वालमार्ट  में विविधता नीति लागू करने का दबाव बनाना जरुरी !

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रिटेल सेक्टर की दुनिया की सबसे बड़ी कम्पनी वालमार्ट द्वारा ई-कॉमर्स बाजार की सबसे बड़ी भारतीय कम्पनी फ्लिपकार्ट की 77 फीसदी हिस्सेदारी खरीदने की घोषणा भारतीय आर्थिक जगत में चर्चा का एक बड़ा विषय बना हुआ है. फ्लिपकार्ट के जरिये भारतीय ई-कॉमर्स में प्रवेश करने का बाद अब वालमार्ट का सीधा मुकाबला अमेरिका की कंपनी अमेजन से होगा. अमेरिकी बाजार में भी वालमार्ट का मुकाबला अमेजन से ही है. फ्लिपकार्ट में निवेश की घोषणा के एक दिन बाद वालमार्ट ने कहा है कि वह भारत में अपने कैश एंड कैरी यानी थोक कारोबार को और मजबूत बनाने पर काम करती रहेगी करेगी. वालमार्ट इंडिया के प्रेसिडेंट और सीईओ कृष अय्यर ने कहा है कि वर्तमान में कंपनी के 21 स्टोर हैं और अगले चार-पांच साल में कपनी 50 नए स्टोर खोलेगी .इन राज्यों में सबसे अधिक ध्यान वालमार्ट इंडिया का उत्तर प्रदेश पर है.

वालमार्ट-फ्लिपकार्ट डील राय देते हुए वालमार्ट इंक के प्रेसिडेंट और सीईओ डग मैकमिलन ने कहा है कि भविष्य में संभावनाएं बनने पर कंपनी भारत में और निवेश करेगी. इससे न केवल आने वाली समय में भारत में नौकरियों की संख्या में वृद्धि होगी बल्कि स्थानीय स्तर पर उत्पादों की खरीद  में भी वृद्धि होगी. उन्होंने फ्लिपकार्ट पर कंपनी की रणनीति का खुलासा करते हुए कहा है कि इस डील के बाद प्राइवेट  ब्रांडों के आयात का विकल्प खुला है. इसके बावजूद फ्लिपकार्ट में स्थानीय ब्रांडों की हिस्सेदारी 90प्रतिशत ही रहेगी. इसका मतलब यह हुआ कि वाल मार्ट के साथ आने के बावजूद स्थानीय उत्पादों की खरीद में कमी का फिलहाल वालमार्ट का इरादा नहीं है.

 इस सौदे पर  नीति आयोग के उपाध्यक्ष्य राजीव कुमार ने कहा है कि इस डील से विदेशी निवेश पर सकारात्मक असर पड़ेगा और यह सौदा देश के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के अनुरूप है. इससे देश के छोटे कारोबारियों को सामान सस्ती कीमत पर हासिल करने में मदद मिलेगी. इस सौदे पर सत्ताधारी भाजपा के मातृ संगठन आरएसएस से संबंद्ध स्वदेशी जागरण मंच की राय अनुकूल नहीं है. मंच की ओर से आरोप लगाया गया है कि वालमार्ट नियमों को धता बता बैक –डोर से देश के रिटेल सेक्टर में प्रवेश कर रही है.

अब जरा आर्थिक, राजनीतिक,, सामाजिक संगठनों से हटकर इस वालमार्ट-फ्लिपकार्ट करार पर बुद्धिजीवियों की राय का आंकलन कर लिया जाय. इस विषय पर उनकी राय का प्रतिबिम्बन देश के एक प्रख्यात पत्रकार की इस टिपण्णी में पाया जा सकता है- ‘इस डील के बाद भारत के ऑनलाइन बाजार पर दो बड़ी कंपनियों का कब्जा हो गया है और दोनों अमेरिकन हैं यानी अमेजन और अब वालमॉर्ट. यह दोनों भयंकर पूँजी के ठिकाने हैं, जेफ वही हैं जिनकी कंपनी ने शुरूआती 12 साल नुक्सान के बावजूद व्यापार चलाया और आज विश्व के सबसे रईस हैं. और फिर वॉल्टन परिवार को कैसे भूलेंगे जो दुनिया का सबसे रईस परिवार है.

ऐसे में आने वाला एक साल आपको कीमतों में भयंकर कमी और लॉजिस्टिक में जमकर निवेश दिखेगा. बेरोजगार लड़के झोला टांगकर आपके घर सामान पहुँचाने आएँगे और नुक्कड़ के दुकानदार सिर्फ धनिया मिर्ची बेचेंगे. खैर यह तो सही है कि प्राइस वार से कुछ साल तक तो यह कंपनियाँ कमा लेंगी लेकिन फिर क्या होगा क्योंकि यहाँ कोई इंफ्रा और उद्यमशीलता है नहीं. अब मोदी भक्त आलतू-फालतू बाते करेंगे लेकिन इस सरकार से अधिक रोजगार को लेकर मजाक किसी ने नहीं बनाया है. तो जब हमारी तैयारी नहीं है और हम ऐसे बड़े खिलाड़ियों को आने देते हैं तो फिर क्या होगा क्या हम बर्बाद होने की ओर नहीं बढ़ रहे हैं!.’

इसमें कोई शक नहीं कि वालमार्ट-अमेजन इत्यादि जैसी विदेशी कंपनियों के प्रवेश का मार्ग सुगम कराने की बड़ी कीमत देश को अदा करनी पड़ेगी. यह देश की बर्बादी और भविष्य में आर्थिक रूप से भारत के विदेशियों का गुलाम बनने का सबब बनेगा.

इस विषय में स्वदेशी  जागरण मंच’ के संस्थापक दत्तो पन्त ठेंगड़ी की 1990 के दशक चेतावनी काबिलेगौर है . नवउदारवादी नीतियों का आंकलन करते हुए तब संघ परिवार के आडवाणी, वाजपेयी, मोदी, सुषमा स्वराज इत्यादि ने  ठेंगड़ी के नेतृत्व में इस चेतावनी से दसों दिशाओं को गुंजित कर दिया था कि  ‘अब जो आर्थिक परिस्थितियां बन या बनाई जा रही हैं, उसके फलस्वरूप देश आर्थिक रूप से विदेशियों का गुलाम बन जायेगा, तब हमें स्वाधीनता संग्राम की भाँति विदेशियों से आर्थिक आजादी कि एक नयी जंग लड़नी पड़ेगी .’ लेकिन देश की अवधारित गुलामी से अवगत होने के बावजूद पंडित नरसिंह राव ने 24जुलाई ,1991 को जो नवउदारवादी(एलपीजी)अर्थनीति ग्रहण की उसे महज आरक्षण के खात्मे में जूनून में आगे बढ़ाने में  नरसिंह राव के बाद अटल बिहारी वाजपेयी , डॉ मनमोहन सिंह ने एक दूसरे से होड़ लगाया. और आज वर्तमानं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस मामले में अपने तीनो पूर्ववर्तियों को बहुत पीछे छोड़ दिए हैं. बहरहाल भविष्य में भारत के आर्थिक रूप से गुलाम बनने की सम्भावना के बावजूद भारतीयों के लिए जॉब, ट्रांसपोर्टेशन, वस्तुओं की सप्लाई इत्यादि कई क्षेत्रों में अवसर सृजित होंगे. किन्तु निजी क्षेत्र की नौकरियों सहित व्यवसायिक गतिविधियों में कोई आरक्षण नहीं होने से प्रायः 90 प्रतिशत से ज्यादा अवसर देश के विशेषाधिकारयुक्त तबकों(सवर्णों) को होगा. इन अवसरों से प्रायः पूरी तरह वंचित होगा बहुजन समाज अर्थात दलित, आदिवासी, पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित तबका.

लेकिन आज जबकि सरकारों की सवर्णपरस्त नीतियों के चलते देश की टॉप 10 प्रतिशत आबादी का धन-दौलत पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा हो चुका है , बहुजनवादी दलों को विदेशी कंपनियों से होने वाले लाभ का हिस्सा वंचित बहुजनों की झोली में डालने के लिए सर्व शक्ति लगना इतिहास की मांग है. इसके लिए एकमेव उपाय है कंपनियों के कार्यबल सहित सप्लाई, ट्रांसपोर्टेशन इत्यादि गतिविधियों में डाइवर्सिटी लागू करने की लड़ाई.

काबिले गौर है कि सिर्फ और आरक्षण के खात्मे और बहुजनों को गुलाम बनाने के मकसद से ही सवर्णवादी सरकारें सुरक्षा तक से जुड़े उपक्रमों में 100% एफडीआई लागू करने के साथ-साथ वालमार्ट जैसी भीमकाय कंपनियों को अपनी गतिविधियाँ चलाने के लिए नीतियों में ढिलाई किये जा रही हैं. इससे भारत का आर्थिक रूप से विदेशियों का गुलाम बनना तय सा दिख रहा है. लेकिन जिन विदेशी कंपनियों से देश के गुलाम बनने की सम्भावना है,वे मुख्यतः अमेरिका की हैं . और अमेरिकी कंपनियों की खासियत यह है कि वे अपने कार्यबल व अन्यायान्य गतिविधियों में नस्लीय और लैंगिक विविधता लागू करती हैं. अर्थात विभिन्न नस्लीय समूहों के स्त्री और पुरुषों को तमाम क्षेत्र में प्रतिनिधित्व अर्थात आरक्षण देती हैं.

इसके लिए उन्हें प्रत्येक वर्ष सरकार के समक्ष डाइवर्सिटी रिपोर्ट प्रस्तुत करनी पड़ती है. विविधता अर्थात डाइवर्सिटी नीति का अनुपालन उनकी व्यवसायिक शैली का अंग बन चुका है, यह कोई भी व्यक्ति उनकी डाइवर्सिटी पालिसी में देख सकता है. मसलन फार्चून – 500 में सामान्यता चार-पांच में रहने वाली फोर्ड कंपनी कहती है-’हमारे कार्यबल की विविधता, डीलर नेटवर्क और प्रदायक समुदाय की विविधता बढ़ने से प्रतिभा तक हमारी पहुँच बढती है. और हमें ग्राहकों की आवश्यकताओं को बेहतर ढंग से समझने और और मूल्य आधारित उत्पादों और सेवाओं का निर्माण करने में मदद मिलती है. ..’ फार्चून ५०० की एक और कंपनी ‘एक्सॉन मोबाइल’ का वक्तव्य है-‘हमारे संचालन,प्रोद्योगिकी, विविध स्रोतों से उच्च प्रदर्शन की प्राप्ति हमारे मानव संसाधनों के दोहन पर निर्भर है. जिसे विविध संस्कृतियों के लोगों की सेवाएँ लेकर और विविध पृष्ठभूमि और अनुभवों के लोगों को लेकर हम अत्यावश्यक स्थानीय ज्ञान और व्यापारिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक व्यापक परिप्रेक्ष्य प्राप्त करते हैं.’

सूचना प्रोद्योगिकी की शीर्षस्थ कंपनी आई.बी.एम. के नाम से कौन वफिफ नहीं है! यह खुली घोषणा करती है’ हम विश्व को दुबारा सोचने और भिन्नताओं के को अंगीकार करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करते आ रहे हैं.’ ज्ञान का मक्का माने जाने वाले हार्वर्ड, जिसके सामने बड़े से बड़े भारतीय विश्वविद्यालयों  की हैसियत प्राइमरी स्कूल जैसी है का आदर्श वाक्य है-‘ अमेरिका की जनसंख्या में नस्ल्लीय/जातीय बुनावट को संस्थान की संकाय, शिक्षको और विद्यार्थियों की संख्या में उसी अनुपात में परिलक्षित होना चाहिए.’ जब अमेरिका की व्यवसायिक, तकनीकी, शैक्षिक इत्यादि तमाम संस्थाएं ही डाइवर्सिटी का अनुपालन करती हैं तब वालमार्ट ही कैसे अछूता रहता ! लिहाजा वालमार्ट  कहता है- ‘वालमार्ट का नारा है-समानता, अवसर और उन्नति का आदर करो!’

बहरहाल जब यह तय है कि अमेरिका की वालमार्ट सहित तमाम कंपनिया अपनी सभी गतिविधियों में सभी समुदायों  के स्त्री  और पुरुषों को आरक्षण देती हैं तो वही काम वे भारत में क्यों नहीं कर सकतीं . जरुर करेंगी . लेकिन इसके लिए सडकों पर उतरना पड़ेगा. लेकिन सडकों पर उतर कर डाइवर्सिटी के लिए जोर देने का एक खतरा भी है. खतरा यह है कि वे भारत से कारोबार समेटने की धमकी दे सकती हैं. ऐसा इसलिए लिख रहा हूँ कि भारतीय उद्यमियों की देखादेखी कई एमएनसी कंपनियां  आरक्षण अनिवार्य करने के खिलाफ कारोबार समेटने की धमकी दे चुकी हैं. लेकिन अतीत का अनुसरण करते हुए यदि भारत में डाइवर्सिटी की मांग उठाने पर अमेरिकी कंपनिया भागने की घोषणा करती हैं तो भी कोई घाटा नहीं. क्योंकि उनके भागने से देश गुलाम होने से बच जायेगा. लेकिन व्यवसायियों के लिए व्यवसायिक लाभ सर्वोपरि होता है. ऐसे में ज्यादा सम्भावना है कि भारत के विशाल मार्किट का दोहन करने के लिए वे डाइवर्सिटी की शर्ते मान ही लेंगी.

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