भारत की शिक्षा व्यवस्था और वर्ण-माफिया

भारत में आजादी के बाद इंजीनियरिंग, विज्ञान, मेडिसिन, मेनेजमेंट या दर्शन मानिविकी और समाज विज्ञान की पढ़ाई करने वाले तबके पर और उसकी समाज-देश के प्रति नजरिये पर गौर करना जरुरी है. भारत के इस सुदीर्घ दुर्भाग्य और हालिया “गोबर और गौमूत्र” के विराट दलदल को समझने के लिए हमें इस पीढ़ी के मन को और “वर्ण माफिया” के काम करने के तरीके को समझना होगा.

आजादी के बाद पहली पीढ़ी के ये तकनीकी बाबू और सामाजिक विज्ञानी या साहित्यकार और दार्शनिक भी अधिकांशसवर्ण परिवारों से आये हैं जिन्हें समाज मे बदलाव की कोई जरूरत महसूस नहीं होती. उन्हें अपने परिवार, रिश्तेदारों या समुदाय के बाहर किसी के जीने मरने या शोषण से कोई सहानुभूति नहीं होती इसलिए वे यथास्थितिवादी बनकर उभरे हैं. उन्होंने विज्ञान, तकनीक, मैनेजमेंट और मेडिसिन सहित समाज विज्ञान और दर्शन और स्वयं तर्कशास्त्र आदि की पढ़ाई को इतना मेकेनिकल बना दिया है कि उसमें आलोचनात्मक विश्लेषण और क्रिटिकल थिंकिंग का कोई स्कोप ही नहीं रह गया है.

सवाल ये है कि भारत में इंजीनियरिंग मेडिसिन और विज्ञान पढ़ने वालों के सामाजिक सरोकार कैसे कम से कमतर होते जा रहे हैं. क्यों ये लोग पैसा कूटने की मशीन बनकर अपने ही अन्धविश्वासी अनपढ़ और गरीब लोगों का शोषण करते हैं? क्यों इनमें सामान्य सी मनुष्यता और सामाजिक हितचिन्तना पैदा नहीं होती?

स्कूल-कॉलेज के शिक्षा जगत का उदाहरण लिया जा सकता है. उसके जरिये समझना आसान होगा कि कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तर शिक्षा का जैसा व्यवसायीकरण और अपराधीकरण हुआ है वह चौंकाने वाला है.

पाकिस्तान, अफगानिस्तान, मिडिल ईस्ट और अफ्रीका में या इटली में जिस तरह से कबीलाई परिवारवाद और वंश आधारित माफिया चलता है उसी तरह भारत में “वर्ण माफिया” चलता है. इसे अकादमिक जगत में न्यायपालिका, प्रशासन और राजनीति में काम करते हुए आसानी से देखा जा सकता है. अन्य देशों का माफिया स्वयं को अपराधी महसूस करता है. उसमें एक ख़ास किस्म का आत्मग्लानि का भाव भी होता है कि वे गलत कर रहे हैं. लेकिन भारत का “वर्ण माफिया” शास्त्र और धर्म के गर्भ से जन्मा है. उसमें किसी तरह का कोई अपराध भाव या आत्मग्लानि नहीं होती इसीलिए इस माफिया को समझ पाना और इसे उखाड़ फेंकना एक असंभव सा काम बन गया है.

इस माफिया को समझने के लिए एक प्रयोग कीजिए अपने किसी मित्र से पूछिए कि भारत में सफल या समृद्ध लोगों की कल्पना करते हुए उनके सरनेम या जातिनाम बताये. आपको आश्चर्य होगा कि आपको ये सभी सरनेम ‘सवर्ण द्विजों’ के हीमिलेंगे. ये सरनेम आपको न्यायपालिका, सरकार, व्यापार, शिक्षा और प्रशासन इत्यादि के सभी आयामों में दबदबा बनाये हुए नजर आयेंगे. इसका क्या मतलब हुआ?

इसका ये मतलब हुआ कि समाज को ज़िंदा रहने के लिए भी जितने जरुरी विभाग-आयाम हैं उन सब पर “वर्ण माफिया” बैठा हुआ है. आप अनाज मंडियों और व्यापार में झांककर देखिये आपको “वैश्य वर्ण माफिया” बैठा मिलेगा. उस माफिया से बचकर कोई दूसरी जाति या सरनेम वाला व्यक्ति या समूह व्यापार या उद्यमिता नहीं कर सकता. न्यायपालिका और शासन, सरकार सहित धर्म में देखिये वहां “ब्राह्मण वर्ण माफिया” जमा हुआ है. वे कभी भी भारत में अपने वर्ण के दबदबे को कम नहीं होने देना चाहते, उनका न्यायबोध शासन बोध या शासन-प्रशासन का तरीका असल में आत्मरक्षण और यथास्थिति के रक्षण को समर्पित होता है. इसी तरह शिक्षा जगत को देखिये वहां भी “सवर्ण माफिया” ही मिलेगा.

शिक्षा जगत को गौर से देखिये वहां कौन से सरनेम या जातिनाम वाले लोग विभागाध्यक्ष, प्रोफेसर, डीन, चांसलर या वाइस चांसलर हैं? निश्चित ही सब के सब निर्विवाद रूप से ‘सवर्ण द्विज हिन्दू’ हैं. अब आगे देखिये कि शिक्षा, शिक्षण, प्रशिक्षण और ज्ञान विज्ञान, तकनीक सहित मानविकी, समाज विज्ञान आदि विषयों में भारत में रिसर्च और नवाचार क्यों इतना कमजोर और फटेहाल है? किन लोगों पर इसकी जिम्मेदारी डाली जानी चाहिए? दलितों आदिवासियों और उनके आरक्षण पर देश को कमजोर करने का आरोप लगता है लेकिन उनकी कुल जमा संख्या इन अकादमिक संस्थानों में दो प्रतिशत भी नहीं हैं.

भारत में 90 से 95 प्रतिशत पद सभी अकादमिक संस्थानों, स्कूलों कॉलेजों विश्वविद्यालयों में सवर्ण द्विज हिन्दुओं द्वारा भरे हुए हैं. अगर भारत सामूहिक रूप से शिक्षा जगत में फिसड्डी बना हुआ है तो ये सवर्ण द्विज हिन्दुओं की सोची समझी साजिश है, ये कहना गलत होगा कि ये उनकी कमजोरी के कारण हुआ है. मैं ये कहना चाहुंगा कि ये उनकी सफलता है वे जो चाहते हैं, वैसा कर रहे हैं. वे भारत को कमजोर गुलाम अशिक्षित और पिछड़ा बनाये रखना चाहते हैं इसके लिए वे जानते हैं क्या करना है और कैसे करना है. ये काम वे हजारों साल से कर रहे हैं. वे बहुत कुशल और सफल लोग हैं उन्हें मूढ़ या कमजोर कहना स्वयं में मूढ़ता होगी.

मैं इसे सोची-समझी साजिश क्यों कह रहा हूँ? ये बहुत गहरी और जरुरी बात है आइये इसे सरल भाषा में समझते हैं.

शिक्षा का अर्थ सिर्फ अक्षर ज्ञान और कमाकर खाना सीखना नहीं होता है. शिक्षा का अर्थ होता है एक मनुष्य होने के नाते अपने विशिष्ट व्यक्तित्व और अपने जमीर को पहचानते हुए अपने और अपने समाज के बारे में निर्णय लेकर उस पर अमल करने की ताकत हासिल करना. शिक्षा को इंसान बनने का या निर्णय लेने की ताकत हासिल करने का जरिया भी कहा जा सकता है. ऐसी शिक्षा का मतलब होगा कि व्यक्ति या समाज अपनी जिन्दगी, समाज की जिन्दगी और देश की जिन्दगी के बारे में तटस्थ और वैज्ञानिक ढंग से सोच सके और उसे बेहतर बनाने के लिए जमीनी कदम उठा सके.

अगर भारत की जनता में इस तरह की सोच पैदा होगी तो लोग सवाल उठाएंगे कि औरतों को बराबरी का हक क्यों नहीं है? क्यों उन्हें सैकड़ों साल तक शिक्षा, सम्मान और प्रेम से वंचित रखा गया? क्यों लाखों करोड़ों औरतों को उनके पतियों की लाशों पर ज़िंदा जलाया जाता रहा है? क्यों दलितों और स्त्रियों को एकजैसा घृणित समझते हुए हजारों साल तक शिक्षा और राजनीतिक सामाजिक प्रतिनिधित्व और अधिकारों से वंचित रखा गया है? क्यों भारत की रक्षा का एकमुश्त ठेका क्षत्रियों को देने के बावजूद (या शायद इसी कारण) भारत दो हजार साल तक युद्धों में हारता रहा है और कम से कम एक हजार साल गुलाम रहा है? क्यों शिक्षा का एकमुश्त ठेका ब्राह्मणों को देने के बावजूद (या शायद इसी कारण) भारत अनपढ़ और अन्धविश्वासी बना हुआ है? क्यों व्यापार का एकमुश्त ठेका वैश्यों को देने के बावजूद (या शायद इसी कारण) भारत इतना गरीब और बेरोजगार क्यों बना हुआ है?

भारत में अगर शिक्षा सच में ही फ़ैल जाए और दलितों, बहुजनों आदिवासियों की अधिकतम जनसंख्या तक पहुंच जाए तो फिर इतनी बड़ी संख्या पर हजारों साल से नियन्त्रण रखने वाले, इनका खून चूसने वाले धर्म और समाज व्यवस्था का क्या होगा? कौन फिर भगवान् से डरेगा? कौन जात-पात को मानते हुए बिना शर्त बेगार या गुलामी करेगा? कौन फिर लोकतंत्र में एक बोतल एक नोट के बदले चुपचाप वोट देकर पांच साल के लिए सो जायेगा? कौन फिर मंदिर मस्जिद के नाम पर दंगा करेगा? कौन होगा जो नसबंदी या नोटबंदी पर सवाल न उठाएगा? फिर कौन
आंख कान बंद करके भक्ति करेगा? ये वास्तविक प्रश्न हैं जो भारत में शिक्षा के लिए जिम्मेदार लोग शिक्षा के संबंध में कुछ भी नया करने से
पहले अपने आपसे जरुर पूछते हैं.

वे जब ये सवाल अपने आपसे पूछते हैं तो उन्हें उनकी “अंतरात्मा” से एक बड़ा भयानक उत्तर मिलता है. उन्हें उत्तर मिलता है कि वाकई अगर भारत की जनता शिक्षित हो गयी तो उनका “वर्ण माफिया” दस साल के भीतर मिट्टी में मिल जाएगा. इसीलिये वे अपने मुट्ठी भर लोगों को सत्ता बनाये रखने के लिए भारत की अस्सी प्रतिशत जनता को और स्वयं भारत को अज्ञान और अंधविश्वास के दलदल में फसाए रखते हैं. इसीलिये वे बहुत सोचे-विचारे ढंग से स्कूलों-कॉलेजों सहित पूरे शिक्षातंत्र को निकम्मा और बेकार बनाये रखते हैं.

भारत के स्कूलों-कॉलेजों की व्यवस्था देखिए. वहां विज्ञान, समाज विज्ञान, साहित्य, भाषा आदि किस ढंग से और क्यों पढ़ाया जाता है. विज्ञान
को तोता रटंत की तरह पढ़ाने का असल कारण क्या है? समाज विज्ञान में लोकतांत्रिक चेतना और मानवाधिकार सहित समता और बंधुत्व की आदर्शों की बात को गायब करने का क्या कारण है? पहली कक्षा से बारहवी कक्षा तक अम्बेडकर, फुले, पेरियार, अछूतानन्द, गोरख, कबीर और नानक को शिक्षा से गायब कर देने का क्या कारण है? इन सवालों के साथ फिर ये भी सोचिए कि जिस वर्ण के कर्मकांडी और अन्धविश्वासी लोगों का समाज और शिक्षा व्यवस्था पर कब्जा है. उनका विज्ञान से या यूरोपीय वैज्ञानिक चेतना से या यहां गिनाये गए अम्बेडकर, कबीर जैसे नामों से क्या रिश्ता है? क्या वे सच में भारतीयों को विज्ञान या अम्बेडकर, पेरियार या कबीर सिखाने के हक में हैं? क्या बच्चों को सही अर्थ में विज्ञान सिखाने के बाद या कबीर पढ़ाने के बाद उन्हें अन्धविश्वासी देवी देवताओं गुरुओं आदि की भक्ति में झोंका जा सकता है? क्या वास्तव में विज्ञान सिखाने के बाद गुरुपूर्णिमा पर अंधविश्वास का चरणामृत उन्ही छात्रों को पिलाया जा सकता है? इन सबका एक ही उत्तर है – नहीं!

अगर भारत में सही तरीके की शिक्षा फ़ैल जाए तो न तो सवर्ण द्विज माफिया को कोई छात्र/छात्रा चरण स्पर्श करेगा, न पोंगा पंडित बाबाओं धर्मगुरुओं की गुलामी करेगा, न ही इनके फैलाए दंगों में लड़ने के लिए तैयार होगा. अब सवाल ये है कि भारत की शिक्षा और समाज पर नियन्त्रण रखने वाले लोग क्या ये सब होने देना चाहते हैं? अगर वे ये होने देना चाहते हैं तो उन्हें पिछले सत्तर सालों में या उसके भी पहले ज्ञात दो हजार साल के इतिहास में किसने रोका था? बात एकदम साफ़ है कि ये वर्ण माफिया जान बूझकर समाज को शिक्षा से वंचित बनाता आया है ताकि इसका एकाधिकार इस देश पर बना रहे.

कल्पना कीजिये अगर सच में ही यूरोपीय ढंग की वैज्ञानिक शिक्षा भारत में फ़ैल गयी तो शिक्षा, न्यायपालिका, शासन-प्रशासन आदि में मलाई खा रहे इस “वर्ण माफिया” के पास भारत की ऐतिहासिक रूप से लंबी गुलामी, कमजोरी, कायरता और धर्मान्धता सहित वर्तमान में जारी करोड़ों-करोड़ों गरीबों के शोषण और दमन से जुड़े सवालों के क्या जवाब होंगे? किसानों की आत्महत्या या मजदूरों के पलायन के सवालों के इनके पास क्या उत्तर हैं? ये वे सबसे गंभीर सवाल हैं जो भारत के सवर्ण द्विज हिन्दू शासक हजारों साल से टालते रहे हैं. ये सवाल अगर दलितों, आदिवासियों, बहुजनों और स्त्रीयों के मन में आ गया तो वे इस वर्ण माफिया को उखाड़ फेकेंगे.

इसका सीधा अर्थ ये निकलता है कि इस सवाल को उभरने से बचाने के लिए इस देश की शिक्षा व्यवस्था को लूला-लंगड़ा और अंधा-बहरा बनाये रखना जरुरी है. अभी वर्ण माफिया के “दैवीय आधिपत्य” को ही धर्म समझने वालों ने शिक्षा के साथ जो व्यवहार करना शुरू किया है उसे भी देखा जाना चाहिए. वे यूरोपीय ढंग की वैज्ञानिक और क्रिटिकल थिंकिंग पैदा करने वाली शिक्षा से भयानक ढंग से डरे हुए हैं. उन्हें पता है कि जैसे यूरोप में इस शिक्षा ने पुनर्जागरण लाकर धर्म और भगवान को उखाड़ फेंका है उसी तरह उनके धर्म और भगवन को भी ये शिक्षा उखाड़ फेंकेगी. इसीलिए भारत का वर्ण-माफिया हजारों साल से शिक्षा को बर्बाद करने का संगठित षड्यंत्र चलाता आया है.

भारत की अस्सी प्रतिशत बहुजन आबादी को और कुल जनसंख्या की पचास प्रतिशत स्त्रियों को शिक्षा से वंचित रखने वाले शास्त्र रचना कोई सामान्य बात नहीं है. ये वर्ण-माफिया को बनाये रखने की धर्मसम्मत और शास्त्रसम्मत रणनीति रही है. ये आज भी जारी है. इसी राजनीति ने भारत को अनपढ़, विभाजित, कमजोर, डरपोक और गरीब बनाया है.

सोचिये अगर भारत के अस्सी प्रतिशत दलित और शूद्र शिक्षित हो सकते, शस्त्र और शास्त्र उठा सकते तो मुट्ठी भर मंगोल, शक, हूण, यूनानी या ब्रिटिश भारत को जीत सकते थे? भारत बार बार हारा क्योंकि अस्सी प्रतिशत जनता न किताब उठा सकती थी न तलवार उठा सकती थी. आज भी इन अस्सी प्रतिशत को दबाने और सताने में ही भारत की कुल जमा समझदारी और ताकत खर्च हो रही है इसीलिये भारत किसी भी क्षेत्र में अपने समकक्ष देशों या यूरोप अमेरिका से मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है.

जिस घर में मुखिया अपने ही परिवार के शोषण और दमन में अपनी सारी ताकत खर्च किये दे रहा हो उसका पड़ोसियों से बार बार हार जाना एकदम स्वाभाविक सी बात है. भारत का सवर्ण माफिया अपने ही अस्सी प्रतिशत जनसंख्या के खिलाफ षड्यंत्र और अपराध करता रहता है इसलिए उन्हें दुनिया के अन्य सभ्य देशों के बराबर खड़े होने की तैयारी का समय ही नहीं मिलता. घर के भीतर घमासान मचा हुआ है, भारत के अंदर महाभारत और राष्ट्र के भीतर महाराष्ट्र का दबदबा बना हुआ है, ऐसे में पडौसियों से हारने और पिटने से कौन बच सकता
है? यही भारत का कुल जमा इतिहास है.

शिक्षा और नवजागरण को रोके रखने के लिए भारत का वर्ण-माफिया बहुत बड़ी कीमत चुकाता आया है. भारत की गुलामी से बड़ी कीमत क्या हो सकती है? इस पर मजा देखिये कि जिन लोगों ने भारत को अशिक्षित कमजोर और विभाजित रखकर इसे गुलाम बनने और हारने पर मजबूर किया वे आज हमें राष्ट्रवाद सिखा रहे हैं. और शिक्षा सहित शिक्षा के पूरे तंत्र को बर्बाद करने का सबसे बड़ा प्रयास भी आरंभ कर चुके हैं.

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