रमणिका गुप्ता का जाना एक हादसा है

लंबे समय से बीमार रही रमणिका गुप्ता का निधन हो गया. उनकी बीमारी की हालत में मैं उनसे कई बार मिलने गया और यह महसूस होता था कि वह और जीना चाह रही हैं. थोड़ा बहुत भी ठीक होती तो भि‍ड़ जाती अपने कामों में, समय पर मैगजीन युद्ध रत आम आदमी आना है. कौन सा काम कैसा  हो रहा है? एक तरह से उन्हें अपने जाने का भी एहसास हो चुका था. क्योंकि उमर उनकी काफी हो रही थी. वह अपने तमाम राइटिंग्स और स्पीच को इकट्ठा कर रही थी. इसके प्रकाशित करने की तैयारी में थी. शायद वह अब तक प्रकाशित भी हो गई होगी.

बहुत सारे काम वे जल्‍दबाजी में करना चाह रही थी. हर जगह वह आप अपनी उपस्थिति देना चाहती थी. बता दूं कि रमणिका गुप्ता ने अपने कैरियर की शुरुआत हजारीबाग बिहार. अब झारखंड में है, से शुरू की थी. परिवार से विद्रोह करते हुए उन्होंने कोयला मजदूरों के लिए आंदोलन जारी रखा और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी से वह विधायक चुनी गई. उनके जज्बे और साहस की हमेशा तारीफ में होती थी. इसके साथ साथ उन्होंने अपना साहित्यिक काम भी जारी रखा. वह हजारीबाग से ही युद्ध रात आम आदमी पत्रिका निकालती थी. शुरू में यह त्रैमासिक थी.

उन्हें अपने नाम का बेहद मोह था जैसा कि सभी को होता है. लेकिन वह उसे प्रजेंट करने में कभी भी संकोच नहीं करती थी. उन्होंने अपने जीते जी रमणिका फाउंडेशन बनाया और खुद उसकी संस्थापक सदस्य बनी. रमणिका फाउंडेशन के मार्फत वे कई विधाओं में पुरस्कार भी दिया करती थी. पत्रिका का प्रकाशन भी रमणिका फाउंडेशन के माध्यम से ही होता था.

उन्होंने आदिवासी मुद्दों पर जमकर लिखा और इस पर लिखने वालों को आगे भी बढ़ाए. इसी प्रकार वे दलित मुद्दों पर भी काफी लिखा करती थी और दलित लेखकों को प्रमोट करने का श्रेय उन्हें जाता है. उनकी कविताएं और कहानियां चर्चित रही हैं खासकर उन की एक कहानी बहू जुठाई बेहद चर्चित रही है. यदि मौका मिले तो आप इस कहानी को जरूर पढ़ें.

वे स्त्री मुद्दों को उठाने वाली देश की अग्रणी महिलाओं में शुमार की जाती थी. उनकी तमाम रचनाओं में महिला वादी सोच स्पष्ट दिखाई पड़ती थी. उनकी आत्मकथा हादसे बेहद चर्चित रही. उन्होंने अपने अंतरंग संबंधों और तमाम अनुभवों को इस आत्मकथा में साझा किया था. जिसके कारण वह विवादों में भी घिरी थी.

मेरा जब भी दिल्ली जाना होता मैं रमणिका जी के पास जरूर आता और प्रभावित था कि वे एक बुजुर्ग महिला होने के बावजूद बेहद सक्रिय थी. रात को केवल 4 या 5 घंटे सोती, बाकी समय लिखने पढ़ने में जाता. उनकी पत्रिका का विशेषांक मल मूत्र ढोता भारत के लिए मैं कई बार दिल्ली गया और इस काम में मैंने मदद की. इसके बाद मैंने पिछड़ा वर्ग विशेषांक संपादन का जिम्मा लिया और क़रीब 4 साल की मेहनत के बाद यह अंक मार्केट में आया. इस बीच मुझे कई बार रायपुर से दिल्ली का दौरा करना पड़ा. तमाम लोगों से इंटरव्यू एवं आलेख मंगाए गए. रचनाओं की छटनी और प्रूफ चेकिंग. एक बहुत बड़ा काम था. यह अंक दो भागों में प्रकाशित हुआ.

 एक बार की घटना मुझे याद आ रही है रमणिका जी को जब पता चलता कि कोई दिल्‍ली के बाहर से लेखक या लेखिका आई हैं. तो उन्हें फोन कर बुला लेती और गपशप मारते हैं. कुछ लिखना पढ़ना होता. इसी दरमियान कंवल भारती जी को उन्होंने फोन पर बुलवाया और उन्होंने कहा कि भारती जी अब आप आ जाइए शाम का खाना खाएंगे कुछ रम शम पिएंगे. कंवल भारती जी ऑटो में तुरंत डिफेंस कॉलोनी स्थित रमणिका जी के निवास पर आ गए. एक-दो दिन पहले से मैं भी वहां पर था. जैसे ही कंवल भारती आए तो उन्होंने स्वागत सत्कार किया और बातचीत करने लगे. कंवल भारती जी ने कहा कि आपने मंगवा लिए (इशारा रम की तरफ था) तो रमणिका जी तुरंत कहने लगी कि नहीं हम तो आजकल लेना बंद कर दिए हैं और यहां पर पिलाना भी बंद हैं. तो कंवल भारती जी तमक गए बोले कि आप ने मुझे बुलाया है, यही बोल कर, इसलिए मैं आया हूं. सहमति के लिए रमणिका जी ने मुझसे हामी भराने की कोशिश की, तो मैंने कहा कि आपने तो कहा था कि आइए कुछ रम सम पिएंगे. रमणिका जी ने कहा कि ऐसा तो मैंने नहीं कहा था. उसके तुरंत बाद कंवल भारती जी नाराज हो कर चले गए. वह कई बार अपने कहे बातों को बदल दिया करती थी और कभी भी अचानक बहुत पैसे वाली हो जाती. तो कभी वे बिल्कुल गरीबों से व्यवहार करती. वह अक्सर कहां करती थी कि मेरे बेटे की कंपनी( जो अमेरिका में है) का टर्नओवर बिहार सरकार के टर्नओवर से ज्यादा है. उनका यह फाउंडेशन उन्हीं की मदद से चल रहा है. उनके यहां जो कर्मचारी काम करते थे उनमें से एक दिनेश को छोड़कर कोई भी कर्मचारी साल 6 महीना से ज्यादा नहीं टिक पाता था. वे रगड़ कर काम लेती थी और किसी भी कर्मचारी को फांके मानने का मौका नहीं देती थी. इसलिए संपादक से लेकर टायपिस्ट टिक नही पाते.

कोई कर्मचारी यदि उनके टेलीफोन से अपने रिश्तेदारों से फोन भी करता तो वह उनकी सैलरी से फोन के बिल के पैसे काट लिया करती. प्रोफेशनल तो इतनी थी कि आप अंदाजा नहीं लगा सकते. यदि आप जानेंगे कि वे एक दलित आदिवासी और महिला वादी महिला थी. लेकिन इमोशनल तो बिल्कुल भी नहीं थी. कई बार उनके महिला वादी होने पर भी संदेह होता.

ऐसा ही एक वाक्‍या मुझे याद आ रहा है.  एक नेपाली जोड़ा उनके यहां निवास करता था. उसकी पत्नी घर पर झाड़ू पोछा खाना वगैरह बनाने का काम करती थी और पति कहीं किसी कंपनी में चौकीदार था. इसी दरमियान बता दूं मैं की झारखंड हजारीबाग निवासी रमणिका जी के पुराने मित्र का बेटा आईएएस परीक्षा की तैयारी करने के लिए रमणिका का फाउंडेशन में साल भर से ठहरा हुआ था. नाम तो मुझे याद नहीं आ रहा है. लेकिन वह भूमिहार परिवार का था ऐसी जानकारी रमणिका जी ने दी थी. वह लड़का पढ़ाई कम और हीरोगिरी ज्यादा करता था. अक्सर रमणिका फाउंडेशन में आने वाली महिलाओं के पीछे पीछे घूमता रहता और नेपाल से आए उस नेपाली चौकीदार की पत्नी के भी पीछे-पीछे वह घूमा करता था. बाद में पता चला कि इस लड़के ने उस नेपाली महिला के साथ धमकी देकर जबरदस्ती संबंध बनाया और वह महिला प्रेग्नेंट हो गई.  यह जानकारी  उस नेपाली महिला के पति को नहीं हो पाई. क्योंकि वह आधी रात चौकीदारी की ड्यूटी से फाउंडेशन में आकर रुकता था यहां के एक छोटे से कमरे में नेपाली जोड़े को निवास हेतु जगह दिया गया था.  रमणिका फाउंडेशन में हंगामा मच गया. जैसा की होना चाहिए था. इस मामले में रमणिका जी के द्वारा पुलिस में रिपोर्ट लिखा जाना चाहिए था. लेकिन हुआ इसके उलट, वह महिला लगातार रोती रही और पुलिस में जाने की कोशिश करती रही. लेकिन रमणिका जी ने उन्हें डांट कर रोका और उस मामले मैं लीपापोती कर के उसे रफा-दफा कर दिया गया. एक प्रकार से रमणिका जी ने उस भूमिहार बलात्कारी लड़के को बचाने की पूरी कोशिश की जिसमें वह पूरी तरह सफल हो गई. उनके इस व्यवहार से उनके महिला वादी होने पर संदेह होता रहा है मुझे. मैं नहीं समझ पाया कि वह अपने लिखने, कहने और विचारधारा के उलट कैसे व्‍यवहार कर सकती हैं.

जैसा कि मैंने पहले बताया है कि वह फ्रंट में रहने के लिए कुछ भी किया करती. एक बार उन्होंने मुझे फोन किया संजीव जी आमिर खान से संपर्क करो. उन्होंने जो सत्य में जयते पर सफाई कामगारों के लिए एपिसोड बनाया है. उसमें मुझे भी ले ले मैंने भी तो मल मूत्र ढोता भारत पत्रिका विशेषांक निकाला था. इस तरह वे अपने असिस्टेंट उसे फोन करवाती. जिस पर में उन्हें कोई संकोच नहीं था. वह किसी भी संपादक को यदि लेख भेजती, तो उन्हें फोन जरूर करवाती है. जैसे उन्होंने यदि 10 संपादकों को लेख भेजा है. तो अपने असिस्टेंट से उन्हें फोन करने के लिए कहती है और वे स्वयं बात करती. वे जिस प्रकार लाल सलाम बोलने में संकोच नहीं करती थी ठीक उसी प्रकार वह जय भीम बोलने में भी संकोच नहीं करती थी. डॉक्टर अंबेडकर के द्वारा किए गए प्रयासों को वह खुले दिल से स्वीकार करती थी और उन्हें मंचों पर साझा भी करती. सक्रियता उनकी सबसे बड़ी खूबी रही है वह बेहद प्रोफेशनल और सक्रिय महिला थी. मौत के कुछ दिनों पहले भी वह मंचों पर देखी गई और जज्बे के साथ अपने बातों को भी रखती थी. उनका जाना निश्चित रूप से साहित्य और विचारधारा की दुनिया में एक बड़ी खाई है जिसकी क्षतिपूर्ति आसान नहीं है.

  • संजीव खुदशाह
  • (यह लेखक के अपने विचार हैं.)

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