नई दिल्ली। दलित लेखक संघ ने दो जुलाई (रविवार) को ‘समकालीन दलित साहित्य की वैचारिकी के औजार’ पर विचार-विमर्श का आयोजन किया गया. जिसमें अनेक दलित विचारकों ने हिस्सा लिया. इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे माननीय कर्मशील भारती ने इस अवसर पर कहा कि हमें अपने मुहावरे, शब्द और विचार खुद ही गढ़ने होंगे जिससे समतामूलक समाज की परिकल्पना की जा सके. उन्होंने आगे कहा कि हमें सामाजिक बदलाव के लिए साहित्य लिखना होगा न कि बदला लेने हेतु.
मुख्य वक्ताओं में शामिल जगदीश प्रसाद जेंद ने कहा कि हमें पहले अपनी समकालीनता को पहचानना होगा कि एक दलित साहित्यकार की क्या जिम्मेदारी हो. क्योंकि यह हमारा भोगा हुआ समय और व्यथा है. प्रलोभनों से आंदोलन को होने वाले नुक्सान से बचाना होगा. इसके लिए जन-सामान्यों को इसकी वैचारिकी से अवगत करना अतिआवश्यक है.
कार्यक्रम का संचालन कर रहे हीरालाल राजस्थानी ने शुरुआती भूमिका बनाते हुए कहा कि हमें अपने नायकों के वैचारिक टूल्स से वर्तमान परिस्थितियों का समाधान निकालते हुए आगे बढ़ना होगा. उनके विचारों को दोहराने भर तक सीमित ना रहकर उन्हें जीवन में उतरना जरुरी. शीलबोधि ने कहा कि दलित साहित्य के नाम पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है. जबकि दलित साहित्य कि वैचारिकी क्या है, किस तरह स्थापित हो और कैसे विचार को कार्यविन्त करना है. इस पर विचार, चिंतन और मंथन कर दर्शन में बदलने की आवश्यकता है तथा अपने कार्मिक विकास को समझना और जानना होगा.
डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी ने अपने वक्तव्य में कहा कि अनेकों उत्पीड़न की घटनाओं को सिरे से समझना होगा जो लगातार बढ़ती जा रही हैं. दलित साहित्य में समताजनक भाषा के प्रयोग की जरुरत जान पड़ती है तथा गैर सामाजिक लोगों के प्रलोभनों से बचना होगा. डॉ. मुकेश मिरोठा ने कहा कि दलित विमर्श पर अब भी हम एक मत नहीं हैं. अतिवादियों ने डॉ. अम्बेडकर और गौतम बुद्ध को पूजापाठ तक सीमित करने की कोशिश की है. जबकि उनके मूल विचारों को समझना व मानना बहुत जरूरी है, वरना इससे आंदोलन वैचारिक रूप से कमजोर पड़ जायेगा.
रजनी तिलक ने दलित लेखन में समग्रता बनाये रखने की बात को प्रमुखता से रखा तथा साथ ही यह भी अपील कि के लेखक और कार्यकर्ताओं को एक साथ मिलकर अमानवीयता के खिलाफ आंदोलन करने होंगे. सूरजपाल चौहान ने कहा हमें अपनी विचारधारा को मूलरूप में पहचान दिलानी होगी क्योंकि यह हमारे अस्तित्व की लड़ाई है. हमें दिग्भ्रमिता से बचते हुए जातियों के खोल से बहार आना होगा. संजीव कौशल ने संक्षेप में अपनी बात रखते हुए कहा कि किसी भी साहित्य के टूल्स जन संवाद से ही आते हैं. जब तक लेखनी में पैनापन नहीं आएगा तब तक सामाजिक बदलाव की अपेक्षा ख्याल भर ही है.
पूनम तुषामड़ ने अपने आलेखपाठ में कहा कि पिछले दो दशक में दलित साहित्य जितना समृद्ध हुआ है. यह दलित साहित्य का स्वर्ण काल कहा जा सकता है. डॉ. कुसुम वियोगी ने अपने वक्तव्य में कहा हमें अलग- अलग जातियों में बंटने से बचना होगा. चाहे सामाजिक हो, राजनैतिक हो या फिर साहित्य की ही बात क्यो ना हो! इन सब में डॉ. अम्बेडकर की वैचारिकी ही कारगर साबित होती है. डॉ. अम्बेडकर के मूल चिंतन से भटकी बिखरी छितरी जातियो को एक छतरी के नीचे आकर आज जुड़ना बहुत जरुरी है. दलित लेखको को वैश्वीकरण के दौर मे अपनी दृष्टि को सम्रगता से विस्तार देना होगा. तभी दलित लेखन की सार्थकता है.
इसके आलावा राजेंद्र कुमार, वेद प्रकाश, ड़ा .धर्मपाल पीहल, नरेंद्र भारती व रामसिंह दिनकर ने भी अपने-अपने विचार रखे. उपस्थिति बतौर महिला अधिकार अभियान की सम्पादिका कुलीना, श्री सुधीर, जसवंत सिंह जन्मेजय, एम. एल. मौर्य, सुनीता, कान्ता बौद्ध, अनुराधा कनोजिया, हरपाल सिंह भारती, दिनेश, सलमान, चंद्रकांता सिवाल, पूनम तुषामड़, पुष्पा विवेक, अंजलि भी मौजूद रहे. तथा शोधार्थियो ने भी भाग लिया अंत मे धन्यवाद ज्ञापन बलविंद्र सिंह बलि ने किया.
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