इतिहास के आइने में दलित-आदिवासी महिलाएं

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मेरे दिमाग में कई बार आया कि आदिवासी औरतों के चित्र ही निर्वस्त्र ही क्यों देखने को मिलते हैं…कुछ इलाकों में आज भी आदिवासी औरतें लगभग निर्वस्त्र सी रहती हैं. क्यों?  यह भी सोचा कि शायद धनाभाव इसका कारण रहा हो… कभी यह भी कि कहीं इस प्रकार नंगे बदन रहना उनकी सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा ही न हो… उनकी आदत का हिस्सा भी तो हो सकता है…. किंतु कभी सवर्णों ने इस साजिश के बारे में नहीं सोचा कि आदिवासी महिलाओं को ही नहीं, अपितु अपने परिवार की महिलाओं को भी ऐसा करने के लिए मजबूर किया जाता था.

फेसबुक पर आई एक पोस्ट से जाना कि अठारहवीं सदी तक दक्षिणी भारत की किसी विशेष जाति की महिलाओं को वक्ष ढकने का अधिकार नहीं था. यह अधिकार सवर्णों ने छीन रखा था. समय के गुजरने के साथ-साथ यह कुप्रथा संस्कृति का हिस्सा बन गई. ऐसा नहीं था कि तब का समाज इस प्रथा के खिलाफ नहीं था किंतु सामाजिक हालातों के चलते आवाज नहीं उठा पाता था. आर अनुराधा जी ने भी ‘जनसत्ता’ 25 अगस्त, 2012 के अंक में छ्पी खबर को माध्यम बनाकर हाल ही में ‘जनसत्ता’ में ही माध्यम से इस बात को बड़ी ही हैरत के साथ प्रस्तुत किया है कि केरल जैसे प्रगतिशील माने जाने वाले राज्य में महिलाओं को अंगवस्त्र या ब्लाउज पहनने का हक पाने के लिए पचास साल से ज्यादा संघर्ष करना पड़ा.

इतिहास बताता है कि सर्वप्रथम केरल के त्रावणकोर इलाके में तन ढकने का अधिकार पाने के लिए विद्रोह के बाद 26, जुलाई 1859 को वहां के महाराजा ने अवर्ण औरतों को शरीर के ऊपरी भाग पर कपड़े पहनने की इजाजत दी थी. यह अजीब लग सकता है… पर केरल जैसे प्रगतिशील माने जाने वाले राज्य में भी महिलाओं को अंगवस्त्र या ब्लाउज पहनने का हक पाने के लिए 50 साल से ज्यादा का संघर्ष करना पड़ा. इसलिए वहां की महिलाओं के लिए 26 जुलाई का दिन बहुत ही महत्वपूर्ण है. इसी दिन 1859 में इस कुरूप परंपरा की चर्चा में खासतौर पर निचली जाति ‘नादर’ की स्त्रियों का जिक्र होता है क्योंकि अपने वस्त्र पहनने के हक के लिए उन्होंने ही सबसे पहले विरोध जताया था. ‘नादर’ की ही एक उपजाति ‘नादन’ पर ये बंदिशें उतनी नहीं थीं जितनी ‘नादर’ जाति की औरतों पर थीं. उस समय न सिर्फ अवर्ण बल्कि नंबूदिरी ब्राह्मण और क्षत्रिय ‘नायर’ जैसी जातियों की औरतों पर भी शरीर का ऊपरी हिस्सा ढकने से रोकने के कई नियम थे. नंबूदिरी औरतों को घर के भीतर ऊपरी शरीर को खुला रखना पड़ता था. वे घर से बाहर निकलते समय ही अपना सीना ढक सकती थीं. लेकिन मंदिर में उन्हें ऊपरी वस्त्र खोलकर ही जाना होता था. नादर औरतों को ब्राह्मण पुरुषों के सामने अपना वक्ष खुला रखना होता था. सबसे बुरी स्थिति दलित औरतों की थी जिन्हें सब जगह अंगवस्त्र पहनने की मनाही थी. पहनने पर उन्हें सजा भी दी जाती थी. यहां ध्यान देने की बात है कि एक महारानी जो स्वयं एक औरत थी… कितनी अय्याश रही होगी? एक घटना बताई जाती है कि जब एक निम्न जाति की महिला अपना सीना ढक कर महल में आई तो रानी ‘अत्तिंगल’ ने उसके स्तन कटवा देने का आदेश दे डाला था.

…यह जानकर आपको कैसा लगता है? पुरुष ही औरत का शोषक नहीं, बल्कि महिलाओं के शोषण करवाने में महिलाओं की भी हमेशा से खासी भूमिका रही है. शायद औरतों का ये साज-श्रंगार उसी मानसिकता का प्रमाण है… उनकी इस भूमिका के चलते ही पुरुष पहलवान हो गए. इस माने में महिलाओं के शोषण के मामले में महिलाएं भी उतनी ही दोषी हैं जितने कि पुरुष… औरतें आज तक ये ही नहीं जान पाईं कि उनको जितनी पुरुष की जरूरत है, उससे ज्यादा पुरुष को औरतों की जरूरत है. यही मानसिकता व्यभिचार को जन्म देती है.

इस अपमानजनक रिवाज के खिलाफ 19 वीं सदी के शुरू में आवाजें उठनी शुरू हुईं. 18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी के शुरू में केरल से कई मजदूर, खासकर ‘नादर’ जाति के लोग, चाय बागानों में काम करने के लिए श्रीलंका चले गए. बेहतर आर्थिक स्थिति, धर्म बदल कर ईसाई बन जाने और यूरोपीय असर की वजह से इनमें जागरूकता ज्यादा थी और ये औरतें अपने शरीर को पूरा ढकने लगी थीं. धर्म-परिवर्तन करके ईसाई बन जाने वाली नादर महिलाओं ने भी इस प्रगतिशील कदम को अपनाया. इस तरह महिलाएं अक्सर इस सामाजिक प्रतिबंध को अनदेखा कर सम्मानजनक जीवन पाने की कोशिश करती रहीं.

यह कुलीन मर्दों को बर्दाश्त नहीं हुआ. ऐसी महिलाओं पर हिंसक हमले किए जाने लगे. जो भी इस नियम की अवहेलना करती, उसे बीच बाजार अपने ऊपरी वस्त्र उतारने को मजबूर किया जाता था. अवर्ण औरतों को छूना न पड़े इसके लिए सवर्ण पुरुष लंबे डंडे के सिरे पर छुरी बांध लेते और किसी महिला को ब्लाउज या कंचुकी पहना देखते तो उसे दूर से ही छुरी से फाड़ देते. यहां तक कि वे औरतों को इस हाल में रस्सी से बांध कर सरेआम पेड़ पर लटका देते ताकि दूसरी औरतें ब्लाउज या कंचुकी पहनने से डरने लगें. यह वह समय था कि जब अंग्रेजों के राजकाज का भी असर बढ़ रहा था. 1814 में त्रावणकोर के दीवान कर्नल मुनरो ने आदेश निकलवाया कि ईसाई ‘नादन’ और ‘नादर’ महिलाएं ब्लाउज पहन सकती हैं. लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ. उच्च वर्ण के पुरुष इस आदेश के बावजूद लगातार महिलाओं को अपनी ताकत और असर के सहारे इस शर्मनाक अवस्था की ओर धकेलते रहे.

आठ साल बाद फिर ऐसा ही आदेश निकाला गया. एक तरफ शर्मनाक स्थिति से उबरने की चेतना का जागना और दूसरी तरफ समर्थन में अंग्रेजी सरकार का आदेश. फलत: ज्यादातर महिलाओं ने कपड़े पहनने शुरू कर दिए. इधर उच्च वर्ण के पुरुषों का प्रतिरोध भी उतना ही तीखा हो गया. बताया जाता है कि ‘नादर-ईसाई’ महिलाओं का एक दल निचली अदालत में ऐसे ही एक मामले में गवाही देने पहुंचा. उन्हें दीवान मुनरो की आंखों के सामने अदालत के दरवाजे पर अपने अंग वस्त्र उतार कर रख देने पड़े. तभी वे भीतर जा पाईं. ऐसा होने पर कपड़े पहने जाने के लिए शुरू हुए संघर्ष ने हिंसक रूप ले लिया था.

सवर्णों के साथ-साथ, वहां का राजा तक भी औरतों द्वारा कपड़े न पहने जाने की परंपरा निभाने के पक्ष में था. आदेश था कि महल से मंदिर तक राजा की सवारी निकले तो रास्ते पर दोनों ओर नीची-जातियों की अर्धनग्न कुंवारी महिलाएं फूल बरसाती हुई खड़ी रहनी चाहिएं. उस रास्ते के घरों के छज्जों पर भी राजा के स्वागत में अर्धनग्न औरतों को ख़ड़ा रखा जाता था. राजा और उसके काफिले के सभी पुरुष इन दृष्यों का भरपूर आनंद लेते थे. राजा भी और गुलाम भी.

आखिर 1829 में इस मामले में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया. कुलीन पुरुषों की लगातार नाराजगी के कारण राजा ने आदेश पारित कर दिया कि किसी भी अवर्ण जाति की औरत अपने शरीर का ऊपरी हिस्सा ढक नहीं सकती. अब तक ईसाई औरतों को जो थोड़ा समर्थन दीवान के आदेशों से मिल रहा था, वह भी खत्म हो गया. अब हिंदू-ईसाई सभी वंचित महिलाएं एक हो गईं और कुलीन पुरुषों के खिलाफ विरोध की ताकत बढ़ गई. सभी जगह महिलाएं जबरन बिना किसी भय के पूरे कपड़ों में घर से बाहर निकलने लगीं. इस पूरे आंदोलन का सीधा संबंध भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास से भी है. विरोधियों ने ऊंची जातियों के लोगों ने कमजोर जातियों की दुकानों में एकत्र सामान को लूटना शुरू कर दिया. इस तरह राज्य में शांति पूरी तरह भंग हो गई. दूसरी तरफ नारायण गुरु और अन्य सामाजिक, धार्मिक गुरुओं ने भी इस सामाजिक रूढ़ि का विरोध किया.

कहा जाता है कि तब मद्रास के कमिश्नर ने त्रावणकोर के राजा को खबर भिजवाई कि महिलाओं को कपड़े न पहनने देने और राज्य में हिंसा और अशांति को न रोक पाने के कारण उसकी बदनामी हो रही है. अंग्रेजों और नादर आदि अवर्ण जातियों के दबाव में आखिर त्रावणकोर के राजा को घोषणा करनी पड़ी कि सभी महिलाएं शरीर का ऊपरी हिस्सा वस्त्र से ढक सकती हैं. 26 जुलाई 1859 को राजा के एक आदेश के जरिए महिलाओं के ऊपरी वस्त्र न पहनने के असामाजिक कानून को बदल दिया गया. आखिर कई स्तरों पर विरोध के चलते त्रावणकोर की महिलाओं ने तो अपने वक्ष ढकने जैसा बुनियादी हक हासिल कर लिया, किंतु आदिवासी इलाकों में निर्वस्त्र रहने का प्रभाव आज भी देखने को मिलता है. अंडमान निकोबार द्वीप समूह की आदिवासी प्रजातियों में तो आज भी लोग निर्वस्त्र रहते हैं. जहां कहीं कपड़े पहनने का रिवाज आ भी गया है तो उनके कपड़ों की बनावट निर्वस्त्र रहने जैसी ही देखने को मिलती है.

हमारे देश में, विकृत मानसिकता वालों की भी कमी नही है जो इस खुलासे को अपने स्वार्थ के हेतु निराधार अफवाह फैलाने का कारण मानते हैं. वो उल्टे ऐसे खुलासे करने वालों को ही विकृत मानसिकता वाले लोगों मे शामिल करते हैं… खेद की बात तो ये है कि उनमें ज्यादातर तथाकथित सवर्ण वर्ग की महिलाएं हैं जिन्हें खुद भी उसी प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता था/है.  जिसका शिकार निम्न वर्ग की महिलाओं को होना पड़ता था/है… घर के भीतर ही सही. कुछ लोग इसे समाज में विद्वेष फैलाने की कोशिश मान रहे हैं तो कुछ इसे जागरुकता की संज्ञा से नवाज़ रहे हैं… कुछ लोग इस खुलासे को वोटों की राजनीति से जोड़कर देखते हैं… जो सही भी हो सकता है और नहीं भी. कुछ लोग इस खुलासे को सवर्णों के विरोध में की जा रही साजिश के रूप में देख रहे हैं. कुछ का कहना है कि कल कैसा था…. कल क्या हुआ… इसे लेकर हम आज क्यूं चर्चा करें? उनका तर्क है कि अंडमान निकोबार द्वीप समूह की आदिवासी प्रजातियों के लोग तो आज भी निर्वस्त्र रहते हैं. अब कोई यह तो बताए कि उनसे उनके वस्त्र किसने छीने… ऐसा कहने वाले लोग ये भूल रहे हैं कि अंडमान निकोबार द्वीप समूह की आदिवासी प्रजातियों की केवल महिलाएं ही निर्वस्त्र नहीं रहतीं… पुरुष भी निर्वस्त्र रहते हैं. इसे पुरुष–सत्ता का प्रमाण कैसे माना जा सकता है?  दरअसल यह आर्थिक तंगी का परिणाम है… और कुछ नहीं.

यह जानकर, क्या आपको नहीं लगता कि सवर्ण जातियों के लोग ही क्यों तमाम वर्गों के पुरुष आदिकाल से ही दिमागी तौर पर स्त्री-देह के प्रति आसक्त रहे हैं… कम–ज्यादा का अंतर हो सकता है… बस. यदि ऐसा न होता तो निम्न जातियों के पुरुष भी निम्न जातियों की औरतों के हिमायत में खड़े नजर आते…. किंतु ऐसा नहीं हुआ. पुरुष की इस प्रकार की मानसिकता ही आज भी औरतों के प्रति घातक बनी हुई है. पुरुष को यूं ही स्त्री विरोधी नहीं माना जाता… पुरुषों की हरकतें हमेशा से ही कुछ ऐसी रही हैं जिनके चलते समूचे समाज को पुरुषवादी सोच का धनी कहा जाता है.

इतिहास की इस कड़बाहट को महिलाओं की वर्तमान स्थिति के बल पर नकारा नहीं जाना चाहिए. औरतों की आज जो भी सामाजिक अवस्था है ….वह केवल शिक्षा के प्रचार-प्रसार के चलते राजनीति और सरकारी नौकरियों की भागीदारी के कारण है. यह भी सच बात है कि वर्तमान में शिक्षित अथवा अशिक्षित, दोनों प्रकार की महिलाएं अनेक बार पुरुष पर भारी पड़ रही हैं… खासकर नौकरीशुदा पुरुषों के मामले में…. वो तमाम की तमाम सम्पत्ति को केवल और केवल अपनी पत्नि के नाम ही करते हैं… उसका परिणाम ये होता है कि अंत समय में पति “बेचारा”  बनकर अकेला रह जाता है… बच्चे मम्मी के साथ हो जाते हैं… संपत्ति का मोह जो बना रहता है और कुछ नहीं. पिता जैसे उधार की वस्तु बन जाता है. इसे पुरुष की कमजोरी भी माना जा सकता है. किंतु कुल मिलाकर औरत की सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में कोई खास अंतर नहीं आया है. सामान्य तौर पर आज भी औरत को जैसे पुरुष की सम्पत्ति ही माना जाता है. उसे आज भी सामाजिक सम्मान मिलना किसी सपने से कम नहीं. उसकी सामाजिक मामलों आज भी जैसे साझेदारी नहीं है.

खैर! आज जबकि समाज को शिक्षा और विकास की बातों पर ध्यान देना चाहिए. हम ऐसी बातें फैला कर किसी एक वर्ग के पुरुषों की खिलाफत कर रहे हैं… ऐसा नहीं है.  हां! ये ठीक है कि हमें अफवाहें फैलाने के बदले इतिहास को लेकर समाज को शिक्षा और विकास की बातों पर ध्यान देना चाहिए…. किंतु इतिहास को सिरे से नकारना भी बेहतर समाज बनाने की प्रक्रिया के लिए घातक हो सकता है क्योंकि इतिहास हमें आगे का उन्नत मार्ग तलाशने का सबक देता है.

– लेखक  लेखन की तमाम विधाओं में माहिर हैं. स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर इन दिनों अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक के संपादन के साथ स्वतंत्र लेखन में रत हैं. संपर्क- 9911414511

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