आंबेडकरवाद पर ग्रहण

14 अप्रैल को लखनऊ के किंग जार्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी में डॉक्टरों द्वारा आयोजित एक भव्य आंबेडकर जयंती समारोह में शिरकत करने के बाद जब मैं लखनऊ के गोमती नगर अवस्थित सामाजिक परिवर्तन स्थल की ओर जा रहा था: दारुल सफा के सामने गुजरते एक जुलुस को देखकर स्तब्ध हुए बिना न रह सका. स्तब्ध इसलिए हुआ कि इसमें शामिल लोगों के हाथों में लाल झंडे थे और वे आंबेडकर जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे.

लाल झंडे हाथों में लिए वामपंथी इस तरह आंबेडकर का जय-जयकार कर सकते हैं, यह मेरी कल्पना से परे था. लिहाजा मैं उसमें शामिल एक कार्यकर्ता को रोक कर जब अपना विस्मय व्यक्त किया तब पता चला कि मानसा (पंजाब ) में गत 23-28 मार्च तक चले भाकपा (माले) के राष्ट्रीय महाधिवेशन में निर्णय लिया गया था कि आंबेडकर जयंती को ‘ संविधान बचाओ-लोकतंत्र बचाओ’ दिवस के रूप में मनाया जायेगा. इसी संकल्प के तहत भाकपा (माले) ने माकपा, भाकपा, एसयूसीआई(सी) इत्यादि अन्य वाम दलों के साथ मिलकर परिवर्तन चौक से हजरत गंज चौराहा स्थित आंबेडकर प्रतिमा तक संयुक्त मार्च निकालने का संकल्प लिया था. ऐसा सिर्फ लखनऊ ही नहीं बल्कि इलाहबाद,कानपूर, रायबरेली, जालौन, गाजीपुर, बलिया समेत उत्तर प्रदेश के अन्य जिलों में भी डॉ. आंबेडकर जयंती के अवसर पर धरना-प्रदर्शन, जुलुस इत्यादि निकाल कर किया गया, इसकी जानकार 15 अप्रैल के प्रकाशित अख़बारों से हुई.

निश्चय ही जो वामपंथी कभी डॉ. आंबेडकर को ब्रिटिश डॉग कहा करते थे, उनके द्वारा इस तरह आंबेडकर जयंती मनाना एक आश्चर्य का विषय ही कहा जायेगा. लेकिन यह आश्चर्य भी नहीं है . आज आंबेडकर जयंती एक लोक-उत्सव का रूप ले ली है, जिसमें तमाम विचारधारा के दलों को शामिल होते देखा जा सकता है . आज आंबेडकर जयंती जिस उत्साह और जोश खरोश के साथ मनाई जाती है, वैसा विश्व के किसी अन्य महामानव की जयंती में दिखना मुश्किल है. आंबेडकरवादी पार्टी के रूप में पहचान बना चुकी बसपा तो पहले ही बड़े पैमाने पर आंबेडकर जयंती मनाती रही है, इसमें मार्क्सवादी, गांधीवादी , राष्ट्रवादी के साथ मार्क्सवादी और लोहियावादी दलों को भी होड़ लगाते देखा जा सकता है.

यही नहीं कमाल की बात तो यह है कि जिनके लिए आंबेडकर वर्षो से अस्पृश्य रहे वे दल आज ताल ठोक कर इस बात का दावा कर रहे हैं कि आंबेडकर को सम्मान देने में उनसे आगे कोई नहीं. लेकिन आज कई आंबेडकर विरोधी दल अगर आंबेडकर के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने में होड़ लगा रहे हैं तो इससे निश्चय ही सच्चे आंबेडकरवादी आह्लादित हो सकते हैं. लेकिन ऐसे आंबेडकरवादियों को आह्लादित होने के साथ चिंतित भी होने की जरुरत है क्योंकि मंडल उत्तरकाल में जो ‘वाद’ सारे वादों को म्लान करते हुए नित्य नई बुलंदी छूते जा रहा है, उस पर आज ग्रहण सा लग गया है. इस बात को समझने के लिए पहले आंबेडकरवाद की परिभाषा और विश्वमय इसकी प्रभावकारिता को ठीक से समझ लेना आवश्यक है .

वैसे तो आंबेडकरवाद की कोई निर्दिष्ट परिभाषा नहीं है, किन्तु विभिन्न समाज विज्ञानियों के अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि जाति,नस्ल,लिंग,इत्यादि जन्मगत कारणों से शक्ति के स्रोतों(आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक-धार्मिक इत्यादि) से जबरन बहिष्कृत कर सामाजिक अन्याय की खाई में धकेले गए मानव समुदायों को शक्ति के स्रोतों में कानूनन हिस्सेदारी दिलाने का प्रावधान करने वाला सिद्धांत ही आंबेडकरवाद है और इस वाद का औंजार है: आरक्षण . भारत के मुख्यधारा के बुद्धिजीवियों के द्वारा दया-खैरात के रूप में प्रचारित आरक्षण और कुछ नहीं, शक्ति के स्रोतों से जबरन बहिष्कृत गए लोगों को कानून के जोर से उनका प्राप्य दिलाने का अचूक माध्यम मात्र है.

बहरहाल दलित,आदिवासी और पिछड़ों से युक्त भारत का बहुजन समाज प्राचीन विश्व के उन गिने-चुने समाजों में से एक है जिन्हें जन्मगत कारणों से शक्ति के समस्त स्रोतों से हजारों वर्षों तक बहिष्कृत रखा गया.ऐसा उन्हें सुपरिकल्पित रूप से धर्म के आवरण में लिपटी उस वर्ण- व्यवस्था के प्रावधानों के तहत किया गया जो विशुद्ध रूप से शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था रही.इसमें अध्ययन-अध्यापन ,पौरोहित्य,भूस्वामित्व,राज्य संचालन,सैन्य वृत्ति,उद्योग-व्यापारादि सहित गगन स्पर्शी सामाजिक मर्यादा सिर्फ ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्यों से युक्त सवर्णों के मध्य वितरित की गयी.स्व-धर्म पालन के नाम पर कर्म-शुद्धता की अनिवार्यता के फलस्वरूप वर्ण-व्यवस्था ने एक आरक्षण व्यवस्था का रूप ले लिया ,जिसे कई समाज विज्ञानी हिन्दू आरक्षण व्यवस्था कहते हैं .

हिन्दू आरक्षण ने चिरस्थाई तौर पर भारत को दो वर्गों में बांट कर रख दिया: एक विशेषाधिकार युक्त सुविधाभोगी वर्ग और दूसरा शक्तिहीन बहुजन समाज! इस हिन्दू आरक्षण में शक्ति के सारे स्रोत सिर्फ और सिर्फ विशेषाधिकारयुक्त तबकों के लिए आरक्षित रहे.इस कारण जहाँ विशेषाधिकारयुक्त वर्ग चिरकाल के लिए सशक्त तो दलित,आदिवासी और पिछड़े अशक्त व गुलाम बनने के लिए अभिशप्त हुए.लेकिन दुनिया के दूसरे अशक्तों और गुलामों की तुलना में भारत के बहुजनों की स्थिति सबसे बदतर इसलिए हुई क्योंकि उन्हें आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों के साथ ही शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियों तक से भी बहिष्कृत रहना पड़ा.इतिहास गवाह है मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास में किसी भी समुदाय के लिए शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियां धर्मादेशों द्वारा पूरी तरह निषिद्ध नहीं की गयीं,जैसा हिन्दू आरक्षण-व्यवस्था के तहत बहुजनों के लिए किया गया.यही नहीं इसमें उन्हें अच्छा नाम तक भी रखने का अधिकार नहीं रहा.इनमें सबसे बदतर स्थिति दलितों की रही.वे गुलामों के गुलाम रहे.इन्ही गुलामों को गुलामी से निजात दिलाने की चुनौती इतिहास ने डॉ.आंबेडकर के के कन्धों पर सौंपी ,जिसका उन्होंने नायकोचित अंदाज में निर्वहन किया.

अगर जहर की काट जहर से हो सकती है तो हिन्दू आरक्षण की काट आंबेडकरी आरक्षण से हो सकती थी,जो हुई भी.इसी आंबेडकरी आरक्षण से सही मायने में सामाजिक अन्याय के खात्मे की प्रक्रिया शुरू हुई. हिन्दू आरक्षण के चलते जिन सब पेशों को अपनाना अस्पृश्य-आदिवासियों के लिए दुसाहसपूर्ण सपना था,अब वे खूब दुर्लभ नहीं रहे.इससे धीरे-धीरे वे सांसद -विधायक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर इत्यादि बनकर राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ने लगे .दलित –आदिवासियों पर आंबेडकरवाद के चमत्कारिक परिणामों ने जन्म के आधार पर शोषण का शिकार बनाये गए अमेरिका, फ़्रांस, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका इत्यादि देशों के वंचितों के लिए मुक्ति के द्वार खोल दिए. संविधान में डॉ.आंबेडकर ने अस्पृश्य-आदिवासियों के लिए आरक्षण सुलभ कराने के साथ धारा 340 का जो प्रावधान किया ,उससे परवर्तीकाल में मंडलवादी आरक्षण की शुरुआत हुई,जिससे पिछड़ी जातियों के भी सामाजिक अन्याय से निजात पाने का मार्ग प्रशस्त हुआ. और उसके बाद ही आंबेडकरवाद नित नई ऊंचाइयां छूते चला गया तथा दूसरे वाद म्लान पड़ते गए. लेकिन 7अगस्त, 1990 को प्रकाशित मंडल की जिस रिपोर्ट के बाद आंबेडकरवाद ने जरुर नित नई ऊंचाइयां छूना शुरू किया , उसी रिपोर्ट से इस पर ग्रहण लगने का सिलसिला भी शुरू हुआ.

मंडलवादी आरक्षण लागू होते ही हिन्दू आरक्षण का सुविधाभोगी तबका एक बार फिर शत्रुतापूर्ण मनोभाव लिए बहुजनों के खिलाफ मुस्तैद हो गया.इसके प्रकाशित होने के बाद 24 जुलाई , 1991 हिन्दू आरक्षणवादियों द्वारा बहुजनों को नए सिरे से गुलाम बनाने के लिए निजीकरण,उदारीकरण,विनिवेशीकरण इत्यादि का उपक्रम चलाने साथ जो तरह-तरह की साजिशें की गयीं, उसके फलस्वरूप आज जहां आंबेडकरवाद पर ग्रहण लग गया है वहीं भारत का बहुजन प्रायः विशुद्ध गुलाम में तब्दील हो चुका है. 24जुलाई, 1991 के बाद शासकों की सारी आर्थिक नीतियाँ सिर्फ आंबेडकरवाद की धार कम करने अर्थात आरक्षण के खात्मे और धनार्जन के सारे स्रोतों हिन्दू आरक्षण के सुविधाभोगी वर्ग के हाथों में शिफ्ट करने पर केन्द्रित रहीं . इस दिशा में जितना काम नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी ने और मनमोहन सिंह ने 20 सालों में किया, नरेंद्र मोदी ने उतना प्रायः चार सालों में कर डाला है.राव-वाजपेयी –सिंह और खासकर मोदी की नीतियों से धन-सपदा पर टॉप की 10% आबादी का 90% ज्यादा कब्ज़ा हो गया है .

देश की 90%वंचित आबादी जहां मात्र 10% धन पर वहीं आंबेडकर के लोग 1% धन-संपदा पर जीवन वसर करने के लिए विवश हैं. बहुजनों के लिए जो सरकारी नौकरियां धनार्जन का एकमात्र स्रोत थीं, वह स्रोत लगभग पूरी तरह रुद्ध कर दिया गया है. लेकिन जो लोग बहुजनों के धनार्जन के एकमात्र स्रोत को शेष कर देने के लिए खासतौर से जिम्मेवार हैं, उन्होंने बाबा साहेब की 127 वीं जयंती पर घोषणा किया है कि जबतक दुनिया है आरक्षण रहेगा.इससे जो लोग आरक्षण और संविधान बचाने की लड़ाई की लम्बी-चौड़ी घोषणा कर रहे हैं, वे चाहें तो चैन की नीद सो सकते हैं. क्योंकि सरकार की घोषणा के मुताबिक संविधान और आरक्षण अक्षत रहेगा. पर सच्चे आंबेडकरवादी ध्यान रहें की आरक्षण जरुर रहेगा, लेकिन उसका वजूद सिर्फ कागजो पर रहेगा.

उसका भौतिक लाभ हिन्दू आरक्षण के वंचितों को नहीं मिलेगा: शक्ति के प्रायः शतप्रतिशत स्रोत उन हिन्दू आरक्षणवादियों के कब्जे में चले जायेंगे, जिनसे विमुक्त कराने के लिए डॉ. आंबेडकर ने अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया. यदि हिन्दू आरक्षणवादियों की साजिश कामयाब हो जाती है , आंबेडकरवाद म्लान अर्थात बेअसर हो जायेगा. फिर धीरे-धीरे बाबा साहेब को सम्मान देने की होड़ ख़त्म हो जाएगी. मतलब आंबेडकरवाद के फीका पड़ने के साथ लोग बाबा साहेब आंबेडकर को भी भूलते चले जायेंगे. अगर आप चाहते हैं आंबेडकरवाद नित नई उंचाई छुए ; डॉ. आंबेडकर को सम्मान देने की प्रतियोगिता में उनके विरोधी लगातार व्यस्त रहें तो आपको अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के वंचितों से प्रेरणा लेते हुए मिलिट्री और न्यायपालिका सहित सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी प्रकार की नौकरियों, सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों,पार्किंग,परिवहन, फिल्म, मीडिया इत्यादि शक्ति के समस्त स्रोतों में सभी प्रमुख सामाजिक समूहों की महिलाओं और पुरुषों के संख्यानुपात में बंटवारे की लड़ाई में सर्वशक्ति लगानी होगी. आंबेडकरवाद को ग्रहण –मुक्त करने का यही एकमेव विकल्प है.

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