एक देश एक चुनाव: लोकतंत्र की हत्या का प्रस्ताव

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2014 में हुए लोकसभा चुनावों में यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीति और नीयत पर भरोसा करने वालों की देश में कमी होती,  तो वे 282 सीटों पर कब्ज़ा कर के लोकसभा में न पहुंचे होते. किंतु उनके प्रधानमंत्री बनने के पहले और बाद के मोदी जी और उनके सबसे बड़े बफादार अमित शाह द्वारा जिस तरह की जुमलेबाजी और बीजेपी की पैत्रिक संस्था द्वारा किसी न किसी बहाने जिस प्रकार से अराजकता/जातीय हिंसा को बढ़ावा दिया जा रहा है, मोदी जी और उनके समर्थक घटकों से समाज के आम आदमी का दम घुटने लगा है.
लगता तो ये है कि  मोदी जी की सरकार और सरकार के समर्थक हिन्दूवादी संगठनों ने 2019 में होने वाले चुनावों के मद्देनजर मतदाता के जड़ों में मट्ठा डालने का काम शुरु कर दिया है. इस कमी को पूरा करने के लिए मोदी जी का तानाशाही आचरण उजागर होने लगा है. यूं तो हमारे देश में लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराने की चर्चा वर्षों से चली आ रही थी किंतु अपनी सरकार के दो साल पूरे होते ही, मोदी जी ने अपनी जिस मुहिम को तेज़ करने का कवायद की है, वह है लोकसभा, विधानसभा, नगर निकायों और पंचायतों के चुनाव एक साथ कराना.
इस संबंध में मोदी जी का यह तर्क ज़रा भी यक़ीन करने लायक नहीं है कि वे चाहते हैं कि राजनीतिज्ञों को कभी कहीं,  कभी कहीं,  होने वाले चुनावों की उठापटक में ज़्यादा वक़्त देने के बजाय सामाजिक कार्यों पर ध्यान देने के लिए समय मिलेगा और राजनीतिक संस्थानों के चुनाव अलग-अलग कराने पर होने वाले सरकारी खर्च में हज़ारों करोड़ रुपयों की बचत भी होगी. सिद्धांततः मोदी जी की इन दोनों दलीलों से पवित्रता की ख़ुशबू आती है, लेकिन मोदी जी अगर इतने ही सतयुगी होते तो फिर बात ही क्या थी?  इसलिए उनके ये तर्क मानने को मन नहीं करता.

असल में मोदी जी को चिंता हो रही है कि 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों में उनकी काठ की हाँडी का क्या होगा. दोबारा चढ़ेगी कि नहीं? सत्ता के मद में शायद मोदी जी भूल गए कि काठ की हाँडी चूल्हें पर एक बार ही चढ़ पाती है. इस माने में मोदी जी की चिंता जायज ही है. इसलिए गुजरात से दिल्ली की छलांग लगाने की तैयारी के दौर में ही उन्होंने दिमाग़ बना लिया था कि दूसरी बार सिंहासन कब्जाने के लिए उन्हें देश भर में सारे चुनाव एक साथ करवाने का दांव खेलना होगा. इसलिए भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा के पिछले चुनाव के लिए ज़ारी अपने घोषणा पत्र में चुपके से यह लिख दिया था कि सरकार में आने के बाद वह “लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का तरीक़ा निकालेगी.” इसका सीधा सा अर्थ है कि लोकसभा में ये प्रस्ताव आसानी से पास हो जाएगा किंतु राज्यसभा में जरूर पास नहीं हो पाएगा. तब मोदी जी को एक मुद्दा मिल जाएगा कि हमने जो वायदे जनता से किए थे, उन्हें विपक्ष लागू करने में टाँग अड़ा रही है. वैसे भी संविधान में संशोधन करने के लिए दो तिहाई सांसदों के समर्थन की जरूरत होती है. बीजेपी के साथ शायद इतना समर्थन नहीं है, यदि होता तो वो इस प्रस्ताव को केवल हवा में न उछालते, अब तक प्रस्ताव को लागू करा चुके होते. लगता तो यह है कि इस मुद्दे को हवा देने का आशय केवल और केवल अपनी नाकामियों का ठीकरा विपक्ष के सिर पर मढ़ना और अपने चिरपरिचित अंदाज में मतदाता को पुन: मूर्ख बनाने का एक प्रयास है.

बीजेपी की सरकार बनने के बाद मोदीजी ने ख़ामोशी से अन्दरखाने अपना यह काम ज़ारी रखा. आर एस एस ने कस्बों और गांवों तक अपनी शाखाओं का तेज़ी से न केवल विस्तार करना शुरू किया अपितु किसी न किसी बहाने समाज में अराजकता फैलाने का काम शुरु कर दिया. मोदी ने भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति की एक बैठक में सभी चुनाव एक साथ कराने की अपनी योजना को पूरी तरह से समझाया और फिर सभी राजनीतिक दलों की एक बैठक में भी इस पर ज़ोर दिया कि बड़े-छोटे सभी चुनावों का एक साथ होना क्यों ज़रूरी है.
असल मे तमाम नुस्खे आजमाने के बाद भी बिहार और कई अन्य राज्यों के विधान सभाओं  के चुनावों में मात खाने के तुरंत बाद दिसंबर 2015 में प्रधानमंत्री मोदी ने “एक देश एक चुनाव” के मद्दे की जोर-शोर से वकालत करते हुए एक ठोस क़दम उठाया. और एक संसदीय समिति गठित की और लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की संभावनाओं के बारे में अपनी रिपोर्ट देने को कहा. संसद में कार्मिक, जन-शिक़ायतें और क़ानून-न्याय मंत्रालय की स्थायी समिति ने जो रपट पेश की वह कहती है कि “बार-बार होने वाले चुनावों की परेशानियों से लोगों और सरकारी मशीनरी को राहत दिलाने का समाधान खोजा जाएगा.“ रपट में यह भी कहा गया कि “अगर भारत को एक मज़बूत लोकतांत्रिक देश के नाते विकास की दौड़ में दुनिया के अन्य देशों से मुक़ाबला करना है तो देश को आए दिन होने वाले चुनावों से निज़ात पानी ही होगी.”

संसदीय समिति की रपट में एक साथ चुनाव कराने के तीन फ़ायदों पर ज़ोर दिया गया…. एक- इससे बार-बार चुनाव कराने पर अभी खर्च होने वाले सरकारी धन में काफी कमी आएगी; दो- चुनावों के समय लगने वाली आचार-संहिता की वज़ह से रुक जाने वाले कामों से होने वाला नुक़सान कम हो जाएगा; और तीन- सरकारी अमले के चुनाव के काम में लग जाने की वज़ह से सार्वजनिक सेवा के बाक़ी ज़रूरी कामों पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा. समिति के मतानुसार यदि देश में लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ होंगे तो इस परेशानियों से निजात मिल सकती है. रपट में विस्तार से यह भी बताया गया है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अंततः एक साथ कराने की स्थिति कैसे लाई जाए और इस बीच किस तरह विधानसभाओं के कार्यकाल को समायोजित किया जाए…..

इस प्रकार की आंकड़ेबाजी से सहमत हुआ जा सकता है किन्तु इस प्रस्ताव के व्यावहारिक पक्ष पर समिति ने कोई बात नहीं की कि यदि ऐसा हो जाता है तो केन्द्र और राज्य सरकारों का व्यवहार क्या होगा. इस प्रस्ताव के पीछे की सत्ताशीन राजनीतिक दल की मंशा को सियासी अखाड़े का कोई भी खिलाड़ी बड़ी सहजता से भाँप सकता है. कहना अतिशयोक्ति न होगा कि यदि केंद्र और राज्यों की सरकारों के लिए चुनाव एक साथ होंगे तो मतदाता एक ही राजनीतिक दल के पक्ष में मतदान करना पसंद करता है. यह एक आम अवधारणा है. इसमें कोई रहस्य की बात नहीं. ऐसा होने पर केन्द्र और राज्यों में किसी एक ही दल की सरकारें बनने की संभावना को नहीं नकारा जा सकता. जो न लोकतंत्र की परिभाषा को नकारता है अपितु लोकतंत्र की हत्या का द्योतक है.  1999 से अब तक देश लोकसभा और विधान सभाओं में एक साथ हुए चुनावों के आँकड़े इस बात का प्रमाण हैं. राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने पर 77 प्रतिशत मतदाताओं ने लोकसभा और राज्य विधान सभाओं लिए एक ही पार्टी को वोट देना पसंद किया. मोदी इतने भोले तो नहीं हैं कि इस सत्य से अवगत न हों. इसलिए संविधान की तमाम व्यवस्थाओं से इतर 2019 में सभी चुनाव एक साथ कराने की उनकी ललक आसानी से समझी जा सकती है.

चिरपरिचित संविधान विशेषज्ञ माननीय आर. एल. केन के अनुसार संविधान की धारा 83 (2) में लोकसभा का कार्यकाल उसकी पहली बैठक से पांच साल तक के लिए तय है. इसी तरह धारा 172 (1) विधानसभाओं को भी पांच साल के कार्यकाल का अधिकार देती है. सामान्य स्थिति में यह कार्यकाल पूरा होना ही चाहिए. लोकसभा और विधानसभाएं समय से पहले भंग की जा सकती हैं. प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री यह भी तय कर सकते हैं कि चुनाव कब कराए जाएं. लेकिन एक साथ चुनाव कराने के मक़सद से विधानसभाओं को समय से पहले भंग करना संविधान का दुरुपयोग ही माना जाएगा. असामान्य स्थित में राष्ट्रपति को किसी विधानसभा का कार्यकाल एक साल तक बढ़ाने का अधिकार है.

अब जबकि काँग्रेस पार्टी द्वारा नियत किए गए वर्तमान राष्ट्रपति ने ही मोदी जी के “एक देश एक चुनाव” से सहमति व्यक्त कर दी है तो हमें 2017 के जुलाई-अगस्त में सत्तारूढ़ भाजपा की कृपा से मिलने राष्ट्रपति से “एक देश एक चुनाव” के नकार की कैसे आशा की जा सकती. जाहिर है कि अगला राष्ट्रपति निश्चित रूप से आर एस एस द्वारा ही प्रस्तावित होगा, बीजेपी की शायद राष्ट्रपति के चुनाव में केवल और केवल सहमति ही होगी. यह केवल शंका ही नहीं अपितु ऐसा सोचने के पीछे बीजेपी के सुब्रह्मनियम स्वामी का वो बयान है जिसमें उन्होंने दिल्ली के उप-राज्यपाल नजीब जंग को हटाकर संघ के किसी व्यक्ति को दिल्ली के उप-राज्यपाल बनाने की वकालत की है. यहां एक सवाल उठना जरूरी है कि क्या किसी एक राजनीतिक दल की इच्छा पूरी करने के लिए अपने इस विशेषाधिकार का इस्तेमाल करना, क्या किसी भी राष्ट्रपति के लिए संवैधानिक और नैतिक नज़रिए से उचित होगा?

भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी ने भी भारत में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव को एक साथ करवाने पर जोर दिया है, हालाँकि इसके लिए सभी राजनीतिक दलों का एकमत होने के साथ-साथ संवैधानिक संशोधन भी जरूरी है. उन्होंने यह भी कहा कि यदि ऐसा हो जाता है तो चुनाव आयोग लोकसभा चुनाव और राज्य विधानसभा के चुनावों को एक साथ करवाने के लिए तैयार है.

न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक के अनुसार, “लोकसभा और विधान सभाओं के एक साथ चुनाव कराने में कई और भी व्यवहारिक दिक्कतें आएंगी. एक ही दिन पूरे देश में चुनाव कराने के लिए पुलिस और अर्द्ध-सैनिक बलों की क़रीब चार हज़ार कंपनियां लगेंगी. अभी सरकार बमुश्किल एक हज़ार कंपनियों का इंतज़ाम कर पाती है. चार गुना ज़्यादा पुलिस-बल एकाएक हवा में से तो पैदा हो नहीं सकता. इसके लिए पैसा कहां से आएगा. एक ही दिन में सभी जगह चुनाव कराने के लिए लगने वाली मतदान मशीनों का इंतज़ाम भी एक मुद्दा है. एक साथ चुनाव कराने पर राज्यों में स्थानीय मुद्दे, राष्ट्रीय मुद्दों के शोर में ग़ुम हो सकते हैं या इसके उलट स्थानीय मुद्दे इतने हावी हो सकते हैं कि केंद्रीय मसलों का कोई मतलब ही न रहे.”  ….

हाँ! इस योजना को लागू किए जाने की वकालत करना राजनीतिक दलों के हित में तो हो सकता है किंतु देश और देश की जनता के हित में कतई लाभकारी नहीं हो सकता. उदाहरण के रूप में 2014 के लोकसभा चुनावों को ही लिया जा सकता है. मानलो कि यदि इस वर्ष के लोकसभा चुनावों के साथ-साथ विधान सभाओं के चुनाव भी होते तो जनता का मत महज एक तरफ ही जाता. केन्दीय सरकार के मुद्दे और राज्य सरकारों के मुद्दे अलग-अलग न होकर घालमेल का शिकार हो जाते. इतना ही नहीं, यह भी जब केन्द्र में सत्तारूढ़ बीजेपी के चलते सरकार दो साल पूरे होने तक समाज में, बीजेपी की पैत्रिक संस्था आर एस एस का फैला आतंक किस हद तक चला जाता यदि राज्य सरकारें भी बीजेपी की ही होतीं तो देश की क्या हालत होती, इसका सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है.

सारांशत: कहा जा सकता है कि “एक देश एक चुनाव” की व्यवस्था देश में अधिनायकवाद या यूं कहें कि हिटलशाही और तानाशाही को ही जन्म देगी. देश में चौतरफा अराजकता का माहौल होगा. सत्तारूढ़ राजनीतिक दल का आचरण लोकतांत्रिक न होकर पूरी तरह अलोकतांत्रिक हो जाएगा.  या यूं कहें कि यदि “एक देश एक चुनाव” की व्यवस्था देश में  लागू हो जाती है तो यह लोकतंत्र की हत्या का प्रस्ताव ही सिद्ध होगा.

– लेखक  लेखन की तमाम विधाओं में माहिर हैं. स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर इन दिनों अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक के संपादन के साथ स्वतंत्र लेखन में रत हैं. संपर्क- 9911414511

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