आरएसएस की प्रयोगशाला बनेगा सामाजिक आंदोलन मैदान

ये नतीजे बता रहे हैं कि आरएसएस की प्रयोगशाला में कैसे सामाजिक आंदोलन को जगह मिलने की संभावनाएं प्रबल हो गई हैं। गुजरात की मौजूदा जातीय-सामाजिक परिस्थितियों में यदि सियासी गणित पर कांग्रेस इसे जरा भी आगे-पीछे होती यानि संख्या के मामले में मजबूत विपक्ष बनकर नहीं उभरती या भाजपा की कुपोषित सरकार बनने की संभावना टाल देती तो कथित हिन्दुत्व के समीकरण बैठा चुकी आरएसएस के लिए स्थिति इतनी विकट नहीं होती।

चुनावी राजनीति में कोई एक दल जीतता है। लेकिन, गुजरात की राजनीति में इस बार नया यह है कि यह चुनावी हार-जीत से आगे ‘जाति’ दिख रही है। यहां पिछले कुछ चुनावों में भाजपा का सामना कांग्रेस जैस दल से होता रहा है, जिसे हराकर शांति से बैठा जा सकता था। लेकिन, इस बार दलीय स्थिति से उलट सामाजिक-जातीय आन्दोलनों ने उसे असली टक्कर दी है। इसलिए गुजरात की मौजूदा राजनीति में सम्भावना यह भी है कि चुनाव परिणाम मात्र छोटा-सा इंटरवल साबित हो और मुकाबले का अगला दौर इस परिणाम के एक अंतराल बाद जल्द शुरू हो।

गुजरात चुनाव में संख्या बल और लीडरशिप से भी जाहिर है कि इस बार सत्तारूढ़ भाजपा की टक्कर मजबूत विपक्ष से है जो बहुमत से आठ-नौ कदम ही पीछा रहा है।

किसी भी स्थिति में आरएसएस के लिए यह चिंता का सबब है। वजह है कि लंबे समय तक सत्ता में रहने के बावजूद आरएसएस-भाजपा संगठन अपनी ही प्रयोगशाला में सामाजिक-जातीय उथल-पुथल नहीं रोक पाया है। आगे की स्थिति का आंकलन करें तो भले ही गुजरात की राजनीति साम्प्रदायिकता पर आधारित है, फिर भी आरएसएस-भाजपा की दिक्कत यह है कि पूरा समाज आज भी जातियों में बंटा है जो उनकी मांगों को लेकर पहले से थोड़ा संगठित और बहुत ज्यादा आक्रामक होता जा रहा है। आरएसएस-भाजपा अब तक विशेष तौर पर एसटी, एसटी और ओबीसी जातियों को मुसलमानों (9 फीसदी) के खिलाफ खड़ा करने में कामयाब होता रहा है। लेकिन, आर्थिक कमजोरी और बेकारी के कारण इन जातियों का अंतर्विरोध सड़कों पर देखा गया है और आने वाले समय में यह और ज्यादा मुखर हो सकता है।

इसलिए ये सामाजिक-जातीय आंदोलन यदि संगठित न भी हुए और एक-एक जाति कई-कई गुटों में बंट भी गई तो भी कथित हिन्दुत्त्व के नाम पर पूरी की पूरी निचली ‘जमातों’ को एकजुट रख पाने में आरएसएस-भाजपा को माइक्रो लेबल पर जूझना पड़ेगा।

दूसरी तरफ, इन जातीय (गुट) आंदोलनों के बीच यदि कोर इशू पर समन्वय की राजनीति (जैसी कि कोशिश शुरू हो चुकी है) बनती है तो आरएसएस-भाजपा को गुजरात के अंदर-बाहर लंबी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।

– शिरीष खरे

ये लेखक के अपने विचार हैं।

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