गांधी को गोद लेने वाले व्यवसायी

पूंजीपतियों के साथ एक समस्या होती है कि वे या तो स्वयं ही अपनी प्राथमिक छवि और वृत्ति से मुक्त नहीं हो पाते. और कई बार समाज ही अनजाने में उन्हें जीवनपर्यंत उसी नज़र से देखता रह जाता है.

एक प्रखर स्वतंत्रता सेनानी के रूप में जमनालाल बजाज का स्वतंत्र चित्रण न हो पाने की वजह शायद यही रही होगी.

आज के पूंजीपतियों की मानसिकता और जीवन-चर्या को देखते हुए हमारे लिए कल्पना करना भी मुश्किल हो सकता है कि भारत में जमनालाल बजाज जैसे वैरागी पूंजीपति भी हुए हैं जिसने त्याग और ट्रस्टीशिप का ऐसा उदाहरण पेश किया कि गांधी और विनोबा जैसे लोग उनके साथ पारिवारिक सदस्य के रूप में घुल-मिल गए.

युवा जमनालाल के भीतर आध्यात्मिक खोजयात्रा की छटपटाहट थी और वह किसी सच्चे कर्मयोगी गुरु की तलाश में भटक रहे थे. इस क्रम में पहले वह मदन मोहन मालवीय से मिले. कुछ समय तक वे रबीन्द्रनाथ टैगोर के साथ भी रहे. अन्य कई साधुओं और धर्मगुरुओं से भी वह जाकर मिले.

1906 में जब बाल गंगाधर तिलक ने अपनी मराठी पत्रिका ‘केसरी’ का हिंदी संस्करण नागपुर से निकालने के लिए इश्तहार दिया, तो युवा जमनालाल ने एक रुपये प्रतिदिन के हिसाब से मिलनेवाले जेबखर्च से जमा किए गए सौ रुपये तिलक को जाकर दिया.

जमनालाल ने लिखा है कि देशसेवा के लिए दान में दिए गए उस सौ रुपये से जो खुशी उन्हें तब मिली थी, वैसी बाद में लाखों दान करने पर भी नहीं मिली. लेकिन तिलक को भी वे अपना गुरु नहीं मान सके.

इस बीच वह महात्मा गांधी द्वारा दक्षिण अफ्रीका में किए जा रहे सत्याग्रह की खबरों को पढ़ते रहे और उनसे बहुत प्रभावित होते रहे.

1915 में भारत वापस लौटने के बाद जब गांधीजी ने साबरमती में अपना आश्रम बनाया तो जमनालाल कई बार कुछ दिन वहां रहकर गांधीजी की कार्यप्रणाली और उनके व्यक्तित्व को समझने की कोशिश करते रहे.

गांधीजी में उन्हें संत रामदास के उस वचन की झलक मिली कि ‘उसी को अपना गुरु मानकर शीश नवाओ जिसकी कथनी और करनी एक हो.’ जमनालाल को अपना गुरु मिल चुका था. उन्होंने पूरी तरह से गांधीजी को अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया.

1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन के दौरान जमनालाल ने गांधीजी से अनुरोध किया कि मैं आपका ‘पांचवां बेटा’ बनना चाहता हूं और आपको अपने पिता के रूप में ‘गोद लेना’ चाहता हूं.

पहले पहल तो इस अजीब प्रस्ताव को सुनकर गांधीजी को आश्चर्य हुआ, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने इसपर अपनी स्वीकृति दे दी. 16 मार्च, 1922 को एक विचाराधीन कैदी के रूप में गांधीजी ने साबरमती जेल से जमनालाल को एक चिट्ठी में लिखा था—

‘तुम पांचवें पुत्र तो बने ही हो, किन्तु मैं योग्य पिता बनने का प्रयत्न कर रहा हूं. दत्तक लेनेवाले का दायित्व कोई साधारण नहीं है. ईश्वर मेरी सहायता करे और मैं इसी जन्म में इसके योग्य बन सकूं.’

जमनालाल ने सामाजिक सुधारों की शुरुआत सबसे पहले अपने घर से ही की. असहयोग आंदोलन के दौरान जब विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार शुरू हुआ तो उन्होंने सबसे पहले अपने घर के तमाम कीमती और रेशमी वस्त्रों को बैलगाड़ी पर लदवाकर शहर के बीचोंबीच उसकी होली जलवाई.

उनकी पत्नी जानकीदेवी ने भी सोने और चांदी जड़े हुए अपने वस्त्रों को आग के हवाले कर दिया और आजीवन खादी पहनने का व्रत ले लिया. अंग्रेज सरकार द्वारा अपनी ओर से दिए गए ‘राय-बहादुर’ की पदवी उन्होंने त्याग दी.

बंदूक और रिवॉल्वर जमा कराते हुए उन्होंने अपनी लाइसेंस भी वापस कर दी. अदालतों का बहिष्कार करते हुए अपने सारे मुकदमें वापस ले लिए. मध्यस्थता के जरिए विवादों को निपटाने के लिए अपने साथी व्यवसायियों को मनाया.

जिन वकीलों ने आज़ादी की लड़ाई के लिए अपनी वकालत छोड़ दी उनके निर्वाह के लिए उन्होंने कांग्रेस को 1 लाख रुपये का अलग से दान दिया.

सनातनियों के घोर विरोध के बावजूद वर्धा स्थित लक्ष्मीनारायण मंदिर में दलितों के प्रवेश कराने में उन्होंने विनोबा के नेतृत्व में अद्भुत सफलता हासिल की. अपने घर के प्रांगण, खेतों और बगीचों में स्थित कुओं को उन्होंने दलितों के लिए खोल दिया.

असहयोग आंदोलन के दौरान ब्रिटिश शासन के खिलाफ तीखा भाषण देने और सत्याग्रहियों का नेतृत्व करने के लिए 18 जून, 1921 को जमनालाल को गिरफ़्तार कर लिया गया.

उनके साथ-साथ विनोबा को भी गिरफ़्तार कर लिया गया. विनोबा को तो एक ही महीने की सजा हुई, लेकिन जमनालाल को डेढ़ साल के सश्रम कारावास की कठोर सजा और 3000 रुपये का जुर्माना भी हुआ.

11 फरवरी, 1942 को अकस्मात् ही जमनालालजी का देहांत हो गया. उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी जानकीदेवी ने स्वयं को देशसेवा में समर्पित कर दिया. विनोबा के भूदान आंदोलन में भी वह उनके साथ रहीं.

जमनालाल जी ने गांधीजी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को वास्तविक जीवन में जीकर दिखाया. उन्होंने प्रसिद्ध संत तुकाराम के इस पद को अपने जीवन का सूत्र माना था-

‘जोडोनियां धन उत्तम वेव्हारें. उदास विचारें वेच करी..’

यानी धन शुद्ध साधनों से और ईमानदारी से अर्जित करो और खर्च करो दूसरों की भलाई के लिए उदारतापूर्वक और विवेकपूर्वक.

आज के दौर में कम से कम भारत में ऐसे पूंजीपतियों के उदाहरण तो ढूंढने पर भी बिरले ही मिलेंगे.

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