गटर में डूबती जिंदगी…

दिल्ली की एक बस्ती में तीस-बत्तीस वर्षीय युवा स्त्री रो रही थी. आस-पास बैठी महिलाएं उसे ढांढस बंधाने की नाकाम कोशिश कर रही थीं. जब हमारी फैक्ट फाइंडिंग टीम वहां पहुंची तो हमने देखा कि वहां 8 और 6 साल के दो बच्चे सहमे से यह सब देख रहे थे. उनके पिता की सीवर की सफाई के दौरान मृत्यु हो गई थी. दिल्ली की झुग्गी-बस्ती में रहने वाले इस परिवार में इन बच्चों का पिता ही एकमात्र कमाने वाला था. बच्चों की बूढ़ी दादी भी उनके साथ रहती थीं. दादा जी गुजर चुके थे. इन मासूम बच्चों के सिर से उनके पिता का साया उठ गया. पिता के जाने के बाद पूरा परिवार बेसहारा हो गया है.

सीवर सिस्टम को शहर की लाइफ-लाईन कह सकते हैं. वहीं जहां सीवर सिस्टम नहीं है वहां सेप्टिक टैंक लोगों ने अपनी दैनिक निवृत्ति के लिए बना रखे हैं. जाहिर है समय समय पर इनकी सफाई की भी आवश्यकता होती है. और इन्हीं सीवर/सेप्टिक टैंकों की सफाई के दौरान साफ करने वाले जहरीली गैसे से मर जाते हैं.

सीवर सिस्टम को शहर की लाइफ-लाईन कह सकते हैं. वहीं जहां सीवर सिस्टम नहीं है वहां सेप्टिक टैंक लोगों ने अपनी दैनिक निवृत्ति के लिए बना रखे हैं. जाहिर है समय समय पर इनकी सफाई की भी आवश्यकता होती है. इन सीवर और सेप्टिक टैंकों से जहरीली गैसें भी निकलती है. कई बार सीवर और सेप्टिक टैंकों की सफाई के दौरान साफ करने वाले जहरीली गैसों से मर जाते हैं.

सफाई कर्मचारी आन्दोलन इन दिनों सीवर में होने वाली मौतों पर संज्ञान ले रहा है. और सरकार से इस गंभीर विषय पर संसद में चर्चा करने की बात उठा रहा है. इसके अलावा सरकार से इस प्रकार की व्यवस्था यानी तकनीक को लाने की बात कर रहा है जिससे किसी भी इंसान की जान सीवर की सफाई करते हुए न जाए. इस के लिए सभी सासंदों को ज्ञापन दिया जा रहा है कि वे इस विषय को संसद में उठाएं.

सफाई कर्मचारी के एक सर्वे के दौरान पिछले 100 दिनों में सीवर में 35 व्यक्तियों की मौत हो चुकी है. भले ही सरकार ने मैला सफाई के रोजगार का निषेध और सफाई करने वालों के पुनर्वास का अधिनियम 2013 बनाया है. माननीय सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने 27 मार्च 2014 के आदेश में यह स्पष्ट उल्लेख किया है कि किसी भी हालत में किसी भी व्यक्ति को मानव मल की सफाई के कार्य में न उतारा जाए. किसी को भी सीवर या सेप्टिक टैंक में न उतारा जाए.

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि यदि आपातकालीन स्थिति में किसी भी व्यक्ति को सीवर/सेप्टिक टैंक में उतारा भी जाता है तो उसके पास सभी सुरक्षा उपकरण हों. विशेष सुरक्षा सूट हो. ऑक्सीजन सिलेंडर हो. हैंडग्लोब हों. बूट हों. ताकि उसकी जान को किसी भी प्रकार का खतरा न हो. परन्तु दुखद है कि इसमें व्यवस्था तंत्र या कहें सरकारी मशीनरी पूरी तरह नाकाम है.

सीवर/सेप्टिक टैंक की सफाई करने वाले व्यक्ति 90 प्रतिशत से अधिक दलित समुदाय से होते हैं. सरकार की जातिवादी मानसिकता का ही परिणाम है कि सरकार इस बारे में गंभीर नहीं है. सरकार में बैठे नौकरशाहों को लगता है कि ये तो इस जाति के लोगों का ही काम है. सफाई का काम इस व्यवस्था ने सदियों से जाति विशेष के कुछ समुदायों पर थोप दिया है. दुख की बात यह है कि आज के समय में जिसे तकनीक का समय कहा जाता है. भारत मंगलयान तक भेज चुका है. ऐसे समय में भी सीवर/सेप्टिक टैंक साफ करने के लिए समुचित तकनीक का विकास नहीं किया गया है या सरकार तकनीक का इस्तेमाल नहीं कर रही है. आज जब हर दूसरे-तीसरे दिन सीवर/सेप्टिक टैंक की सफाई करते लोगों के मरने की खबरें आ रही हैं- ऐसे में सरकार की नियत पर शंका होना लाजिमी है.

यहां ध्यान देने की बात यह भी है कि सीवर/सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान मरने वालों की उम्र 20 से 40 वर्ष के लोगों की होती है. इनकी जान तो जाती ही है इसके साथ ही इनका पूरा परिवार भी अनाथ हो जाता है. आमदनी का स्रोत खत्म हो जाता है. मासूम बच्चों की पढ़ाई के साथ-साथ दो वक्त के खाने की भी परेशानी हो जाती है. बूढ़े माता-पिता का सहारा छिन जाता है. कह सकते हैं कि पूरा परिवार बेसहारा हो जाता है. इन पर क्या बीतती है यह तो भुक्तभोगी ही जानता है.

सुप्रीम कोर्ट ने सीवर/सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान मरने वालों के निर्भरों के लिए दस लाख मुआवजे का प्रावधान भी किया है. वह भी इन्हें नहीं मिल पाता. क्योंकि परिवार वालों को इसकी जानकारी नहीं होती. तंत्र इतना संवेदनशील नहीं है कि स्वयं मुआवजा प्रदान करें. इस प्रकार सीवर में सिर्फ एक व्यक्ति की ही मौत नहीं होती बल्कि उसका पूरा परिवार जीते जी मर जाता है.

यहां सवाल सभ्य कहे जाने वाले इस समाज पर भी उठता है कि वह जानबूझ कर भी चुप क्यों रहता है? धूमिल की कविता में जब वह कहते हैं कि ‘…यह तीसरा आदमी कौन है? मेरे देश की संसद मौन है?’ यहां तो संसद ही नहीं सभ्य समाज भी मौन है. देश का जब भी कोई जवान सरहद पर मरता है तो देश और समाज उसे शहीद का दर्जा देता है. सम्मान व्यक्त करता है. उसके परिवार को सुविधाएं देता है. क्योंकि वह सरहद पर हमारे देश की रक्षा करता है. पर हमारे ही मलमूत्र, औद्योगिक विषैले प्रदूषण से जाम हुए सीवर को साफ कर बीमारियों से हमारी रक्षा करने वाला जब सीवर की सफाई के दौरान मर जाता है तो उसे शहीद नहीं कहा जाता. क्या वह इस देश का नागरिक नहीं होता? क्या उसे सम्मान के साथ जीने का हक नहीं होता? हम उसे सीवर रूपी मौत के कुएं में उतरते हुए देख रहे हैं. हम उसे मरते हुए देख रहे हैं. हम उसके जीवन की सुरक्षा के लिए कुछ नहीं कर रहे है. कहां गईं हमारी संवेदनाएं? कहां गई हमारी सभ्यता?

यह लेख राज वाल्मीकि ने लिखा है.

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