ग्राउंड रिपोर्ट: गुजरात के दलितों पर मोदी, राहुल का असर क्यों नहीं?

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स्टेट हाइवे 55 के दोनों किनारों पर कंटीली झाड़ियों की क़तारों के पीछे से कपास और गेहूं के खेत झांक रहे हैं. खेतों का यह विस्तार पार करते हुए हम पाटन की हरजी तालुका में बसे बोरतवाड़ा गांव पहुचंते हैं.
बोरतवाड़ा के दलित बहुल इलाक़े में बसे रोहितवास मोहल्ले में रहने वाले गांव के सरपंच महेश भाई मकवाना के लिए यह एक व्यस्त सुबह है.

गांव के पहले दलित सरपंच
हम उनके पक्के मकान के सामने बंधी भैसों और साथ ही खड़े ट्रैक्टर के बगल से गुज़रकर उन तक पहुँचते हैं.
यहां कागज़ों और मोबाइल फ़ोन के बीच उलझे 41 वर्षीय महेश लगातार पंचायत के रोज़मर्रा के काम निपटा रहे हैं. बोरतवाड़ा के इतिहास में महेश इस गांव के पहले दलित सरपंच हैं.
सन 1961 में गुजरात पंचायत एक्ट के बनने के बाद 2016 में पहली बार बोरतवाड़ा को अनुसूचित जाति/जनजाति के तहत आरक्षित सीट घोषित किया गया.
गांव में आरक्षित सीट पर हुए इस पहले पंचायत चुनाव को 12 वोटों से जीत कर महेश ने अप्रैल 2017 में सरपंच का कार्यभार संभाला. पर दो महीने के भीतर ही गांव की पंचायत कमेटी उनके ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव ले आई.

महेश का आरोप है कि एक दलित होने के कारण पंचायत कमेटी के सदस्य उन्हें पसंद नहीं करते.
वे कहते हैं, “मुझे गांव के 3200 आम लोगों ने वोट देकर सरपंच चुना लेकिन पंचायत कमेटी के पांच ठाकुर पंचायत को अपनी मुट्ठी में रखना चाहते हैं. वो मुझे और पंचायत को काम नहीं करने देते. गांव के विकास कार्यों के लिए जारी बज़ट को अटकाने से लेकर अविश्वास प्रस्ताव लाकर पंचायत भंग करने तक मुझे रोकने और परेशान करने लिए हर संभव प्रयास किया जाता है”.

‘जिग्नेश मेवानी हमारा नेता हैं’
बोरतवाड़ा पंचायत कमेटी में महेश के अलावा 11 और सदस्य हैं जिनमें पांच ठाकुर और तीन चौधरी सदस्य शामिल हैं.
अविश्वास प्रस्ताव तो पारित नहीं हुआ पर महेश के ज़ेहन में अविश्वास की एक गहरी लकीर खिंच चुकी है.
गुजरात चुनाव में अपने गांव के दलितों के बारे करते हुए वे कहते हैं, “जिग्नेश मेवानी हमारा नेता हैं. भाजपा हो या कांग्रेस, हम उसी को वोट देंगे जो गुजरात के दलितों के लिए जिग्नेश की 12 मांगों को मानेगा. अगर मांगें नहीं मानी गईं तो नोटा दबा देंगे. मेरा तो जिग्नेश से कहना है कि वे दलितों के लिए अलग राज्य की मांग करें.”
अलग राज्य का ख़्याल दिल में आने की वजह पूछने पर महेश खामोश हो जाते हैं. फिर आंखों में आए आंसू और चेहरे पर मुस्कान लिए वह कहते हैं, “सिर्फ़ 70 दलित घरों वाले इस गांव के 3200 लोगों ने मुझे अपना सरपंच चुना. पर सिर्फ़ पांच ठाकुर मुझे काम नहीं करने दे रहे. मुझ पर सबके सामने अपमानजनक जातिगत टिप्पणियां की जाती हैं. इससे बड़ा दुख और क्या हो सकता है?”


क्या कहते हैं ठाकुर?
हम रोहितवास मोहल्ले से निलककर हरजी तालुका केंद्र पहुंचते हैं, जहां हमारी मुलाक़ात बोरतवाड़ा पंचायत कमेटी के सदस्य भरत और दिलीप ठाकुर से होती है.
एक ही परिवार से आने वाले इन दोनों भाइयों के पिता मांगाजी ठाकुर बोरतवाड़ा के उपसरपंच हैं. महेश के आरोपों को ख़ारिज करते हुए भरत कहते हैं कि महेश अपनी मनमानी चलाते हैं.
वे कहते हैं, “जब गांव की सीट रिज़र्व घोषित हुई तब हमने सारे दलित समाज को गांव के शंकर मंदिर पर बुलाया और कहा कि आपस में सहमति करके किसी एक को चुन लें, चुनाव की क्या ज़रूरत है? पर नहीं, इन सबको तो फॉर्म भरना था.”
”फिर चुनाव के बाद महेश मकवाना सरपंच तो बन गया पर वह हम सबकी सहमति के ख़िलाफ़ अकेले सब तय करना चाहता है इसलिए हम उसके ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव लाए. हमारे घर के लोग सालों से पंचायत में हैं पर ऐसा कभी नहीं हुआ. हम तालुका विकास अधिकारी से भी महेश की शिकायत करेंगे”.
गांव के चुनावी रुझान के बारे में बात करते हुए पंचायत समिति के सदस्य भरत कहते हैं, “हमारे गांव में किसी जिग्नेश का कोई प्रभाव नहीं है. यहां के सारे दलित उसी को वोट देंगे जिसे वोट देने के लिए हम कहेंगे. और हम चुनाव में अपना वोट कांग्रेस या भाजपा को देखकर नहीं, स्थानीय उम्मीदवार को देखकर तय करते हैं.”

‘उन्हें दलित सरपंच पसंद नहीं था’
अहमदाबाद की तरफ़ लौटते हुए मेहसाणा जिले की हेडवा हनुमंत ग्राम पंचायत में हमारी मुलाक़ात सरपंच संजय परमार के परिवार से होती है.
मेहसाणा शहर के मुहाने पर बसी इस ग्राम पंचयात का भौगोलिक फैलाव ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्रों के बीच बंटा हुआ है. शहरी पृष्ठभूमि से आने वाले 39 वर्षीय संजय, व्यवसायी होने के साथ-साथ हेडवा के पहले दलित सरपंच भी हैं.
2015 में पहली बार आरक्षित सीट पर चुनाव जीतने के बाद वो सिर्फ़ पंद्रह महीने तक ही अपना कार्यकाल संभाल सके. एक आवासीय परिसर में बने उनके घर पहुंचने पर पता चलता है कि संजय लंबे बुखार की वजह से अस्पताल में भर्ती हैं.
पर एक दलित सरपंच के तौर पर अपना अनुभव बताने के लिए वह अस्पताल में ही हमसे बात करने को तैयार हो जाते हैं. ग्लूकोज़ ड्रिप एक हाथ में लगाकर लेटे हुए वे कहते हैं, “63 साल से हेडुआ में पंचायत चल रही है पर कभी किसी सरपंच का कार्यकाल बाधित नहीं हुआ. पर सिर्फ़ एक दलित सरपंच के साथ ही ऐसा क्यों?”
”मुझे बज़ट पास नहीं करने दिया गया, कोई विकास कार्य नहीं करने दिया गया और बहुमत से पंचायत को भंग कर दिया गया. सिर्फ़ इसलिए कि पिछले बीस साल से उच्च जाति के जिस दरबार परिवार का पंचायत पर क़ब्ज़ा था, उन्हें मेरे जैसा दलित सरपंच पसंद नहीं था.”

न्याय की लंबी लड़ाई
संजय ने सरपंच के तौर पर अपने साथ हुए पक्षपातपूर्ण हमलों के ख़िलाफ़ ‘अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम’ के तहत तीन शिकायतें दर्ज करवाईं और आज भी न्याय के लिए वे लंबी अदालती लड़ाई लड़ रहे हैं.
अप्रैल 2017 में सामान्य सीट पर चुनाव जीतकर संजय दोबारा सरपंच बने. अपनी इस जीत के बारे में वे कहते हैं, “मुझे हेडवा के शहरी इलाक़ों में रहने वाले पढ़े लिखे लोगों ने वोट देकर जिताया है, सिर्फ ग्रामीण जनता के भरोसे तो मैं कभी नहीं जीत पाता.”
”मेरे पिता इनकम टैक्स कमिश्नर रहे हैं. मैंने सारी ज़िंदगी शहर में गुज़ारी. यहीं मेहसाणा में पला-बढ़ा. शहर में कभी किसी ने अहसास नहीं दिलाया कि मैं दलित हूँ मगर पंचायत में आने के बाद पहली बार मुझे मेरी दलित पहचान का अहसास हुआ. पंचायत कमेटी में काम करते हुए बार-बार मुझे अपनी जाति का अहसास होता.”
‘जिग्नेश दलितों की अलग पार्टी बनाएँ’
इस गुजरात चुनाव में जिग्नेश मेवानी के नेतृत्व में उभरे दलित प्रभाव को लेकर संजय ज़्यादा आशान्वित नहीं हैं. वे कहते हैं, “जिग्नेश के आंदोलन से मेरे जैसे लोगों को बहुत साहस तो मिला है पर यह आंदोलन इस चुनाव में कितनी बड़ी राजनीतिक सफ़लता में परिवर्तित होगा, इसके बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता.”
”पर मैं जिग्नेश से यही कहना चाहता हूं कि वह कांग्रेस और भाजपा में से किसी पार्टी का साथ न दें और गुजरात के दलितों की अलग राजनीतिक पहचान बनाएं”.

भाजपा की ओर भी रुझान
मेहसाणा जिले के ही अकाबा गाँव के दलित सरपंच मनु भाई परमार लंबे समय से क्षेत्र में भाजपा कार्यकर्ता के तौर पर सक्रिय रहे हैं.
गुजरात चुनाव को लेकर उनकी राय महेश और संजय से उलट है.
उन्होंने राज्य चुनाव में भी भाजपा की जीत का दावा करते हुए कहा कि प्रदेश की भाजपा सरकार ने दलितों के उत्थान के लिए लगातार विकास कार्य किए हैं.
वो कहते हैं, “गुजरात में दलितों की स्थिति ख़राब है, इस तथ्य से पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता. पर दलितों की इस स्थिति के लिए भाजपा सरकार ज़िम्मेदार नहीं है. यह समस्या प्रशासनिक कम है और सामाजिक रूढ़ियों से ज़्यादा जुड़ी हुई है. गुजरात की भाजपा सरकार ने दलितों के लिए बहुत काम किया है. रमनलाल वोराह और आत्माराम परमार जैसे नेताओं ने हमारे समाज के लिए बहुत काम किया है इसलिए हम इस बार भी भाजपा को ही वोट देंगे.”

प्रियंका दुबे की रिपोर्ट बीबीसी से साभार

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