दलित वीर और वीरंगनाओं पर भी ध्यान दें

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भारतीय आजादी के इतिहास को दर्शाने के मौके पर देश के इतिहासकार और लेखक दलित वीर और वीरांगनाओं की कुरबानी एवं उनकी वीर गाथाओं को उजागर करने की बजाय उस पर पर्दा डालने का काम करते रहे हैं. इन वीर और वीरांगनाओं की सूची बहुत लंबी है और उनका इतिहास भी बहुत गौरवशाली रहा है. लेकिन भारतीय इतिहास को पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि देश के दलितों व आदिवासियों के गौरवशाली इतिहास को रेखांकित करते समय गैर दलित लेखकों के शब्द चुक जाते हैं या कहें की इनकी कलम की स्याही सूख जाती है. अब तक इनके द्वारा लिखित झूठ एवं भ्रामक तथ्य कदम-कदम पर पकड़ा जाता रहा है. रानी झांसी का किस्सा तो बहुत पहले उजागर हो ही चुका है. अतः कुल मिलाकर गैर-दलित इतिहासकारों की नजरों में कोरी जाति से संबंध रखने वाली महिला झलकारी बाई भला वीरांगना कैसे हो सकती हैं.

जलियांवाला बाग घटना की आज भी बड़े जोर-शोर से चर्चा की जाती है और प्रत्येक वर्ष इस घटना को याद किया जाता है. लेकिन सत्य तथ्य को दर्शाने से गैर-दलित बंगले झांकने लगते हैं या फिर चुप्पी साध कर रह जाते हैं. ये आज भी जानबूझ कर सच्चाई को सामने लाना नहीं चाहते, क्योंकि उस जलियांवाला बाग में ब्रिटिश हुकूमत की आज्ञा का उल्लंघन करने वाले गैर दलित नहीं थे. उस दिन यानि 13 अप्रैल 1919 को आजादी के दीवानों की सभा बुलाने वाला महान क्रांतिकारी दलित योद्धा नत्थू धोबी था. उस दिन उस सभा में भारी संख्या में जुझारू दलित कार्यकर्ता ही शामिल हुए थे. इस बात का सबूत जनरल डायर के वे आंकड़े हैं जो यह दर्शाते हैं कि उस कांड में मारे गए 200 लोगों में से 185 दलित समाज के लोग थे. दिल को दहला देने वाले इस कांड में अंग्रेजी फौज की गोलियों के शिकार हुए दलितों में सभा संयोजक नत्थू धोबी, बुद्धराम चूहड़ा, मंगल मोची, दुलिया राम धोबी आदि प्रमुख अमर शहीद रहे हैं. लेकिन जलियावाला बाग की चर्चा करते हुए इतिहासकार और लेखक इस तथ्य से आंखे मूंदे रहते हैं.

12 अगस्त, 1942 के दिन इलाहाबाद की कोतवाली पर लगे यूनियन जैक झण्डे को उतार कर उसकी जगह भारतीय तिरंगा झण्डा फहराने वाला अमर बलिदानी भारत मां का सपूत ननकू होला था. एक महत्वपूर्ण उदाहरण और भी है. औरंगजेब के कब्जे से सिक्खों के नौवें गुरू तेग बहादुर सिंह का सिर लाने का जौहर दिखाने वाला भाई जैता (जीवन सिंह) के छोटे भाई संगत सिंह ने भी इस आंदोलन में सहयोग देते हुए अपने प्राणों की बाजी लगा दी थी.

गुरु गोविन्द सिंह के लिए उनके आदेश का पालन करते हुए जो पंज-प्यारे बलिदान देने के लिए आगे आएं उनमें से तीन दलित समाज के ही योद्धा थे. चौरी-चौरा कांड को ही लें, इस कांड में क्रांतिवीर रामपति चमार के नेतृत्व में 5 फरवरी, 1922 को ब्रिटिश हुकूमत की चूलें हिला देने वालों में आजादी के दीवाने पांच हजार दलितों की उग्र भीड़ ने थाने में आग लगाकर 23 पुलिस कर्मियों को मौत के घाट उतार दिया था. अंग्रेजी गजट में दर्ज इस कांड में 272 लोगों का चालान तथा 228 को सेशन के सुपुर्द कर दिया गया. क्रांतिवीर रामपति चमार, सम्पत चमार, दुधई राज सहित 19 भारत मां के दलित सपूत 2 जुलाई 1923 ईस्वी को फांसी पर झूल कर अमर हो गए, जबकि 14 सपूतों को आजीवन कारावास की सजा मिली. 38 लोग रिहा हुए और शेष को 2 से 8 वर्ष तक की सजा हुई. इन सजा पाने वालों में से भी छोटूराम पासी, अयोध्या चर्मकार, कुल्लु चर्मकार, अलगू पासी, फुलई, बिरजा, गरीबा, रामसरन पासी, जगेसर, नोहर, मड़ी चर्मकार, रघुनाथ पासी, रामजस पासी आदि प्रमुख रहे.

इस देश की दलित वीरांगनाएं भी स्वाभिमान की रक्षा एवं देश की आजादी में अपना जौहर दिखाने में पीछे नहीं रही हैं. भारत मां को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए अपने जीवन का बलिदान देने वाली अमर शहीद वीरांगना महाबीरी देवी मेरठ वाली दलित ही थी. महाबीरी देवी अपने नाम के अनुरूप बड़ी निडर एवं साहसी थीं. उसने बर्बर अंग्रेजों की फौज के 18 सैनिकों को मौत के घाट उतारा था, लेकिन कितनी हैरानी की बात है कि वीर योद्धा मातादीन हेला की तरह से वीरांगना महाबीरी देवी को भी इतिहास से बिसरा दिया गया है, जबकि होना यह चाहिए था कि समय-समय पर देश के सभी वीर और वीरांगनाओं को श्रद्धापूर्वक याद किया जाना चाहिए.

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