बह रहा शोणित है तेरा
फिर भी तू क्यों मौन है
पूछ अपने आप से
मानव है तू या कौन है
जाति की जठराग्नि में
हिन्दुत्व के अभिमान में
हवन होते हैं दलित
जीते हैं वो अपमान में
संविधान का नहीं
उनको कोई अब डर रहा
मनुवाद के दावानल में
रोहित सरोज है मर रहा
और तू बैठा हुआ चुप
करता सिर्फ संताप है
जुल्म को सहना भी
होता बहुत ही पाप है
उठ वरण कर वीरता का
धनु कि तू टंकार दे
घर से तू बाहर निकल
और साथ में हुंकार दे।
मुकेश गौरव
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