक केंद्र को अवसान की ओर जाते देखना. पिछले साल आरएसएस द्वारा प्रायोजित हमले से पहले ही इसकी भूमिका बनने लगी थी. इसके लिए सिर्फ हिंदूवादी ताकतें ही जिम्मेवार नहीं थीं. इसकी गरिमा को नष्ट करने वाले तत्व स्वयं इसके भीतर से भी उभर रहे थे. कम्युनिष्टों की कथित असफल विश्वदृष्टि को अपनी काबीलाई चेतना से चुनौती देने और उनके जातिवाद का विरोध अपने जातिवाद से करने वालों की संख्या बढ़ रही थी. इस नई समस्या से निपटने के लिए कम्युनिस्टों के पास कोई दृष्टि नहीं थी. मजबूरीवश विभिन्न छोटे-बड़े मुद्दे पर वे अपना स्टैंड छोड़कर पीछे हटते जा रहे थे और हिंदूवाद का विरोध करने के लिए इस्लामिक कठमुल्लावाद और ज्यादा प्रश्रय देने की नीति पर काम कर रहे थे.

जेएनयू जैसे उत्कृष्ठ संस्थानों को बर्बाद करने का श्रेय दिवंगत कांग्रेसी नेता अर्जुन सिंह को भी है. ज्ञान के वृत्त से अन्य पिछड़ा वर्ग पूरी तरह बाहर धकिया दिया गया था, इसलिए इनके लिए उच्च शिक्षा में आरक्षण आवश्यक था. लेकिन आरक्षण दिया 27 प्रतिशत और संस्थानों में सीटें बढाईं 52 प्रतिशत. वंचित तबकों से इससे ज्यादा अश्लील मजाक और क्या किया जा सकता था? उच्च तबका यही चाहता था. हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी डुबोएंगे, की तर्ज पर यह तबका तो विदेशों और महंगी निजी यूनिवर्सिटियों की ओर मुड़ गया. सरकारी संस्थानों में रह गए दरिद्र सवर्ण और मध्यवर्ग में प्रवेश पा रहे दलित-आदिवासी और पिछड़ों के बच्चे. नतीजा सामने है. जेएनयू में बहसों को स्तर तेजी से गिर रहा है. उसकी विश्वदृष्टि गंगा के मैदान से आई जातिवाद के धूल-गोबर से धूमिल हो रही है.

2010 में जब नामांकन के लिए जानकारियां लेने आया था तो मुझे याद है कि इसके नार्थ गेट पर कुछ सेमिनारों के पोस्टर थे, जिनमें से कुछ पर मार्क्स और पाब्लो नेरूदा की तस्वीरें थीं. आज वहां से निकलते हुए मुख्य द्वार पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के उस पोस्टर ने विदा किया जिस पर एक और डॉ. अम्बेडकर और दूसरी ओर विवेकानंद की तस्वीर है.

विदा जेएनयू, सैकड़ों प्रतिष्ठित समाज वैज्ञानिकों, इतिहासकारों की तरह इस अकिंचन के जीवन में भी तुम हमेशा बने रहोगे.

यह लेख प्रमोद रंजन ने लिखा है.

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