अंडमान में अपने अस्तित्व की लड़ाई रहे हैं झारखंडी आदिवासी

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अंडमान-निकोबार को झारखंडियों ने अपनी कर्मठता और मेहनत के बल पर सुगम बनाया है. छोटानागपुर के आदिवासियों ने इस दुर्गम भूखंड को रहने लायक बनाया़. अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के घनघोर जंगलों के चप्पे-चप्पे में झारखंड के आदिवासियों के पौरुष की कहानी है. झारखंडियों ने अंडमान-निकोबार में दूसरों को बसाया.

इस खूबसूरत वादियों में आज लोग रहते हैं. देश-दुनिया से लोग अंडमान-निकोबार को देखने पहुंचते हैं. लगभग सौ वर्ष पहले दक्षिणी छोटानागपुर से हजारों की संख्या में झारखंड के आदिवासियों को जंगल कटाई के लिए यहां लाया गया था़. आज इनकी दूसरी पीढ़ी अंडमान-निकोबार के विभिन्न द्वीपों में रहती है.

अकेले पोर्ट ब्लेयर में 50 हजार से ज्यादा झारखंड के आदिवासी होंगे़ गुमला, खूंटी, सिमडेगा, रांची जैसे इलाके के आदिवासी यहां हैं. झारखंड के आदिवासियों ने अंडमान-निकोबार को अपना बनाया़. यहां रच-बस गये, लेकिन इस भू-भाग में वे पहचान की संकट झेल रहे हैं. झारखंड के आदिवासियों को यहां एसटी का दर्जा नहीं है. आदिवासी होने के अधिकार से वंचित हैं.

वर्षों से यहां झारखंडी आदिवासी अपनी पहचान की लड़ाई लड़ रहे हैं. सरकारी नौकरियों में किसी तरह का आरक्षण नहीं मिल रहा है. केंद्र शासित इस प्रदेश में सरकारी नौकरी में झारखंडियों की भागीदारी नगण्य है. खेतीबाड़ी के लिए इनके पास जमीन नहीं है. झारखंड के आदिवासियों को पोर्ट ब्लेयर में लोग रांची भाई पुकारते हैं, लेकिन बस केवल कहने भर के लिए झारखंडी आदिवासी को भाई कहा जाता है, व्यवहार सौतेला है.

दूसरों को बसाने वाले हो गये अतिक्रमणकारी
अंडमान-निकोबार में दूसरों के सहज जीवन के लिए खून-पसीना बहाने वाले झारखंडी आदिवासी ही यहां अतिक्रमणकारी हो गये़. र्षों पहले इनके मां-बाप या दादा-दादी अंडमान-निकोबार आये थे़.

किसी परिवार के बसे हुए 100 वर्ष हो गये, तो किसी के 70 वर्ष़ लेकिन इनको अपने बसेरे के लिए जमीन नहीं मिली़. अलग-अलग जगहों पर जंगल काट कर अपना घर-बगान बनाया है, लेकिन सरकार इसको अवैध मानती है़. पोर्ट ब्लेयर में भी एक छोटी सी बस्ती है, लेकिन सरकार की नजर में यह अतिक्रमण है़ पोर्ट ब्लेयर की एक दुकान में काम करने वाली युवती सिलबिया ने बताया कि हमारे पास जमीन नहीं है.

वर्षों पहले पिताजी जंगल विभाग में काम करते थे. उन्होंने ही एक छोटी सी जमीन में घर बनाया है. हमें किसी तरह की सरकारी सहायता नहीं मिलती है. हमें इनक्रोचर बताया जाता है.

लंबी लड़ाई लड़ रहे हैं झारखंडी
झारखंडी आदिवासी अपनी मुकम्मल पहचान की लड़ाई लड़ रहे हैं. देश की आजादी के बाद भी इस भू-भाग में इनको अधिकार नहीं मिला़ इस बड़े समुदाय के लिए प्राइवेट की छोटी नौकरियां और मजदूरी करने की विवशता है़

पोर्ट ब्लेयर से दिगलीपुर की तरफ जाते हुए फेरारगंज, बाराटांग, जिरकाटांग एवं रामनगर में रांची भाई की बस्तियां हैं. इस बड़े समुदाय ने प्रधानमंत्री रहे इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी के सामने दूसरी जगहों की तरह अंडमान में भी आदिवासी दर्जा दिये जाने की मांग की है. वर्षों से लड़ाई लड़ रहे हैं. इन समुदायों द्वारा बार-बार धरना-प्रदर्शन किया जाता है और जुलूस निकाला जाता है. रांची भाइयों का अपना संगठन है, लेकिन हक आज तक नहीं मिला़.

…पोर्ट ब्लेयर से लौटकर आनंद मोहन. प्रभात खबर से साभार

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