नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट को देखें तो 1995 से 2015 तक में 3, 60,000 किसानों ने अब-तक आत्महत्या कर चुके हैं. प्रत्येक साल 15 हजार किसान आत्महत्या कर रहे हैं. इसको कैसे रोका जाये, भारत जैसे देश में किसान ऋण में पैदा लेता और ऋणग्रस्त होकर मरता है. अपने बच्चों को सरकार एवं साहूकारों का ऋणी बनाकर चले जाते थे. 1960-65 से लेकर आज-तक की स्थिति में कुछ ख़ास बदलाव नहीं हुआ है. अब क्या है भारतीय किसान बिना ऋण के जन्म लेते है और ऋण के कारण मर जाते हैं. 2011 के सेन्सर्स के अनुसार पिछले सेन्सर्स यानी 2001 से 2011 के बीच के अनुसार डेढ़ करोड़ किसानों ने खेती करना छोड़ दिया. दिन पर जोड़ा जाय तो प्रतिदिन दो हजार चालीस किसान खेती को छोड़ रहे है. खेती छोड़ने वाले किसान, किसान से खेतिहर मजदूर हो जाते हैं.
चूँकि खेती के साधन मंहगे होते जा रहे हैं और उससे आमदनी कम होते जा रही है. उनकी किसान बने रहने की हैसियत नहीं रहती है. या फिर वो अपने गाँव को छोड़ कर छोटे शहरों में, बड़े शहरों में रोजगार की तलाश में जाते हैं. जहाँ उन्हें रोजगार नहीं मिल पाता है ये है कृषि संकट का बड़ा कारण, और ये कृषि संकट है क्या? कृषि उद्योग की तरह घाटे में जाने पर कृषक को कहीं से कोई राहत नहीं मिल पाना ही उदासीनता की दिशा में बढ़ते जा रहा है. मुनाफ़ा नहीं होता है. कृषि मुनाफे का धंधा नहीं रहा इसलिए खेती छोड़ते जा रहे किसान, किसान ऋण लेते हैं खेती के लिए खेती मारी जाति है और किसान आत्महत्या के लिए विवस होते हैं. किसान ऋण कहाँ से लेते हैं. ज्यादातर महाजनों से ऋण लेते हैं, क्योंकि बैंक आदि के द्वारा ऋण सभी को नहीं मिल पाता है. और जिसे मिलता भी है तो प्रयाप्त मात्रा में नहीं मिल पाता है. उसे ऑफिसों का चक्कर काटना पड़ता है. ऋण का एक तिहाई हिस्सा घुस खिलाना पड़ता है. आखिरकार उसे महाजनों से ही ऋण लेना पड़ता है. महाजन अधिक ब्याज पर ऋण देता है. जिसके कारण वो खेती करके परिवार को चलते हुए ऋण चुका नहीं पाते हैं. फिर वो कर्ज में चला जाता है. यही कारण है कि कई किसान खेती को छोड़कर खेतिहर मजदूर हो जाता है या फिर शहर की ओर पलायन कर जाता है. ऐसे में किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाता है.
44-45 प्रतिशत जो कृषि शाख है वो इसी तरह से आता है. कृषि लाभकारी रहा क्यों नहीं अर्थशास्त्र के अनुसार लाभ है लागत और कीमत का अंतर… अगर हम विश्लेषण कर ले की कीमत क्यों मिलता है लागत और कीमत में अंतर क्यों नहीं है तो समझ जायेंगे. वर्तमान कृषि संकट में वर्तमान कृषि संकट के कारण… किसानों को कीमत क्या मिलता है. किसानों को उचित कीमत मिले, इसके लिए समर्थन मूल्य की नीति अपनाई गई, कृषि पर लागत और समय को जोड़ कर जो बनता है उसके अनुपात में लागत मूल्य को आँका जाता है. इसी के आधार पर समर्थन मूल्य तय होता है. न्यूनतम समर्थन मूल्य: इसका उद्देश्य था की किसान को उतना कीमत मिल जाय की उनको इतना समर्थन मूल्य मिल जाए की उसको खेती में घटा नहीं हो. खेती में लगाये गए लागत के अनुरूप घाटा न हो, इसलिए प्रतेक साल समर्थन मूल्य सरकार के द्वारा घोषित हो अभी ये समर्थन मूल्य बहुत विवाद में है. क्योंकि अभी के वर्तमान सरकार चुनाव में वादा करके कुछ आई थी और सरकार में आने के साथ ही पूंजीपतियों के नीतियों पर चलने लगते हैं.
हम स्वामीनाथन आयोग की अनुशंसाओं को लागू करेंगे. स्वामीनाथन आयोग की सिफारिस थी की किसानों को उसके लागत पर 50 प्रतिशत मुनाफ़ा जोड़कर उसे कीमत दिया जाय. (वर्तमान समय में इसको लागू करने के लिए किसान आंदोलित हैं.) वित्त मंत्री ने तो कहा हम लागत में 50 प्रतिशत जोड़कर कीमत घोषित करेंगे. रबी फसल में किया है और खरीफ में भी करेंगे. वित्त मंत्री के कहने के बाद समस्या कहाँ रह गया. समस्या यह है कि कृषि लागतों को कई तरीके से जोड़ा जाता है. किसान ने खेती के दरम्यान विभिन्न तरीके का खर्च किये हैं उसकी लागत जैसे बीज, खाद. कीट नाशक, बिजली, डीजल और श्रमिक आदि पर खर्च है. एक लागत हुई किसान अपने जेब से खर्च करता है, दूसरा लागत हुआ किसान अपना और अपने परिवार का श्रम लगाता है. अपने खेत में काम नहीं करता तो दूसरे जगह काम करता उसे मजदूरी मिलता, तो किसान और उसके परिवार का जो आनुमानित लागत मजदूरी हो वो जोड़ा जाय. स्वामीनाथन आयोग द्वारा जो जोड़ा गया है, a2+f l से जोड़ा है. तीसरा है, जिसे कहा जाता है समग्र कीमत : किसान अपने खेत पर खेती नहीं करता तो उसे लगान आता, वह लगान की राशि और उसके पास जो ट्रेक्टर है, थ्रेसर है, हार्वेसर है या अन्य तरह के जो भी कृषि उपकरण है. जिसको हम कृषि पूँजीगत सामान कहते है. इसको खरीदा तो इस पर ब्याज लग रहा है, उसकी कीमत क्या होगी फिर किसान अपनी उत्पादन को मंडी में ले जाता है तो ट्रांसपोर्ट कोस्ट लगता है. किसान अपना फसल मंडी में ले जाता है तो उसे कमिशन देना पड़ता है, उसे अपने फसल का बीमा कराता है तो प्रीमियम भरना पड़ता है. समग्र लागत को स्वामीनाथन कमिटी ने C2 कहा है, समग्र लागत पर 50 प्रतिशत जोड़कर समर्थन मूल्य घोषित करने की जरूरत है. लेकिन समर्थन मूल्य में लगातार कमी होती रही है.
बाजार को निगरानी करने वाली कृषि एक रेटिंग एजेंसी है उसने एक अध्ययन करके निकाला है. 2009 और 2013 के बीच में समर्थन मूल्य की वृद्धि की दर थी वह थी 19.3 प्रतिशत और 2014 से 17 के बीच सर्मथन मूल्य की दर रही है 3.6 प्रतिशत, उस समय यूपीए के समय में जो सर्मथन मूल्य था वो समग्र मूल्य के बराबर नहीं था, कम था. समग्र लागत से कम था लेकिन उसके करीब था. अब क्या है उसके करीब बिल्कुल नहीं रहा यानी कि 19 प्रतिशत से बढ़ा रहा था, तो लागत मूल्य के करीब था, समर्थन मूल्य लेकिन जब से 3.6 प्रतिशत के करीब समर्थन मूल्य पहुँच गया तबसे कृषि संकट गहरा सा गया है. एक अध्ययन आया दाल की लागत जिसने कहा 1916-17 में लागत में वृद्धि 3.7 प्रतिशत, उसके पहले के वर्ष में लागत वृद्धि थी 2.8 प्रतिशत यानी की लागत मूल्य में 3.7 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है तो समर्थन मूल्य में 3.6 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है. लागत मूल्य से भी कम की वृद्धि हो रही है. फिर किसान की लागत और समर्थन मूल्य के बीच के अंतर में लाभ नहीं दिखाई दे रहा है. अर्थात लागत मूल्य से भी कम समर्थन मूल्य तय करना कृषि कार्य हानि की दिशा में जा रहा है. पहला यह की वाजिब लागत पर 50 प्रतिशत समर्थन मूल्य जोड़कर वस्तु की कीमत तय करना है.
महत्वपूर्ण यह है कि समर्थन मूल्य केवल 26 वस्तुओं पर घोषित होता है. लेकिन लागू सिर्फ तीन-चार वस्तु पर ही हो पाता है. बाजार से घोषित मूल्य पर सरकार वस्तु को खरीदेगा. जितनी मात्रा में किसान अपनी वस्तु बेचना चाहे बेच सकता है. यानी सरकार को जब वस्तु खरीदना होता है तो वो सिर्फ दो ही वस्तु खरीदती है. धान और गेंहूँ तीसरी वस्तु प्रायः नहीं खरीदी जाती है किसान तो प्रायः सभी वस्तुओं की उत्पादन करती है. ये जो धान और गेंहूँ की बात है तो मोदी सरकार ने एक समिति बनाया ‘शांता कुमार समिति’ जिसने अपने अध्ययन में कहा ये समर्थन मूल्य का लाभ केवल 6 प्रतिशत किसान को मिलता है. इस समर्थन मूल्य के लाभ से 94 प्रतिशत किसान इससे बाहर रह जाता है. पुरानी सरकार और नई सरकार ने ऐसा कोई तंत्र विकसित नहीं किया है कि किसान अपने कृषि उत्पादन के वस्तु बेचना चाहे तो उस बस्तु को सरकार आसानी से खरीद ले जाय. इसलिए यह सवाल समर्थन मूल्य की घोषणा का नहीं है. सवाल खरीदने का भी है जो भविष्य में दिखाई नहीं पर रहा है. समर्थन मूल्य जो भी घाषित करता है, दूसरा यह जो समर्थन मूल्य घोषित होता है उस समर्थन मूल्य पर खरीद ले इसकी भी कोई गारेंटी नहीं है. तो कीमतें लगातार घटती जा रही है वही दूसरी तरफ खाद, बीज, कृषि से संबंधित उपकरण और कृषि पर तमाम तरह की लागते बढ़ते जा रही है. आखिर ऐसा हो क्यों रहा है. जैसा नीति हमने राजनीति को बनाया है ऐसा ही होगा.
दूसरा 1991 के बाद 1995 से ही कृषि संकट गहराते जा रहा है. ये कोई आज का संकट नहीं है. एक तरफ आर्थिक संकट शुरू होती है दूसरी तरफ कृषि संकट साल-दर-साल गहराता जा रहा है. 1991 के बाद से जिसे नव उदारवादी व्यवस्था कहते है, उदारवादी नीति में वृत्तीय घाटा को कम रखना है. वृत्तीय घटा को बनाए रखने के लिए कर राज्वस्व की वसूली को बढ़ाइए. कर राजस्व को बढाना नहीं क्योंकि हमें निजी क्षेत्र को मुनाफ़ा देना है. नव उदारवाद सिद्धांत के तहत हमें निजी क्षेत्र को बढ़ाना है. इसलिए कर राजस्व को बढ़ाना नहीं है. निजी क्षेत्र को बढाने के लिए उसे कर में छुट देना है और सरकार ऐसा करते रही है सरकार कीमत नहीं बढ़ा सकती है तो खर्च घटाये, ऐसा सरकारी क्षेत्र में कर को बढ़ा नहीं सकती है तो कृषि क्षेत्र में कर राजस्व बढ़ा देती है. ग्रामीण क्षेत्र बचा है, कृषि क्षेत्र बचा है जहाँ सरकार अपने व्यय में कटैती कर रही है. तो समर्थन मूल्य इसलिए भी नहीं बढ़ा रही की बाजार मूल्य और समर्थन मूल्य के बीच का अंतर को सरकार को भुक्तान करना पड़ेगा.
वृत्तीय घाटा को बनाए रखने के लिए समर्थन मूल्य पर नियंत्रण बनाए रखना सरकार की नियती है. ये तो नवउदारवाद की नीति भी यही कहता है. दूसरा WTO का जो समझौता है उसका भी यही नीति है कि कृषि पर छुट कम रखना है. भारत में जिसकी भी सरकार हो सब्सीडी लागत के अनुपात कम ही दिया जाना है. बाजार की बस्तुओं की कीमते बढ़ रही है वहीं उत्पादित बस्तुओं की कीमत मिल नहीं रही है. चूँकि दुनिया की बाजार आपस में जुड़ गई है. जुड़ने की वज़ह से यह होने लगा है कि बम्पर क्रॉप होने पर किसानों को उसके फसलों का कीमत नहीं मिल पाता है किसान आलू, टमाटर, बैंगन फेकते हैं और दूध बहाते हैं. और कभी कम उत्पादन होता है खराब मौसम की वज़ह से या किसी कारणों की वज़ह से तो ये सरकार है जो शहरी वर्ग से डरती है, चूँकि बाजार में उत्पादन कम होने के कारण बस्तुओं की कीमत कम होने के कारण वस्तुओं की दामों में वृद्धि को लेकर हाय तोवा मचा देती है. तब सरकार वस्तुओं को आयात कर लेती है बाजार को नियंत्रण कर लेती है. वहीं जब वस्तुओं का उत्पादन अधिक होता है तो उसका उचित कीमत नहीं मिल पाता है. जब वस्तु आयात की जाती तो उसका अंतरराष्ट्रीय बाजार के अनुसार कीमत निर्धारित होने लगता है समर्थन मूल्य कम तो बाजार मूल्य भी कम होने लगता है. इसका असर बाजार की कीमतों पर पड़ता है. किसान मारा जाता है कृषि मारी जाती है. जब उत्पादन अधिक होता है तब भी जब उत्पादन कम होता है तब भी… और इस तरह से किसान का शोषण हो रहा है.
शोषण कई तरह का होता है. ब्राह्मणवादी शोषण होता है, सामंतवादी शोषण होता है और पूंजीवादी शोषण होता है. ये जो किसानों के साथ शोषण हो रहा है यह शुद्ध पूंजीवादी शोषण हो रहा है. सामंतवादी शोषण होता है मजदूर को मुफ्त में काम कराया जाता है. कम मजदूरी देकर विदा कर देते हैं डंडे की जोड़ पर, ये पूंजीवादी शोषण हो रहा है, पूंजीवादी शोषण मूल्य के द्वारा होता है. किसानों की फसलों की कीमत कम मिलती है लेकिन जब वही फसल बाजार-मंडी से बाहर चली जाती है प्रोसेसिंग में चली जाती है तो उसका कीमत बढ़ जाती है. टमाटर की कीमत में और सोस की कीमत में, आलू की कीमत में और चिप्स की कीमत में, मकई के कीमत में और कान्फेक्स की कीमत में आसमान-जमीन का अंतर रहता है. डेढ़ रुपए में एक बोतल पानी तैयार होता है और वही पानी बाजार में 15 रुपए में बिकता है. ये जो मूल्य के द्वारा किसानों और आम जनता का शोषण हो रहा है यह शुद्ध रूप से पूंजीवादी शोषण है. किसान की हालत दिन-व-दिन वद-से-वद्तर होती जा रही है, कृषि संकट में पड़ते जा रहा है. ये मोटा-मोटी कृषि संकट का परिणाम है. सवाल है कि इसका निदान क्या है.
अर्थशास्त्री कई तरह के निदान बताते है 2022 तक किसानों की आमदनी दुगनी कर दी जायेगी, अर्थशास्त्रियों ने अनुमान लगाया है कि अगर कृषि उत्पादन में 14 या 8 या 6 प्रतिशत की वृद्धि प्रतेक साल हो तो 2022 तक में किसानों की आय दुगनी की जा सकती है. वस्तु की कीमते ठीक मिलते रहे, सरकार इसे नहीं मानती है लेकिन नीति आयोग यह कहता है की 2022 तक में किसानों की आमदनी दुगनी करने के लिए कृषि उत्पादन में 10.4 प्रतिशत की बार्षिक वृद्धि होनी चाहिए तभी किसानों की आय दुगनी हो पाएगी. हो कितनी रही है, इकोनोमिक सर्वे कहता की 2.1 प्रतिशत वृद्धि की ही संभावना है आगे के वर्षों में भी 2.1 प्रतिशत वृद्धि की संभावना है. और वातावरण में परिवर्तन हो रहा है इसके कारण आने वाले वर्षों में औसतन कृषि उत्पादन में 15 से 18 प्रतिशत की कमी होगी. और जहाँ असिंचित क्षेत्र है वहां पर 20 से 25 प्रतिशत कमी होगी. इसका कारण यह है की किसानों के प्रति सरकार का कोई रुची है ही नहीं… अभी हाल में आंदोलन कई हुआ है. महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, दिल्ली में बिहार में लखीसराय से वख्तियारपुर तक सड़क जाम हुआ. इस लिए की दलहन खरीद लो. आंदोलन तो हो रहा है लेकिन असर नहीं हो रहा है क्योंकि संसद में अब किसानों का बात करने वाला कोई नहीं है. संसद में अब किसान लॉबी नहीं है क्यों लॉबी नहीं है क्योंकि वोट तो हम दे रहे हैं धर्म और जात के नाम पर… धर्म-जाति और साम्प्रदाय में बंटे हुए भी है और हमें लगातार बांटने की कोशिश भी हो रही है. किसान की तो कोई जात है ही नहीं, न ही किसान हिन्दू है, न किसान सिख है, न किसान मुस्लिम है. न किसान उच्च वर्ग और न ही किसान निम्न वर्ग का हो सकता है. परंतु यहाँ तो किसान यादव है, कोयरी है, कुम्हार है, मुस्लिम है, सिख है, इसाई है, राजपूत है, ब्राह्मण है, तेली है, धनुक है, कुर्मी है और दलित है. इसलिए जरूरत है जाति और धर्म से ऊपर उठकर किसानों को संगठित होने की जरूरत है.
आत्मनिर्भरता जरुरी है लेकिन सहकारिता के बिना सामाजिक व्यवस्था संभव नहीं है. गांधी के ग्राम स्वराज्य का सिद्धांत से निकला हुआ सहकारिता का दर्शन दुनिया के मानवता के लिए है. ये जीवनशैली, जीवन पद्धति है. चीन में रेगुलेटेड मार्केट है, वहां सभी वस्तुओं का मूल्य सरकार तय करती है चूँकि वहाँ सरकार के नियंत्रण में कृषि उत्पादन से संबंधित वस्तु है, उन पर मूल्य निर्धारण करती है और प्रोसेसिंग मार्केट के तहत सरकार फेक्टरियों में वस्तु पहुंचाते है जिससे वहां के किसान को उसके वस्तु का कीमत मिल जाता है. और यहाँ खुला बाजार है, पूंजीपति और व्यापारी वर्ग यह चाहता है कि उसे कम दाम में उत्पादित फसल मिल जाय, कभी-कभी जब भारत के किसान को अपने फसल का कीमत मिलने की स्थिति बनती है. वैसे में व्यापारी वर्ग खुला बाजार के कारण सरकार के सहयोग से विदेशों से आनाज आयात कर लेती है. इसके कारण किसान को दोहरा मार का शिकार होता है. मार्केटिंग एक रास्ता है जिसके माध्यम से लागत-कीमत का अंतर के साथ-साथ बहुत सारे समस्याओं का निदान हो सकता है. सहकारी पशुपालन और सहकारी कृषि होगा तो अपने आप ग्रामीण हाट-बाजार बढेगा. बीज संरक्षण केंद्र होगा, जीरो वजट नेचुरल फार्मिंग जैसे कृषि के दिशा में भारत बढेगा. सहकारी खेती, सहकारी पशुपालन, सहकारी मार्केटिंग केवल हिन्दू के लिए नहीं होगा, केवल मुस्लिम के लिए नहीं होगा, न ही केवल सवर्णों के लिए होगा और न ही दलित-पिछड़ों के लिए होगा. इसका लाभ सबको मिल पायेगा. दरअसल सहकारिता से सभी के बीच रिश्ते वेहतर होगा. हिन्दू-मुस्लिम के बीच का झगड़े खत्म होंगे, दलित-पिछड़ों और अगड़े के बीच का झगड़ा खत्म होगा. आपस में पारिवारिक संबंध विकसित होगा, तब सायद उस मूल्य की भी पूर्ति होगी जिसके दंभ पर मानवता टिका है. आज जिस तरीके से लोग पढ़ते-लिखते जा रहे है और अपने गाँव व कस्बे को भूलते जा रहा है. तब मेनेजमेंट किया हुआ लड़का बैंक में न जा कर सहकारी खेती व्यवस्था से जुड़ेगा, क्योंकि तब हमें मेनेजमेंट की जरूरत पड़ेगी.
आज किसानों को लामबंद होने की जरूरत है, विभिन्न झंडों के तले नही बल्कि एक बैनर तले, तभी कृषि संकट से भारत बाहर निकल पायेगा. (30 नवम्वर को दिल्ली में किसान रैली में अठारह विपक्षी दलों के नेताओं को एक मंच पर आना) गांधी जी का ट्रस्टीशीप का सिद्धांत आज भी प्रसांगिक है. ग्राम स्वराज्य में ट्रस्टीशीप के सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए गांधीजी ने कहा कि मनुष्य के द्वारा अब-तक की सभ्यता के विकास से पनपी समस्याओं का विकल्प यही है. जिसमें सहकारी खेती, सहकारी पशुपालन और सहकारी बाजार व्यवस्था से ही सभी का जीवनशैली उत्कृष्ट हो पायेगा. अकेला व्यक्ति, अकेला किसान, अकेला मजूदर सामाजिक परिवर्तन नहीं ला सकता है. गाय को या फिर किसी भी तरह के जानवरों की रक्षा करना और उसके दूध का लाभ अन्य लाभ लेना हो तो ये अकेले संभव नहीं है. सौ किसान मिलकर वो अपने पशुओं का अच्छी तरीके से इलाज कर सकता है. उसकी देख भाल अच्छी तरीके से हो सकता है एक किसान की तुलना में, जो बात सहकारी पशुपालन से ही संभव हो सकता है. वही बात कृषि पर भी लागू होता है. गांधीजी के जीवनशैली को देखें तो उन्होंने सहकारी कृषि की भी बात की थी. सौ किसान अपने खेतों को मिला दे और उसपर खेती करे फिर अपने उत्पादन को बाँट ले, इससे उत्पादन भी बढ़ेगा और संसाधनों की भी वचत होगा. गांधी जी ने सहकारी पशुपालन और सहकारी कृषि की बात की, वर्धा स्थित गोपुरी इसका उदहारण है. इसके साथ उन्होंने सहकारी लघु-कुटीर उद्योग का भी विचार दिया जिसका स्थानीय स्तर पर ग्रामीण स्तर पर अपना ग्रामीण हाट, बाजार होगा.
नीरज कुमार, पी-एच.डी, शोधार्थी
गांधी एवं शांति अध्ययन विभाग, म.गां.अं.हिं.वि.वर्धा.
इसे भी पढ़ें-शहरों/ नगरों /सड़कों के नाम बदलने की राजनीति नई तो नहीं है किंतु ….
दलित दस्तक (Dalit Dastak) एक मासिक पत्रिका, YouTube चैनल, वेबसाइट, न्यूज ऐप और प्रकाशन संस्थान (Das Publication) है। दलित दस्तक साल 2012 से लगातार संचार के तमाम माध्यमों के जरिए हाशिये पर खड़े लोगों की आवाज उठा रहा है। इसके संपादक और प्रकाशक अशोक दास (Editor & Publisher Ashok Das) हैं, जो अमरीका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में वक्ता के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दलित दस्तक पत्रिका इस लिंक से सब्सक्राइब कर सकते हैं। Bahujanbooks.com नाम की इस संस्था की अपनी वेबसाइट भी है, जहां से बहुजन साहित्य को ऑनलाइन बुकिंग कर घर मंगवाया जा सकता है। दलित-बहुजन समाज की खबरों के लिए दलित दस्तक को ट्विटर पर फॉलो करिए फेसबुक पेज को लाइक करिए। आपके पास भी समाज की कोई खबर है तो हमें ईमेल (dalitdastak@gmail.com) करिए।